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प्रकृति को समर्पित आदिवासियों का लोकपर्व करमा

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कुमार कृष्णन

करमा पर्व भाई-बहन के प्यार और प्रकृति से जुड़ा पर्व है। इसे न सिर्फ झारखंड बल्कि मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल सहित तमाम जनजातीय क्षेत्रों में पूरे उल्लास और उमंग के साथ बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। करमा जीवन में कर्म के महत्व का पर्व तो है ही, यह प्रकृति के सम्मान का भी पर्व है।आदिवासी-मूलवासी समाज अपने प्रकृति प्रेम तथा इनके साथ अपने सहचार्य जीवन की जीवंतता को इस त्यौहार में प्रगट करते हैं। करम त्योहार, मात्र एक त्यौहार ही नहीं हैं, बल्कि आदिवासियों के सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,ऐतिहासिक तथा पर्यावरणीय जीवन शैली का ताना बाना है। झारखंड के सभी आदिवासी समुदाय करमा त्यौहार मनाते हैं। करमा मनाने के पीछे मुंडा, उरांव, खडिया, हो-संताल, आदिमजाति, मूलवासियों की अपनी अपनी मान्यताएं हैं। इसके साथ ही अपनी सुविधानुसार सभी गांव करमा त्यौहार मनाते हैं। कहीं बुढ़ी करमा, कहीं ईन्द करमा, कहीं जितिया करमा, कहीं ढेढिरा करमा मनाते हैं।

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी की रात को करमा पर्व मनाया जाता है। नौ दिन तक चलनेवाले करमा पर्व को लेकर जनजातीय क्षेत्रों की महिलाओं में उत्साह चरम पर रहता है। इस पर्व पर बहन अपने भाई के दीर्घायु होने की कामना करती है। साथ ही अच्छी पैदावार के लिए भी इस पर्व को मनाया जाता है। इसके आगमन के पूर्व युवतियां नदी में स्नानकर नयी बांस की टोकरी में बालू भरकर कुरथी, जौ, धान, अरहर, मकई आदि डालकर जावाडाली बनाती हैं। जावाडाली को आंगन के बीच में रखकर सुबह-शाम मांदर-नगाड़े की थाप पर युवतियां करमा गीत आजू करमा गोसाई, घरे आंगने गो.. गाते हुए थिरकती हैं।

करमा पर्व को मनाने के लिए महिलाएं ससुराल से मायके आती हैं। इस मौके पर महिलाओं के बचपन की यादें ताजा हो जाती हैं। एक अर्से के बाद सभी सहेलियां एक दूसरे के साथ मिलजुल कर यह पर्व मनाती हैं। पर्व के दिन करम गाड़ने के बाद समुदाय के लोगों को करम कथा सुनने के लिए बुलाया जाता है। दूसरी ओर करम अखाड़े में चारों ओर भेलवा, सखुआ आदि खड़ा किया जाता है। युवक-युवतियां करमा नृत्य करते हैं। दूसरे दिन सुबह भेलवा वृक्ष की टहनियों को धान के खेत में गाड़ दिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे फसल में कीड़े नहीं लगते हैं।

इस शुभ दिन गांव में सुख,शांति और सम्पन्नता के लिए गांव का पाहन अखड़ा में करम की डाली गाड़ता है। करम की डाली संदेश देती है-श्रम करने का, ईष्या द्वेष की तिलांजलि देकर भाईचारे के साथ जीवन व्यतीत करने का तथा कामना की जाती है अच्छी फसल की।आदिवासी जनजातियों का यह पर्व ऐसे समय होता है जब सम्पूर्ण क्षेत्र में धान की रोपनी का काम समाप्त हो चुका होता है और वह धान पल्लवित होकर लहलहाने लगती है। किसान यह देख खुश होकर झूम उठता है। यह पर्व न सिर्फ झारखंड बल्कि मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल सहित तमाम जनजातीय क्षेत्रों में पूरे उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है।

करमा के दिन पूरे गांव के लोग अखड़ा में जमा होते हैं, पाहन पूजा करते हैं, उपवास रखने वाले युवक-युवतियां करमा के पास बैठते हैं, सभी अपने साथ जावा फूल और खीरा बेटा लेकर आते हैं। पाहन पूजा के बाद सभी महिलाएं एक दूसरे के कमर में हाथ डाले जोड़ती है, पुरूष मांदर के साथ अखडा में प्रवेश करते हैं और गीत गाते है-

लगे बाबू मंदिरिया-मंदेराबाजय रे,

लगे बाबू मंदिरिया मंदेराबाजय,

लगे माईया खेला जामकाय..

ओ रे लगे माईया खेला जामकाय

करमा पेड़ का जनजातीय समाज हमेशा से आदर करता आया है। इस पेड़ की लकड़ी का जलावन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, न ही इससे बैठने के लिए पीढ़ा(चौकी) बनाते हैं। करमा त्यौहार के माध्यम से आदिवासी मूलवासी समाज पर्यावरण बचाने का संदेश दे रहा है। रात भर करम खुशियाली मनाने के बाद दूसरे दिन करमा को घर-घर बुलाया जाता है। सभी परिवार करमा के पैर धोते हैं और उसे भेंट देते हैं। पूरा गांव घूमने के बाद इसे नजदीक की नदी में विसर्जित कर देते हैं।

किसान करमा पर्व के पहले दिन जंगल से भेवला डाली लाकर घर की छत पर रख देते हैं, इस डाली को दूसरे दिन किसान खेतों में ले जाकर गाड़ते हैं। इसके पीछे कृषि सुरक्षा का वैज्ञानिक महत्व हैं। धान के लहलहाते खेत में कुछ कीडे होते हैं जो धान के पौधों को खाते हैं,ये कीड़े धान के पौधों में चिपके होते हैं। इन कीड़ों को ठेंचुवा चिड़िया खाती है। भेलवा की डाली धान के खेत में लगायी जाती है।उसी पर यह चिड़िया बैठती है।यही चिड़िया कीड़ों को खाती है और धान के पौधे सुरक्षित हो जाते हैं। इसके साथ ही भेलवा पेड़ के और कई महत्व है। कृषि सुरक्षा की यह प्राकृतिक एवं पर्यावरण की परम्परागत पद्धति है।

मानसून की पहली बारिश के साथ ही धान बुनी, गोडा, गोंदली, मंडुआ, लेवा, बिंडा, कादो-धान रोपनी, के बाद खेती बाड़ी में प्रकृति के योगदान से खुशहाली आती है।इसी खुशी को अभिव्यक्त करने का पर्व करमा पर्व के रूप में जाना जाता है। वैसे तो आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक और मार्गशीष (अगहन )के महीने तक करमा का मौसम होता है। इस मौसम में करमा के गीत गाये जाते हैं। करमा का एक-एक गीत आदिवासी सामाजिक जीवन के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय जीवन मूल्यों का विश्लेषण करता है। जो प्रकृति-पर्यावरण और मानव सभ्यता की वैज्ञानिक जीवन पद्धति पर आधारित है।

आदिवासी समाज में कहा जाता है-सेनगी सुसुन, काजिगी दुरंग, यानी चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत-संगीत है।आदिवासी समाज सुख में भी नाचता-गाता है और दुख में भी नाचता-गाता है। यह समाज तब तक नाचता-गाता रहेगा, जब तक वह प्रकृति के साथ जुडा हुआ है। यह ऐसा ही है कि जब तक बांस है बांसुरी बजेगी ही। वनवासी दिन को खेत-खलिहान, नदी-नाले, जंगल-पहाडों में काम करते हैं और रात को थकान मिटाने के लिए गांव के बीच तीन-चार इमली के पेड़ो से घिरे अखड़ा में पूरा गांव नाचता गाता है। आदिवासी समाज के पुरखों ने पूरी वैज्ञानिकता के साथ पारंपारिक धरोहरों को संजोने का काम किया हैं। मनोरंजन के दौरान वहां उपस्थित लोगों के बैठने के लिए अखड़ा के किनारे बडे़ बडे़ पत्थरों के पीढ़हा-बैठक बनाये गए है, साथ ही इमली की शीतल छाया भी मिलती है। 98 प्रतिशत आदिवासी गांवों में अखड़ा इमली के पेड़ के पास ही होता है। आदिवासी प्राकृतिक जीवन शैली को करम गीत में गाते हैं।इमली पेड़ के नीचे अखड़ा में करमा नाचते गाते हैं कि-

रिमी-छिमी तेतारी छाईयां

ना हारे धीरे चालू

रासे चलू मादोना

न हारे धीरे चाल

एंडी का पोंयरी झलाकाते-मलाकाते आवै

न हारे धीरे चालू-रासे

धामिका चंदोवा झलाकाते-मलाकाते आवै

 

जेठे में तोराय कोयनार साग रे

सावन भादो रोपा-डोफा कराय रे-2

 

बोने के बोने में झाईल मिंजुर रे-2

बोन में झाईल मिंजुर सोभाय-2

चंकोड़ा जे जनामलै-हरियार रे

से चंकोड़ा फूला बिनू सोभाय-रे

चंकोड़ा जे फरालैं-रूणुरे झुणु

हलुमान हिरी जोहे जाए।

करम त्यौहार मनुष्य के प्रकृति से संबध को मजबूत तो करता ही है साथ ही गांव और समाज के संबंध को भी सुदृढ़ बनाता है। एक गांव में करम गड़ता है, तो इसमें अगल-बगल के कई गांवों के लोग शामिल होते हैं। पहले करम के मौसम में पूरा इलाका बांसुरी के सुरीली तान से गूज उठता था। अखड़ा में मांदर की गूंज के बीच महिलाओं के जूड़ों में सफेद बगुले के पंख से बनी-कलगी के साथ जावा फूल पूरे माहौल को खुशियों से सराबोर कर देता था। लेकिन दुखद बात यह है कि विकास की आंधी इन तमाम मूल्यों को अपने आगोश में समेटती जा रही है। आज जब हम करमा मना रहे हैं-तब हमें यह चिंतन करना होगा कि औद्यौगिकीकरण के इस दौर में करमा के अस्तित्व को किस तरह से बचाया जाए। नहीं तो एक ऐसा समय आएगा-जब न जंगल-झाड़, नदी-नाले, गांव-अखड़ा, खेत-खलिहान कुछ नहीं बचेगा-तब हमारा यह करमा त्यौहार लोक गीतो-कथाओं में ही जीवित रहेगा।

इस त्यौहार में करम गोसाई , करम राजा की पूजा की जाती है। करम गोसाई की स्तुति में विशेष गीत गाए जाते है.- खास करम गीत।छोटा नागपुर की लाखों नारियां अपनी अनन्य भक्ति श्रद्धा करम गोंसाई के पवित्र चरणों में अर्पित करती हैं। पुरूष भी करमा पर्व उत्साह से मनाते हैं। करमा पर्व के दिन प्रातः ही करम की डाली काटकर वनों से लायी जाती है। सभी नवयुवकों के साथ पाहन जंगल जाता है तो कभी मति। विधान है कि यदि मति जाएगा तो कोड़ा भी उसके साथ होगा। नवयुवको में दैवी शक्ति जब तक नहीं आ जाती मति मंत्रों का उच्चारण करते रहता है और कोड़ा झटकाता रहता है।ऐसे समय में जिन नवयुवकों पर दैवी शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ता,उन्हें कोड़े खाने पड़ते हैं। जिन पर दैवी शक्ति का प्रभाव पड़ जाता है वे गांव की ओर भागते हैं। जब तक वह व्यक्ति दैवी शक्ति के प्रभाव में रहेगा, गांववाले उसकी पूरी-पूरी बातें मान लेंगे। इस प्रकिया से गुजरने के बाद करम की डाली गांव में आएगी।जब नवयुवकगण करम की डाली काटने जंगल जाते हैं, उस अवधि में गांव के भीतर दयाकट्टा का नेग महिलाओं तथा बड़े बुजुर्गो द्वारा पूरा किया जाता है। इस नेग को पूरा करने की प्रकिया के दौरान विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रो का बजते रहना आनिवार्य है। करम पेड़ की डाली आने तक प्रत्येक परिवार के लोग भेलवा की टहनियों को खेतों में गाड़ते है, ताकि फसल कीड़ों से नष्ट न हो।कुछ स्थानों पर करम त्यौहार मना लेने के बाद टहनियां गाड़ी जाती है। राग रंग का समां रात भर रहता है।

जब करमा की डाली युवकगण बस्ती में लेकर जाते हैं, तब अखड़ा में लोग इकट्ठा होकर नाच गान करते हैं। गीतों मे करम की डाली को करमा राजा का संबोधन मिलता है। इसी समय से नाच गान का विशेष आयोजन आरंभ होता है। उपवास और विसर्जन के दौरान करमगीत और नृत्य से अखड़ा गुलजार रहता है. मांदर , ढ़ोल, ढांक, नगाड़ा, झांझ और ठेचका से सम्पूर्ण क्षेत्र गूंजता रहता है। अधिकतर क्षेत्रों में एक सप्ताह पूर्व से नाच- गान आरंभ होता है। करम के गीतों में अनेक प्रकार की अभिव्यक्तियां चि़त्रित होती है।सादरी में एक करम गीत इस प्रकार है –

भादो एकादशी करम गाड़े

दुतिया रंथ चलाय ।

गंवा भैया करम गाड़े

बबु भैया रंथ चलायो ।।

उरांव में गीत हैः –

एन हूं डिण्डा – नीन हूं डिण्डा,

गुचा जूड़ी भोटांगे कालोत हो ।

गुचा जूड़ी भोटांगे कालोत

भोटांग नूं डिवा नलख नतोन।

नगपुर नूं बेंजेर आगे बरओत हो

सदान वर्ग में भी भाई की सम्पन्नता हेतु बहने करमा पर्व मनाती हैं।ये भी करम की टहनी गाड़कर पूजा करती है, गाती हैं – अपन करम भैया के धरम झाड़े मूड़ धूसिव वोले। या झूमरी लगालयें घनश्याम चालू देखे जाब. करम गीत सैकड़ों में है। गीतों के राग, लय , ताल भिन्न हैं।

करम राजा को फूलों और घास बनी मालाओं से सजाया जाता है। ग्रामीण युवतियां उपवास में रहती है, अपनी – अपनी करम दौरी में अनाज,फल – फूल तथा अन्य पूजा समानों के साथ जौ की वालियां जवा होती है वालियां करमा के पूर्व ही टोकरी में बालू रख उगा ली जाती है। जहां पर वालियां उगायी जाती हैं, वहां रात में महिलाएं, युवतियां गीत गाकर बालियां जगाया करती हैं। बालियां उगाने अर्थात वीज बोने के दिन से करम एकादशी के दिन तक मांस -मछली का वहिष्कार किया जाता है।केवल तपावन के लिए विशेष हड़िया का उपयोग होता है। वैसे करमा पूजा सात्विक ढ़ंग से सम्पन्न करने का विधान बताया गया है।पूजा के पश्चात ही मद्य मांस का उपयोग किया जाता है।

जब गांव की महिलाएं अपनी करम दौरी के साथ करम राजा , करम गोसाई के पास आ जाती है तो गांव का पाहन उन्हें करम गोंसाई की कहानी सुनाता है कहानी के अनुसार पुराने जमाने में एक गांव में सात भाई अपनी – अपनी पत्नियों के संग एक ही घर में रहा करते थे।एक बार बैलगाड़ियों में अनाज लादकर सातों भाई व्यापार के लिए निकल पड़े।लंबी दूरी तय करने के पश्चात एक गांव मिला जहां करम पर्व मनाया जा रहा था। इन लोगों को अपने घर परिवार की याद आने लगी।सभी भाइयों ने तय किया कि छोटे भाई को गांव भेजकर घर का हाल समाचार पता लगाया जाय। गांव पहुंचने पर पाया कि अखड़ा में अन्य स्त्री पुरूष के उसकी तथा अन्य छह भाईयों की पत्नियां नाव गा रही है

नाच गान से वह भी प्रभावित हो गया और वह मांदर को डाल कर नाचने लगा। उसे ढ़ूंढता-ढूंढता एक भाई और गांव पहुंचा. उसके भी पांव थिरकने लगे।वह भी नाच गान में लीन हो गया। बारी -बारी से छह भाई गांव पहुॅंच गए और नाचने लगे। बहुत देर प्रतीक्षा करने के बाद भूख-प्यास से पीड़ित एवं आशंकाओं से घिरा बड़ा भाई बैलों को छोड़कर गांव की ओर चला। गांब पहुंचने जब उसने देखा कि गांब के सभी स्त्री – पुरूषों के साथ उसके छह भाई और उनकी वहुएं एवं उसकी पत्नी भी करम के गीत -नृत्य में मस्त हैं, तो उसके क्रोघ की कोई सीमा नहीं रही। क्रोध में उसने उबलते दूध के बर्तन में, जो करम राजा को चढ़ने के लिए रखा गया था, पैर से दे मारा और फकीर की भांति घर से निकल गया। गर्म दूध से जलने पर करम राजा क्रोधित होकर जाने लगे। तब छोटे भाई की पत्नी ने आदर सहित करम राजा को सिंहासन बैठा कर सत्कार किया।इस घटना के बाद से करमा राजा को दही चढ़या जाता है। करम कथा विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार से कही जाती है।

 

 

कहानी की समाप्ति पर कथा के श्रोतागण फूल अक्षत के साथ दही तथा जवा चढ़वा में चढ़ाती है. करमा देव को अर्पित जवा प्रेम से भाई चारे के प्रतीक स्वरूप एक दूसरे के कानों में चढ़ाते हैं विश्वास है कि इससे फसल अच्छी होगी। अच्छी फसल की आकांक्षा हेतु ही जवा चढ़ाया जाता है।उरांव लोगों का विश्वास है कि करम का उपवास तथा पूजा करने वाली महिलाएं अपने भाईयों के कुशल मंगल की कामना करती है। इनके यहां करम के अवसर पर मेहमानी जाने या मेहमान बुलाने की प्रथा प्रचलित है।करम राजा की पूजा समाप्ति के बाद तालाब में जाकर करम गोंसाई को विसर्जित किया जाता है।

करम का पहला चरण जेठ माह के मध्य में आरंभ किया जाता है। इस करम को धुड़िया करम कहा जाता है।छोटा नागपुर के कुछ हिस्सों में अकाल के समय में विशेष रूप में करम मनाया जाता है।इसे बूढ़ी करम कहा जाता है जैसे – जैसे मान्यताएं बदल रही है, करम मनाने के तौर – तरीकों में भी बदलाव हो रहा है।(विभूति फीचर्स)

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