लुधियाना 11 अक्टूबर : गुरुदेव पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज एवं पूज्य भगत हंसराज जी महाराज (बड़े पिता जी) की कृपा से पूज्य पिता श्री कृष्ण जी महाराज एवं पूज्य माँ रेखा जी महाराज के पावन सान्निध्य में रामायण ज्ञान यज्ञ के दसवें दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिंध्य में
श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज सरस्वती द्वारा रचित रामायण जी में लंका काण्ड का परायण किया गया।
पूज्य पिता जी श्री कृष्ण जी महाराज ने सभी साधकों को अष्टमी की बधाई दी और कहा कितना मंगल दिन है आज अष्टमी हैं, शुभ धरती है, शुभ आप का साथ है। कितने भाग्यशाली हैं हम लोग, जो हमें रामायण जी का परायण करने का सुअवसर मिला हैं। आपका अपार प्रेम मिल रहा है। सेवा करने वाले बड़े भाव से सेवा कर रहे हैं। बड़े भाव चाव से जप यज्ञ चल रहा है।
महाराज से यही प्रार्थना है
“बार बार मिले राम मेला सजना दा।”
उन्होंने कहा ये नहीं सोचना कि जीवन में कोई मुश्किल नही आनी। मुश्किल आएगी, बाधाए आएगी, मगर मुश्किलो से नही डरना। क्योंकि जो वीर है, वो एक बार मरता है, परन्तु जो डरपोक है, वहमी है, वो रोज़ मरता है। कोई भी व्यक्ति संसार में अपनी भौतिक वस्तुओं से नही जाना जाता। वह अपनी रीति, नीति और प्रीति से जाना जाता हैं। अपनों को विरोधी होने से रोकना चाहिए। क्योंकि जो अपना विरोधी बन जाए वह ज़हरीले नाग से भी बुरा है। ऐसे विरोधी से बचना चाहिए।
हमारे राम बहुत दयालु है। हमें उनपर पूर्ण विश्वास रखना है। रामायण जी में लिखा है, राम जी कहते हैं, “जो दीन बनकर दया, आसरा माँगता है, मेरा व्रत है, मैं उसको शरण में ले लेता हूँ, भले ही वह मेरा शत्रु क्यों न हो।”
कहे जो ‘मैं आपका हूं,
शरण में जब आ पड़े।
मम व्रत है रक्षा करना,
कष्ट कैसे हों कड़े।।
रामायण ज्ञान के दसवें दिन यज्ञ में लंकाकाण्ड के पाठ को पूर्ण किया गया व भरत मिलाप काण्ड को आरम्भ किया गया।
पुज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) द्वारा श्री राम जी व् रावण युद्ध का वर्णन अद्धभुत था। सभी साधकों ने सभी प्रसंगों को बहुत ही उत्साह से पढा।
पूज्य पिता जी ने कहा-
हनुमान जी, राम जी को लंका पुरी सभी भेद बताते हैं। राम जी, लक्ष्मण जी, सुग्रीव जी और उनके सभी सचिवों सहित लाखों वानरों की सेना ले लंका की ओर चल पड़ते हैं। राम जी सेना सहित सागर के किनारे पहुंचते हैं। विशाल सागर को देख सभी उस को पार करने के उपाय सोचने लगतें हैं।
उधर रावण अपने मंत्रियो की सभा बुलाता है। रावण उन से इस मुसीबत से छुटकारा पाने का उपाय पूछता है।मंत्री उसे कहतें हैं आज तक आप को कोई पराजित नही कर सका तो हम राघव सेना क्यों डरें। सभी सचिव बड़ी बड़ी डींगें मारने और रावण की चापलूसी करने लगें। तब विभीषन जी रावण को कहतें है रामचंद्र बहुत सचेत और सावधान है। वह एक अजय योद्धा है और लाखों वीर ले कर आया है। उस का एक दूत हमारा कितना नुकसान कर गया था। आप ने उस की पत्नी का हरण किया है इस लिये वह रोष में यहाँ आया है। वह रावण को व्यर्थ का घमंड छोड़ सीता जी को लौटाने के लिए कहतें हैं। रावण उसे कहता है कि मैं जगत में अजित हूँ। मैं रामचंद्र से नही डरता। जो भी हो जाये मैं सर्व सुंदरी सीता को नही छोडूंगा। अगले दी रावण फिर सभा बुलाता है। वह अपने सेनापति को युद्ध की तैयारी करने को कहता है। कुम्भकर्ण रावण को कहता है कि सीता का हरण कर तूने घोर कुकर्म किया है। अनुचित कार्य कर अंत में पछताना ही पड़ता है। मैं तो तेरा भाई हूँ इस लिय लड़ने मरने के लिये तेरे साथ खड़ा हूँ। विभीषण जी पुन रावण को समझाते हैं कि अभी भी समय है सीता को वापिस कर दो नही तो राघव बाणों से सब असुर मारें जाएंगें। इस से मेघनाद उन से चिढ़ कर कहता है असुर वंश में तुम बहुत डरपोक हो। हम रामचंद्र से क्यों डरें। हम सब मार डालेंगे। रावण पुत्र की बात सुन वभीषण उसे बाल बुद्धि कहता है। ऐसा दोनों आपस में लड़ पडते हैं। रावण पुत्र और बंधु की कलह देख कर विभीषण जी को कहता है जो बंधु विरोधी बने वह विषधर सभी बुरा होता है। जो बातें तूने कहीं है यदि कोई और कहता तो मैं उसे मार डालता। रावण क्रोधित हो उन्हें लंका से निकाल देता है।
जभी विषम कुछ होना होता,
बुद्धि ज्ञान खा जाते गोता।
असुरपति का अन्त था ऐसा,
जिससे बना दुष्ट हो जैसा।।
वह अपने चार साथियों सहित सागर के इस पार राम जी के पास आते है। वह आकाश में रुक कर सुग्रीव जी को अपना परिचय दे, रावण द्वारा लंका से निकले जाने के बता, राम जी से मिलने के लिये कहतें है। सभी सचिव राम जी को कहतें की असुरों पर विश्वास नही किया जा सकता है। परंतु राम जी कहतें हैं ” जो कहे मैं आप का हूं और मेरी शरण में आ जाता है, उस पर कैसे भी कष्ट हो, उस की रक्षा करना मेरा व्रत है।” राम जी उन्हें अपने पास बुला लेतें हैं। वभीषण जी उन्हें मिल कर कहतें है कि मैं अब आप की शरणागत हूँ और आप का दास हूँ। राम जी विभीषण जी को दिलासा देतें हैं और उन राज्य अभिषेक कर उन्हें लंकेश घोषित कर देतें हैं। विभीषण जी राम जी के पूछने पर उन्हें लंका के सभी ही भेद बता देते हैं। राम जी उन से सागर तो पार करने की विधि पूछते है। विभीषण जी उन्हें सागर को पार करने के लिये उस पर पुल बनाने की विधि बताते हैं। वानर राम जी से पुल बनाने की आज्ञा माँगते हैं। राम जी तीन दिन का अनुष्ठान कर सेतु निर्माण की आज्ञा दे देतें हैं। वानर दिन रात एक करके, सागर के इस पार से उस पार तक जाने के लिये पुल का निर्माण कर देते हैं। राम जी लक्ष्मण जी, सुग्रीव जी, हनुमान जी, अंगद जी सभी सेना सहित सागर पार कर लंका को घेर लेते हैं। रावण अपने भेदी शुक और सारण को राम जी की सेना के भेद लेने भेजता है। वहां वह वभीषण जी द्वारा पहचानने पर पकड़े जातें है। उन को राम जी पास ले जाया जाता है। राम जी उन को छोड़ देतें हैं और कहतें की असुर पति को मेरा संदेश देना की कल मैं इस का बल देखूंगा। मुझे उसे सीता हरण का दंड देना है। मुक्त हो कर दोनों दूत रावण के पास आ उसे सब बतातें हैं। वह कहतें है वानर शक्ति दुर्जय है। असुरों का उन से समर रचाना जीवन सम्पत लुटवाना है। परन्तु रावण कहता है यदि अब देव और दानव भी सीता को छुड़वाने आ जाये तो मैं उन से भी युद्ध कर लूंगा परंतु सीता को वापिस नही करूंगा। राम जी अंगद को अपना दूत बना रावण को समझाने के लिए भेजतें हैं। अंगद जी रावण को कहतें की मैं बाली का पुत्र राम जी का दूत बन के आया हूँ। उन्होंने कहा है कि क्षमा याचना करते हुए तू अभी मेरे शरणागत हो जा नही तो समर भूमि मे मारा जायेगा। यह सुन क्रोध में आ रावण अपने सैनिकों को अंगद जी को मारने के लिये कहता है। वह सैनिकों से धकम्म धक्का कर बाल बाल बच के राम जी के पास आ जाता है।
रावण के न पर मानने राम जी युद्ध शुरू करने की आज्ञा दें देतें है। युद्ध शुरू हो जाता है। पहले ही दिन लक्ष्मण जी, सुग्रीव जी हनुमान जी, अंगद जी, जाम्बवान इत्यादि वानर सेना नायक रावण के मुख्य सेना नायकों को मार देते हैं। दिन के युद्ध में रावण की सेना हार कर वापिस लंका में भाग जाती है। अपनी हार का बदला लेने के लिये असुर रात में हमला कर देतें है। भीषण युद्ध शुरू हो जाता है। असुरों का रंग काला होने के कारण वानर उन्हें पहचान नही पाते। असुर वानरों को मारने लगते हैं। रावण अपने पुत्र मेघनाद को युद्ध के लिये भेजता है। वह आ छुप कर मायावी युद्ध करने लगता है और वानरों को मारने लगता है। उस को रोकने के लिए राम जी और लक्ष्मण जी उस से युद्ध करने लगतें हैं। वह मायावी छुप कर दोनों को नागपाश से बांध देता हैं। नागपाश से घायल दोनों भाई बेहोश हो कर युद्ध स्थल गिर जातें हैं। उन्हें मरा जान मेघनाद विजय नाद गूंजता लकां में वापिस चला जाता है। राम लक्ष्मण को मरा जान रावण प्रसन्न होकर उसे गले से लगा लेता है। उधर वानर सेना में हाहाकार होने लगता है। तभी ज्ञानी गरुड़ वहाँ आते हैं और राम जी और लक्ष्मण जी के शरीर पर हाथ फिराते है। उन के हाथ फिराते ही दोनों भाइयों का विष दूर हो जाता है और वह स्वस्थ हो उठ कर बैठ जाते हैं। वानरों का साहस दूना हो जाता है। वह उत्साह मे आ कर असुरों का हनन करने लगतें है। हनुमान जी आगे आ धूम्राक्ष को मार देतें हैं। सेनापति को मरा जान रावण क्रोध मे आ व्रज दष्ट्र को भेजता है। वह आकर वानरों को मारने लगता है। तब अंगद जी आगे आ कर उस की तलवार छीन कर उस से उस का वध कर देतें है। तब रावण अकम्पन को भेजता है। वह आ कर लड़ने लगता है।
[11/10, 18:32] Ramsharnam Vijay Gupta: तब हनुमान जी उस से युद्ध करने लगते हैं वह एक पेड़ उखाड़ उस से अकम्पन को मार देतें है। अगले दिन रावण प्रहस्त को भेजता है वह भी नील के हाथों मारा जाता है। प्रहस्त मरण से रावण बहुत क्रोधित हो जाता है और स्वयं युद्ध के लिए आता है। वह सुग्रीव जी को घायल कर देता है। तब राम जी और लक्ष्मण जी आगे हो कर रावण से युद्ध करते हैं और उसे हरा देते हैं। रावण हार कर लंका में वापिस भाग जाता है। राघव जी की चारों दिशाओं में जय जयकार होने लगती है। रावण हार से खीज कर अपने भाई कुम्भकर्ण को युद्ध के लिए भेजता है। राम जी उस का भी वध कर देतें हैं। कुम्भकर्ण का हनन सुन कर असुरों में शोक व्याप जाता है। तब मेघनाद युद्ध मे मायावी युद्ध की तैयारी के लिये निकुमिभला स्थान पर अनुष्ठान करने चला जाता है, जब वह अनुष्ठान कर रहा होता है, तब विभीषण जी लक्ष्मण जी को वहां ले जातें हैं। वहाँ मेघनाद और लक्ष्मण जी में युद्ध होता है। लक्ष्मण जी मेघनाद को एन्द्रास्त्र को चला मार देतें हैं। रावण अपने पुत्र मेघनाद की मृत्यु का सुन मुर्छा खा गिर जाता है। सचेत होने पर क्रोधित हो स्वयं युद्ध के लिये आता है और सामने विभीषण को देख उस पर शक्ति अस्त्र से वार करता है। लक्ष्मण जी उस अस्त्र को अपने वाण से काट देतें हैं। रावण क्रोधित हो कर लक्ष्मण पर अमोघ शक्ति का वार करता है। वह शक्ति आ लक्ष्मण जी के उर में धस जाती है। उसके लगते ही लक्ष्मण जी अचेत हो कर गिर जातें हैं। तब राघव जी आगे आ कर रावण से युद्ध कर उसे भगा देतें हैं और लक्ष्मण का सिर गोद में ले कर विलाप करने लगते हैं।
बोले राघव, अनुज दुलारे,
पहले भी दुःख थे तो भारे।
इस पर विषम दशा यह तेरी,
धैर्य तोड़ रही है मेरी।।
मुझे छोड़, अनुज! नही जाना,
अपने को प्यारे! अपनाना।
उठो निहारो मुख को खोलो,
एक बार तो मुझ से बोलो।।
तभी वैद्य सुषेण जी आते हैं और राम जी को कहतें हैं कि तेरा भाई अभी मरा नही है, वह मुर्छित है। यदि सुबह होने से पहले हिमालय से संजीवनी औषधि ला लक्ष्मण जी को सुंघाई जाये तो वह जीवित हो जायेगें। तब राम जी हनुमान जी की ओर देखतें है। वह हिमालय पर जातें है और उस औषधि को ले कर आते है। सुषेण जी उसे विधि से पिसवा लक्ष्मण जी को सुंघाते हैं। उस को सूंघते ही लक्ष्मण जी उठ कर बैठ जातें है और कहतें हैं, प्रभु अब देर मत करें सूर्य छिपने से पहले शत्रु का हनन होना चाहिए।
सूर्य छिपने पीछे पाये,
पहले शत्रु हना ही जाये, बड़ी प्रतिज्ञा यह अब धारो,
ऋषि मुनियों के दुःख निवारो।।
लक्ष्मण जी के वचन सुन राम जी रावण से फिर युद्ध करने लगतें हैं। दोनों में भयंकर युद्ध होता है। जब युद्ध में कोई निर्णय नही होता तो राम जी अगस्त्य ऋषि का दिया अमोघ अस्त्र से रावण पर वार करते हैं और उसे मार देतें हैं। रावण के मरते ही असुर लंका में भाग जातें हैं और राम जी की सेना मैं जय जयकारे गूंज उठते हैं। ऋषि मुनि राम जी को बधाई देने आते हैं और देव गण उन पर पुष्प वर्षा करतें हैं। हर ओर आनंद ही आनंद व्याप जाता है। सभी वानर मोद मनाने लगते हैं।
पूज्य पिता जी ने सभी साधकों को रावण वध की वधाई दी। उन्होंने कहा की आज के दिन साधकों को अपने अंदर के रावण को मारने का और राम को अन्दर बसाने का प्रण लेना चाहिये। अपने अंदर के अहंकार, आलस्य, प्रमाद कपट और छल को भी हमें खत्म करना है।
राम जी रावण की मृत्यु उपरांत राम जी विभीषण जी को उस के विधि सहित अंतिम संस्कार के लिए कहतें हैं। विभीषण जी कहतें हैं कि रावण आप का और मेरा शत्रु था, उस ने ऋषि मुनियों पर बहुत अत्याचार किये थे इस कारणउस का दाह संस्कार नही चाहिए। राम जी को उस के चापलूसी से भरे भाव नही भाते।
भाव विभीषण के पहचाने,
राघव ने वे उचित न जाने।
उनको न थी वह भक्ति भाती
चापलूसी जो कही जाती।।
राम जी विभीषण को कहतें है जब से रावण हत हो भूमि पर गिर तभी से हमारा सभी झगड़ा शांत हो गया। अब हमारा उस से कोई वैर नही। वह एक महापुरष था और बहुत वीर था। जैसे वह तेरा बंधु था वैसे ही अब मेरा है। वह रावण अपना बन्धु बता उस का विधि अनुसार दाह कर्म करने को कहतें है।
राघव की आज्ञा से दाह कर्म की तैयारी होती है। तभी महल से रावण की पटरानी मन्दोदरी रावण का मरण जान विलाप करते हुए आती है। राधव जी उसे कहतें है जग में मरना जीना काल के हाथ हैं। मानव तो निमित्त मात्र है। नियति के नियम अनुसार ही जीवन चलता है। जो होनी होती है वह हो कर रहती है। इस लिये शांत बनो और धैर्य को धारो। राघव जी उस को और रावण के अन्य बंधुओं को ढांढस बंधाते हैं। रावण का विधि अनुसार दाह-कर्म किया जाता है।
नौ दिनों से चल रहे ज्ञान यज्ञ, सेवा यज्ञ और जप यज्ञ जिस में हज़ारों की संख्या में साधक सम्मलित होकर अपना जीवन धन्य कर रहे हैं, की पूर्ण आहुति मंगलवार, 12 अक्टूबर, को प्रातः 8 से 10 बजे की सभा में पूज्य श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) और पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिघ्य में होगी।
पूज्य पिता जी महाराज ने सभी साधकों को इस पूर्णाहुति में सम्मलित होने की प्रेरणा दी।
सत्संग में शहर के गणमान्य व्यक्तियों, महासचिव भाजपा पंजाब श्री अनिल सरीन, वरिष्ठ वकील श्री के आर सीकरी, डॉक्टर श्रीमति टीना,श्री दविंदर सूद, डॉक्टर श्री नरेश बत्रा (जालंधर) इत्यादि ने भी शामिल हो कर महाराज एवं गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त किया।