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कांवड़ों के लिए पर्देदारी का मतलब

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भारत के नीति आयोग की नौवीं बैठक से बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी के बहिष्कार की बात करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कांवड़ यात्रियों केलिए यूपी में की जा रही पर्देदारी की बात करना जरूरी है। यूपी की सरकार और जिला प्रशासन कांवड़ यात्रा को लेकर श्रवणकुमार से भी ज्यादा संवेदनशील नजर आ रही है । यूपी के योगी बाबा की सरकार की नौकरशाही ने हरिद्वार में कांवड़ यात्रायों के रास्ते में पड़ने वाली मस्जिदों को सफेद कपडे से ढंकने की कोशिश की है। परदे मस्जिदों पर तो नहीं लगे लेकिन उन्हें छिपाने की कोशिश जरूर की गयी।

देश का पहला कावंड यात्री कौन था इसका कोई अभिलेख नहीं है ,क्योंकि जब देश में जब पहला कांवड़ यात्री घर से बाहर निकला था तब बाबा की सरकार नहीं थी।

हम लोगों के मन-मष्तिष्क पर पहले कांवड़ यात्री के रूप में श्रवण कुमार का नाम दर्ज है । वे अपने दिव्यांग माँ-बापू को कांवड़ पर लादकर तीर्थ यात्रा करने निकले थे। त्रेता में रघुवंश के तत्कालीन राजा दशरथ के तीर से उनकीमौत हो गयी थी। मुमिकन है कि वर्तमान की कांवड़ यात्रा इसी किंवदंती से प्रेरित हो ?कांवड़ यात्रा को लेकर एक किंवदंती और है। कहते हैं की कांवड़ यात्रा का संबंध दूध के सागर के मंथन से है। जब अमृत से पहले विष निकला और दुनिया उसकी गर्मी से जलने लगी, तो शिव ने विष को अपने अंदर ले लिया। लेकिन, इसे अंदर लेने के बाद वे विष की नकारात्मक ऊर्जा से पीड़ित होने लगे। त्रेता युग में, शिव के भक्त रावण ने कांवड़ का उपयोग करके गंगा का पवित्र जल लाया और इसे पुरामहादेव में शिव के मंदिर पर डाला। इस प्रकार शिव को विष की नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति मिली।

आजकल कांवड़िये अपने माँ-बाप को कांवड़ में बैठकर चलने के लायक तो हैं नहीं सो सांकेतिक रूप से गंगाजल भर कर लाते-ले जाते हैं। वे रावण की तरह शिव को शांत करना कहते हैं। अतीत में लोग चुपचाप कांवड़ यात्रा पर जाते थे, वर्तमान में ढोल बजाकर जाते हैं । सरकार कांवड़ यात्रियों का स्वागत करती हैं । हेलीकाप्टर से पुष्प वर्षा कराती है। कांवड़ियों के रास्ते में लगे बाजारों में दुकानों ,ठेलो पर दुकानदारों की नेम प्लेट्स लगवाती है और अब तो रस्ते में पड़ने वाली मस्जिदों को अदृश्य करने के लिए सफेद कपडे की कनातें लगाने लगी है।

मुझे लगता है कि ये सब करने की प्रेरणा सरकार और नौकरशाहों को भोले बाबा देते होंगे । यदि ये बात गलत है तो फिर तय है कि ये सब बाबा के दिमाग की उपज होगी। कनातें लगाने से कांवड़ यात्रा अशुद्ध नहीं होगी इसकी क्या गारंटी है ? कांवड़िये श्रवण कुमार नहीं है। वे उन्माद से भरे है। चिलम फूंकते हैं। तोड़फोड़ करते हैं। प्रशासन कांवड़ियों के रास्ते में पड़ने वाली शराब की दुकानों पर पर्दा नहीं डालता क्योंकि शराब की दुकाने देखकर कांवड़ियों का मन नहीं डोलता लेकिन मस्जिद देखकर डोल सकता है। मन होता ही डांवांडोल होने के लिए है । कनावड़ियों का मन नहीं डोला तो प्रशासन का मन डोल गया। ये बात और है कि हरिद्वार प्रशासन ने कुछ ही देर में ज्ञानचक्षु खुलनेपर ये कनातें हटा लीं।

यूपी प्रशासन ने मुजफ्फरनगर और हरिद्वार में तो कांवड़ियों को विचलित होने से रोक लिया लेकिन मेरठ में कांवड़ियों ने अपना रौद्र रूप दिखा दिया और एक कार का कचूमर लगा दिया। आरोप है की दिल्ली रोड पर मेरठ साउथ स्टेशन के नीचे आराम कर रहे गाजियाबाद निवासी शिवभक्त मोहित की कांवड़ पर शनिवार शाम को मेट्रो के कर्मचारी ने गुटखा खाकर थूक दिया। जिसे कांवड़ियों ने देखा लिया और कांवड़ खंडित करने का आरोप लगा हंगामा किया। बेचारी कार का इसमें कोई दोष नहीं था।

आप यकीन कीजिये की मेरी भी हसरत थी की मई एक बार कांवड़ लेकर निकलूं ,लेकिन कांवड़ियों का लोक-व्यवहार देखकर मैंने अपना मन समझा लिया।

यूपी की सरकार को भी अपना मन समझा लेना चाहिए । उसे केवल क़ानून और व्यवस्था के लिए अपनी ऊर्जा खर्च करना चाहिए न की कांवड़ियों की सेवा कर पुण्य कमाने के लिए। मुश्किल ये है की न सरकार मानती है और न यूपी की नौकरशाही। दोनों पुण्य कमाने पर आमादा हैं। देश में सरकारें जब तक अपने आपको धर्म-कर्म से मुक्त नहीं करेंगी,समस्याएं बरकरार रहेंगीं।

देश में कांवड़ यात्रियों की सुरक्षा करना ही सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है । मुद्दे और हैं ,जिन्हें इस कांवड़ यात्रा के बहाने छिपाया जा रहा है। संसद में जिन मुद्द्दों पर बहस होना चाहिए वो नहीं हो रही ह। नीति आयोग में ठकुरसुहाती को मौक़ा दिया जा रहा है लेकिन सबका साथ ,सबका विकास का सूत्र छोड़ दिया गया है। नीति आयोग कीबायथक में आधा दर्जन से अधिक राज्यों के मुख्यमंत्री नहीं आये लेकिन बैअतःक हो गयी,क्योंकि भाजपा शास्त राज्यों के मुख्यमंत्री तो बैठक में थे । बैठक इन्हीं के लिए तो आयोजित की गयी थ। केंद्र सरकार भाजपा शासित रज्यों के अलावा दुसरे मुख्यमंत्रियों को मुख्यमंत्री मानती ही नहीं है ।

सवाल ये है कि सरकारें कनातें लगा-लगाकर कितने मुद्दों को जनता कीआँखों से ओझल कर पाएंगी । एक न एक दिन तो सरकारों को असली मुद्दों पर बात करना ही पड़ेगी। ये देश प्रश्नाकुल संस्कृति का देश है । इसलिए प्रश्नों का सम्मान कीजिये,उत्तर दीजिये । उत्तर नहीं है तो उत्तर देने के लिए समय मांगिये,किन्तु यतत्र दीजिये। सवालों की अनदेखी देश के लोकतंत्र को बीमार बना देगी ।

@ राकेश अचल

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