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मुद्दे की बात : निपटा चुनाव, जागी महंगाई डायन

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आम आदमी कहां जाए, महंगाई तो खाए जाए….

लोकतंत्र का महापर्व यानि लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण का मतदान एक जून को निपट गया। जनता को यही मलाल रह गया कि महंगाई डायन उनको खाती रही, लेकिन चुनावी-मुद्दा नहीं बन सकी। दरअसल महंगाई भी राजनीतिक-रंगत ले चुकी है, लिहाजा राजनेताओं के इशारे पर ही थोड़े वक्त सो भी जाती है। फिर हल्की-नींद निकालकर टाइमिंग के मुताबिक जाग जाती है। यह कोई महज कयास नहीं, बल्कि जमीनी-हकीकत है। इस चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और अब बाद में कुछ ऐसा ही हो रहा है।

जरा याद करिए, इस आम चुनाव के दूसरे-तीसरे चरण के दौरान मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम कमलनाथ ने गंभीर टिप्पणी की थी। उन्होंने बाकायदा रिजर्व बैंक आफ इंडिया यानि आरबीआई के सर्वे का हवाला देते कहा था कि देश में महंगाई तेजी से बढ़ी है। चुनिंदा कार्पोरेट घरानों को छोड़ दें तो यह महंगाई-डायन आम जनता को खा रही है। चुनाव के अंतिम चरण में पंजाब की आर्थिक-राजधानी लुधियाना पहुंचे केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने तो इस मुद्दे पर कमलनाथ की टिप्पणी मखौल में उड़ाते कहा था कि उनको तो महंगाई बढ़ती नजर नहीं आती। खैर, केंद्र में सत्ताधारी भाजपा गठजोड़ तो इस मुद्दे पर बचाव में ऐसे ही अनुरागी-तर्क देता रहा। चुनाव निपटा पीएम मोदी भी ध्यान लगाने चले गए। दूसरी तरफ, कई राज्यों में सत्तारुढ़ विपक्ष भी महंगाई के मुद्दे पर कमोबेश चुप्पी ही साधे रहा। दरअसल जानकारों की नजर में महंगाई दो स्तर पर बढ़ती या कम होती है। ज्यादातर बुनियादी जरुरत की चीजों के भाव तय कराना केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में होता है। जबकि तमाम चीजें ऐसी भी हैं, जिनके महंगे दाम राज्य सरकारें अपने स्तर से कम या ज्यादा कर सकती हैं।

ऐसे हालात में राज्यों से सत्तारुढ़ कई विपक्षी दलों ने भी महंगाई को चुनावी मुद्दा बनाने से गुरेज किया। दरअसल चुनाव निपटने के बाद जनता उन सत्ताधारी दलों को भी जवाबदेह बना सकती थी। चुनाव में महंगाई मुद्दा नहीं बनी, नतीजतन चुनावी नतीजे आने से पहले ही ‘खेला’ शुरु हो गया। पंजाब के मशहूर मिल्क प्लांट वेरका की ओर से दूध का भाव दो रुपये महंगा कर दिया गया। दूसरी तरफ, नेशनल हाईवे आथोरिटी ऑफ इंडिया यानि एनएचएआई के टोल-बैरियरों पर वाहनों से वसूले जाने वाले टैक्स में एकाएक इजाफा कर दिया गया। बाकी रसोई गैस व पैट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में भी इजाफा होने की पूरी आशंका बनी है।

रही बात, खाने-पीने की जरुरी वस्तुओं की तो उनके भाव तो अकसर मनमाने तरीके से बढ़ा दिए जाते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें इस तरफ से आंखें मूंदे हुए हैं। जनता जब महंगाई का विरोध करती है तो थोक और फुटकर माल बेचने वाले कारोबारी केंद्र व राज्य सरकारों के सिर ठीकरा फोड़ देते हैं। उनकी मानें तो कई तरह के टैक्स लगाए जाने से रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले खाद्य-पदार्थों से लेकर अन्य वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी होती है। इस मामले में एक अहम पहलू यह भी है कि सरकारों की छत्रछाया में पलते-बढ़ते जमाखोर बाजार भाव तय करने में अंदरखाते अहम भूमिका निभाते हैं। बाजपेयी सरकार के दौर में केंद्रीय खाद्य मंत्री शांता कुमार हर दिन बाजार की नब्ज टटोलते थे। खाद्य-पदार्थों के भाव अगर एकाएक बढ़ते थे तो जमाखोरों पर तत्काल प्रभाव से छापेमारी होती थी। नतीजे के तौर पर महंगी हुई वस्तु के भाव फौरन कम हो जाते थे। अब केंद्र में नई सरकार जिसकी भी बने, आम आदमी का एक ही लाख टके का सवाल है कि क्या महंगाई डायन का कोई समाधान निकाला जाएगा ?

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