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न्यायपालिका और हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी परियोजना

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सुभाष गाताडे

भारत में हम कार्यपालिका का, अर्थात उसकी विभिन्न संस्थाओं को प्रभावहीन बनाने या उन्हें सत्ताधारी पार्टियों के मातहत करने की परिघटना को बारीकी से देख रहे हैं, मगर अभी तक न्यायपालिका में आ रहे बदलावों की तरफ हमारी निगाहें कम गई हैं।

गौरतलब है कि भारत में ऐसे कानून के विद्वान या वकील बहुत कम हैं, जिन्होंने भारत की न्यायपालिका के गति-विज्ञान को बारीकी से देखा है और उसके रास्ते हमारे सामने रफ्ता-रफ्ता नमूदार हो रहे ख़तरों की तरफ इशारा किया है। जनाब डॉ. मोहन गोपाल का नाम ऐसे लोगों में शुमार है।

कानून के यह विशेषज्ञ और प्रैक्टिशनर हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतों के नज़रिये के बारे में और उनकी रणनीतियों के बारे में बारीक समझ रखते हैं और संविधान के हिसाब से एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समाजवादी और संप्रभु भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में तब्दील करने के उनके इरादों के बारे में बताते हैं कि “वह संविधान को उखाड़ फेंक कर नहीं, बल्कि सर्वोच्च अदालत द्वारा उसकी एक हिन्दू दस्तावेज के रूप में व्याख्या करके’ अमल में लाना चाहते हैं।”

कुछ समय पहले ‘लाईव लॉ’ द्वारा आयोजित एक प्रोग्राम में बोलते हुए उन्होंने उसके गतिविज्ञान को साफ किया था। उनके हिसाब से पहला कदम है : ऐसे न्यायाधीशों को अदालतों में — खासकर उच्चतम अदालतों में – तैनात करना जो अपने फैसलों के लिए संविधान से परे जाने के लिए तैयार हों, अर्थात जो लोग संविधान प्रदत्त प्रक्रियाओं के बजाय जनता की भावना या उसके एक हिस्से की आस्था की दुहाई देने के लिए भी तैयार हों ;

और दूसरा कदम है : अगर उच्चतम अदालतों में ऐसे न्यायाधीशों की तादाद बढ़ने लगती है, जो धर्मशास्त्रीय हों अर्थात जो संविधान के बजाय धर्मशास्त्र में कानून का स्रोत ढूंढते हों, तो फिर बेहद आसान हो जाएगा कि भारत को हिन्दू धर्म तंत्र घोषित करना, उसी संविधान के तहत।

अपने इस व्याख्यान में उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार और बाद में भाजपा की अगुवाई में विगत एक दशक से केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के दौरान उच्च अदालतों में हुई नियुक्तियों का भी विवरण दिया था और इस बात को साफ किया था कि किस तरह न्यायपालिका में ऐसे न्यायाधीशों की अधिक नियुक्ति हो रही है, जो फैसला देते हुए संविधान से परे देखने के लिए भी तैयार हों। उनके हिसाब से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिजाब मसले पर दिया गया बंटा हुआ फैसला इस दिशा में एक अहम मुकाम माना जा सकता है।¹

याद रहे कर्नाटक में सत्तासीन पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने हिजाब पहनी छात्राओं के शिक्षा संस्थानों में प्रवेश को प्रतिबंधित किया था, जिसे बाद में कर्नाटक की उच्च अदालत ने भी वाजिब ठहराया था। मामला सर्वोच्च न्यायालय में द्विसदस्यीय पीठ के सामने पहुंचा, जिसने इस मामले में एक बंटा हुआ निर्णय दिया और अब एक बड़ी पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी।

वैसे कानून के इस अग्रणी विद्वान, डॉ. मोहन गोपाल को इस बात का कत्तई पूर्वाभास नहीं रहा होगा कि न्यायपालिका के इतिहास में एक दिन ऐसा भी आएगा कि खुद भारत के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक तौर पर इस बात का ऐलान करेगा कि अहम कानूनी फैसलों में कम से कम वह संविधान से कम और अपनी व्यक्तिगत आस्था या उनके अपने देवता की ‘सलाह’ पर निर्भर रहते हैं।² ध्यान रहे, यह बात उन्होंने अपने पूरे होशोहवास में अपने पुश्तैनी गांव में एक जनसभा में कही है।

संविधान को मौजूदा समय में परिभाषित करने का जिम्मा रखने वाले प्रमुख न्यायाधीश चंद्रचूड द्वारा की गयी इस विवादास्पद बात पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अभी भी इस पर चर्चा जारी है। फिलहाल उस चर्चा की ओर बढ़ना हमारा मकसद नहीं है।

दरअसल मुख्य न्यायाधीश की इस स्वीकारोक्ति का एक दिलचस्प साइड इफेक्ट साफ दिख रहा है। वह है बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सामने आए विवादास्पद फैसले के अब तक ‘अज्ञात’ रहे पहलू का।

उल्लेखनीय है कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के तहत बनी पांच सदस्यीय पीठ ने इस फैसले के दौरान कुछ बातें बिल्कुल साफ की थी कि वर्ष 1948 में तत्कालीन बाबरी मस्जिद में दक्षिणपंथी तत्वों द्वारा चोरी से राम की मूर्तियां स्थापित करने का काम ‘गैरकानूनी’ था तथा 1992 में जब बाबरी मस्जिद के विध्वंस को अंजाम दिया गया, तो वह ‘खुल्लमखुल्ला कानून के राज का उल्लंघन’’ था। यह अलग बात है कि आला अदालत ने उन्हीं उल्लंघनकर्ताओं को उसी विवादास्पद स्थान पर मंदिर बनाने का जिम्मा सौंपा था।

याद रहे, भले ही पांच सदस्यीय पीठ ने इस फैसले को अंजाम दिया हो, मगर इस पर किसी के दस्तख़त नहीं थे। शायद आज़ाद हिन्दोस्तां का यह पहला मुकदमा रहा होगा, जहां औपचारिक तौर पर उसका कोई एक ‘ऑथर अर्थात प्रदत्त करने वाला नहीं है।’

अब तक इसकी कोई वजह साफ नहीं थी कि पांच गणमान्यों में से किसी ने भी इस पर अपने दस्तख़त क्यों नहीं किए, मगर अब जनाब चंद्रचूड द्वारा यह जो स्वीकारोक्ति दी जा रही है, जिसमें मुख्य न्यायाधीश ने खुद कहा है कि अपने देवता के साथ संवाद के दौरान उन्हें इस जटिल मसले का इलहाम हुआ, इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस तरह वेदों को अपौरूषेय अर्थात ईश्वर द्वारा निर्मित कहा जाता है, तो शायद भविष्य की पीढ़ियां भी इस मसले पर यही कहें।

वैसे यह बात बेहद चिंताजनक लगती है कि आज की तारीख तक इस मसले से जुड़े तमाम तथ्यों से हम अवगत हैं, हम यह जानते हैं कि किस तरह तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को रिटायरमेंट के तत्काल बाद राज्य सभा का सांसद बनाया गया, किस तरह इस फैसले के बाद – जो भारत के गणतंत्र की विगत लगभग 75 सालों की यात्रा का एक खतरनाक मोड़ भी कहा जा सकता है – इस ‘ऐतिहासिक फैसले को देने वाले’ पांचों जजों ने ताज मानसिंह जैसे पांच सितारा होटल में कौन-सी शराब पी थी, मगर हम इस फैसले के ऑथरशिप को लेकर अभी तक अनभिज्ञ रहे हैं।³

*‘नॉन बायोलॉजिकल’ प्रधानमंत्री और ‘ईश्वर से संवाद करता’ मुख्य न्यायाधीश!!*

वैसे मौजूदा हुकूमत के आलोचक इस विचित्र संयोग को भी रेखांकित कर सकते हैं कि जब देश में एक ‘नॉन बायोलॉजिकल’⁴प्रधानमंत्री विराजमान है और उन्हीं दिनों एक ऐसा सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी है, जो ‘ईश्वर से संवाद’ की बात करता है और उन्हीं की राय से अहम फैसले देता है।

वैसे ‘नॉन बायोलोजिकल’ प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश के बीच की इस अद्भुत जुगलबंदी का प्रमाण शेष दुनिया ने भी देखा था, जब मुख्य न्यायाधीश के बुलावे पर प्रधानमंत्री गणेश चतुर्थी के अवसर पर उनके घर पहुंचे थे और उन्होंने मिल कर गणेश की आरती की थी, जिसकी तस्वीरें खुद प्रधानमंत्री महोदय ने अपने ट्विटर हैंडल से जारी की थी।⁵ न्यायपालिका और विधायिका के अग्रणियों की इस विवादास्पद संगत की काफी आलोचना हुई थी।

अग्रणी कानूनविदों ने इस बात को रेखांकित किया था कि इस घटना ने ‘विधायिका और न्यायपालिका के बीच विभाजन के सिद्धांत का माखौल उड़ाया है’ (कानूनविद सुश्री इंदिरा जयसिंह) या किस तरह इसने ‘‘न्यायपालिका को एक गलत संदेश दिया है, जिस पर यह जिम्मेदारी है कि वह कार्यपालिका की मनमानी से नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करे और इस बात को सुनिश्चित करे कि सरकार कानून के दायरे में ही काम करे’ (कानूनविद प्रशांत भूषण)।⁶

कहा जाता है कि एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति, अपने ईश्वर/खुदा के साथ अपने संवाद को, अपनी प्रार्थना को बेहद निजी मामला बनाए रखना चाहता है, ताकि उसमें कोई विघ्न न आए। यह अलग बात है कि मुख्य न्यायाधीश जनाब चंदचूड द्वारा जिस तरह प्रधानमंत्री को पूजा के लिए आमंत्रित किया गया और फिर इस निजी आयोजन को पूरी तरह सार्वजनिक किया गया और सरकार से सम्बद्ध गोदी चैनलों द्वारा उसका पूरा प्रसारण करने दिया गया, इसका अर्थ यही निकलता है कि प्रधानमंत्री मोदी और निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश में भी एक अभिन्न समानता है कि दोनों को अपने इस निजी प्रसंग का सार्वजनिक प्रदर्शन करने में कोई गुरेज नहीं होता, बल्कि दोनों इसे चाहते हैं।

अभी ज्यादा महीना नहीं बीता, जब मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने गुजरात के द्वारकाधीश मंदिर को भेंट दी थी, जहां वह हल्का केसरिया वस्त्र भी पहने दिख रहे थे। मंदिर की यात्रा छिपी रह जाती, अगर उसके बाद उन्होंने राजकोट में अदालत की नयी इमारत के उद्घाटन के अवसर पर कुछ विवादास्पद बातें नहीं कही होती।

संविधान की कसम खाकर मुख्य न्यायाधीश बने जनाब चंद्रचूड ने उद्घाटन के अवसर पर कहा कि किस तरह वह द्वारकाधीश मंदिर के ध्वज से प्रेरित हुए थे – जो जगन्नाथ पुरी में लगे ध्वज की तरह ही था और किस तरह यह ध्वज ‘हमारे राष्ट्र की सार्वभौमिकता की परम्परा की नुमाइन्दगी करते हैं, जिसने हमें एक साथ जोड़े रखा है’।⁷

वैसे यह आकलन करने के लिए अधिक विवेक की जरूरत नहीं है कि भारत जैसे एक धर्मनिरपेक्ष मुल्क में – जिसने स्वाधीनता हासिल करने के बाद से ही सर्व धर्म समभाव की नीति अपनायी है, धर्म के आधार पर, संप्रदाय के आधार पर किसी के साथ भेदभाव न करने का संकल्प लिया है – जहां तिरंगा एकमात्र ऐसा ध्वज समझा जाता है, जो हम सभी को जोड़े रखता है, वहां एक संवैधानिक अथॉरिटी द्वारा खास धर्म के ध्वज की हिमायत करना, निश्चित ही उसकी मर्यादा का उल्लंघन कहा जा सकता है।

*‘इतिहास में याद किए जाने की बेचैनी’*

जनाब चंद्रचूड द्वारा मुख्य न्यायाधीश के अपने कार्यकाल के सबसे अहम मसले बाबरी मस्जिद फैसले पर जिस साफगोई के साथ बात कही है कि ‘अपने देवता की सलाह’ इसमें निर्णायक रही और कैसे-कैसे वह अपने ‘देवता से सलाह’ लेते रहते हैं, कुछ अन्य सवालों को भी उठाता है, जिनका ताल्लुक उनके मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल से जुड़ा है।

मालूम हो कि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश न केवल मास्टर ऑफ रोस्टर होता है – अर्थात कौन सा मुकदमा किस पीठ के पास या न्यायाधीश के पास जाएगा, इसे तय करता है, बल्कि एक किस्म का पथ प्रदर्शक होता है अपने सहयोगी जजों के लिए तथा निचली अदालतों के लिए। मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिए गए फैसले उनके मातहत अदालतों को प्रेरित करते हैं, दिशा देते हैं।

जनाब चंद्रचूड के बारे में यह कहा जाता है कि अपने सार्वजनिक व्याख्यानों में वह न केवल अद्भुत वक्ता के तौर पर दिखते हैं, बल्कि वहां पर वह हमेशा ही संविधान के सिद्धांतों एवं मूल्यों की हिफाजत करने पर जोर देते हैं, मातहत अदालतों द्वारा अभियुक्तों को जमानत दिए जाने के मामले में विलंब करने पर उन्होंने एक तरह से उनकी आलोचना भी की है कि उन्हें ‘जमानत नियम है, अपवाद नहीं’, इस समझदारी पर चलना होगा। यह अलग बात है कि उनके इस कार्यकाल में ही उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों के कई अभियुक्त चार साल से जेल में ही बिना जमानत के सड़ रहे हैं। यह एक ऐसा मसला है कि जिसकी ओर दुनिया की निगाह गयी है।⁸

इक्कीसवीं सदी की इस तीसरी दहाई की शुरुआत में एक तरह से भाजपा शासित राज्यों ने सामूहिक दंड के हथियार का जम कर प्रयोग किया है – जिसके तहत ‘तुरंत न्याय’ का एक नया मॉडल पेश किया गया है। सामुदायिक विवादों में या सांप्रदायिक दंगों में अभियुक्त बनाए गए लोगों के मकानों का रातों रात ध्वस्तीकरण की इन गैरकानूनी कार्रवाईयों को ‘ बुलडोजर न्याय’ का नाम दिया गया है। यह बात रेखांकित करने वाली थी कि इसके तहत ऐसे ही लोग अधिकतर निशाने पर लिए गए, जो सामाजिक और धार्मिक तौर पर अल्पसंख्यक समुदायों से सम्बद्ध थे। मानवाधिकार कार्यकर्ता इस मुहिम को लेकर सदमे में रहे कि क्यों बिना किसी कानूनी कार्रवाई के गरीबों के मकानों को बिल्डिंग बनाने में कानून के उल्लंघन के नाम पर मलबे में तब्दील किया जा रहा है? क्या इसे लोगों के जीने के अधिकार – संविधान के आर्टिकल 21 के तहत प्रदत्त – का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता?

इतिहास बेहद निर्मम न्यायाधीश होता है और वह इस बात को निश्चित ही नोट करेगा कि सामूहिक दंड के ऐसे तमाम प्रसंग उन्हीं दिनों सामने आए हैं, जब जनाब चंद्रचूड मुख्य न्यायाधीश के पद पर विराजमान थे और लोगों के जीवन के अधिकारों पर कुठाराघात करने वाली ऐसी घटनाओं पर कोई निर्णायक कदम उठाने की जरूरत उन्होंने महसूस नहीं की। लोग इतना पूछ सकते हैं कि अगर बंगाल में आर जी कर बलात्कार कांड मामले में उन्होंने सुओ मोटो हस्तक्षेप करना जरूरी समझा, तब जब गरीबों के, धार्मिक अल्पसंख्यकों के मकानों को ध्वस्त किया जा रहा था, धार्मिक सम्मेलनों के नाम पर उनके जनसंहार का आह्वान किया जा रहा था, तब उनका जमीर उसी तरह क्यों नहीं जगा?

यहां एक टिप्पणीकार के तौर पर यह बता दें कि हाल में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ इन मामलों की सुनवाई कर रही है और अगला फैसला आने तक उसने ऐसे गैरकानूनी विध्वंस पर रोक लगायी है।

अब जनाब चंद्रचूड़ का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और अख़बारी रिपोर्टों के मुताबिक वह इस बात के प्रति ‘बेचैन’ हैं कि इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा।

वैसे इस काम को हम कानूनविदों और भविष्य के इतिहासकारों के लिए छोड़ सकते हैं, लेकिन जैसा कि एक विश्लेषक ने लिखा है कि “इतिहास इस बात को ज़रूर याद रखेगा कि जब भारत में जनतंत्र का क्षरण हो रहा था, जब संकीर्णमना ताकतें उसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को छीजने में सक्रिय थीं, उन दिनों वह लगभग मौन गवाह रहे।”

वैसे भारत में जनतंत्र की यह नियति – जहां हम उसके रक्षा कवचों के क्षरण की प्रक्रिया को अपने सामने देख रहे हैं – विधायिका, कार्यपालिका और अब न्यायपालिका के एक किस्म के छीजन की परिघटना हमारे सामने घटित हो रही है – तब हम इस बात का भी आकलन कर सकते हैं कि हमारे सामने चुनौती कितनी बड़ी है।

दुनिया के सबसे ताकतवर जनतंत्र कहे जाने वाले मुल्क अमेरिका में आने वाले चुनावों में ट्रम्प के वापसी की अटकलें – जिनके नारीद्रोही, नस्लभेदी विचारों से दुनिया वाकिफ है, जो खुद भ्रष्टाचार के मामलों में अदालतों में दोषी साबित किए जा चुके हैं, यहां तक कि कई स्त्रियों ने उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज की हैं – इसी बात का परिचायक है।

वैसे दुनिया के इन दोनों जनतंत्रों में एक समानता साफ तौर पर सामने आती है। अमेरिका की न्यायपालिका भी असमावेशी, प्रतिक्रियावादी रिपब्लिकन विचारों, नीतियों को सुगम बनाती दिख रही है। आज की तारीख में अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के आठ प्रमुख न्यायाधीशों में से पांच रिपब्लिकन समर्थक बताए जाते हैं, जिनकी नियुक्ति ट्रंप काल में या उसके पहले रिपब्लिकन प्रशासन में हुई। बाकी तीन जज डेमोक्रेट समर्थक हैं।

न्यायपालिका में रिपब्लिकनों का वर्चस्व आम लोगों, स्त्रियों पर कितना कहर बरपा रहा है, इसकी एक बानगी देना मौजूं होगा।

यह सबको याद होगा कि वर्ष 1972-73 में अमेरिकी आला अदालत ने गर्भपात के अधिकार पर अपनी मुहर लगायी थी, जिसे रो बनाम वाड फैसला कहा जाता है, वर्ष 2022 में इसी आला अदालत ने गर्भपात के इस अधिकार को खारिज कर दिया।

चंद माह पहले ही रिपब्लिकन वर्चस्व वाले सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक खास फैसले में पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ संभावित अन्य मुकदमों आदि को लेकर एक बड़ा फैसला दिया। उसने पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप को सभी संभावित मुकदमों से आजीवन प्रतिरक्षा प्रदान की,⁹ — यदि वे राष्ट्रपति के रूप में वापस लौट आते हैं।

नागरिक अधिकार हिमायतियों ने कहा है कि यह एक ऐसा कदम है, जो अमेरिका में जनतंत्र के ‘कानून के राज’ को ‘राजशाही किस्म के तंत्र’ की ओर लौटा देगा, जहां जनतांत्रिक ढंग से ऐसे राष्ट्रपति का चुनाव होगा, जिसे अपने अपराधों, गलत कामों के लिए कभी भी दंडित नहीं किया जा सकेगा।

शायद इस मोड़ पर, पुरानी कहावत को रेखांकित करना महत्वपूर्ण है – ‘सतत सतर्कता ही लोकतंत्र की मांग है’।

 

*(लेखक स्वतंत्र पत्रकार अनुवादक और न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (एनएसआई) से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं।)*

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