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क्या सचमुच हमारा संविधान मर चुका है ?

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भारत सरकार ने एक राजपत्र जारी कर 25 जून को हर साल ‘ संविधान हत्या दिवस ‘ मनाने का फैसला किया है। सरकार इस तरह का क्या,किसी भी तरह का कोई भी फैसला कर सकती है। इस फैसले का अंधभक्त स्वागत करेंगे और विपक्ष शायद विरोध ,लेकिन एक आम नागरिक और नामालूम लेखक होने के नाते मै इस फैसले को हास्यास्पद कह रहा हूँ ,क्योंकि क्या सचमुच हमारा संविधान मर चुका है ?

भारत सरकार ने एक राजपत्र जारी कर 25 जून को हर साल ‘ संविधान हत्या दिवस ‘ मनाने का फैसला किया है। सरकार इस तरह का क्या,किसी भी तरह का कोई भी फैसला कर सकती है। इस फैसले का अंधभक्त स्वागत करेंगे और विपक्ष शायद विरोध ,लेकिन एक आम नागरिक और नामालूम लेखक होने के नाते मै इस फैसले को हास्यास्पद कह रहा हूँ ,क्योंकि यदि देश का संविधान मर चुका होता तो बीते 9 जून को किस संविधान की कसम खाकर माननीय लोगों ने देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली है ?

संविधान एक लिखित प्रज्ञा है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा वेद,सबसे बड़ा पुराण,सबसे बड़ी किंवदंती। यदि ये मर गया होता तो 1975 के बाद देश में लोकतंत्र बचता ही नहीं। देश में ढाई साल की खिचड़ी सरकार के बाद देश की जनता ने 1980 में उसी कांग्रेस को ,उन्हीं इंदिरा गाँधी को दोबारा देश की सत्ता सौंपी जिन्हें संविधान की हत्या का दोषी मानने वाली आज की सरकार 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने जा रही है। क्योंकि अब मौजूदा सरकार पर ही संविधान से खिलवाड़ करने का आरोप आयद किया जा चुका है।

चूंकि मै कानून का छात्र रहा हूँ इसलिए मैंने देश के संविधान को न केवल पाठ्यक्रम में अपितु सामान्य तौर पर अनेक बार पढ़ा है। मैंने संविधान का इस्तेमाल देश सेवा की झूठी कसमें खाने के लिए कभी नहीं किया। जहाँ तक मेरी जानकारी है तो आपातकाल की घोषणा संवैधानिक नियमों के तहत की गई थी लेकिन आपातकाल के दौरान 1971 में पारित आंतरिक सुरक्षा अधिनियम का दुरूपयोग किया गया था

देश में आपातकाल के हटने के फौरन बाद बनी खिचड़ी सरकार ने इस अधिनियम को 1979 में समाप्त किया गया था और संविधान के 44वें संसोधन के ज़रिए संवैधानिक आपातकाल को लागू करने के लिए इतने उपबंध जोड़ दिये गये जिससे आपातकाल लागू करना असंभव सा हो गया। भाजपा यदि लोकसभा चुनाव में 400 पार कर जाती तो आपातकाल लागू करने का प्रावधान फिर संविधान में जोड़ा जा सकता था। लेकिन ये हो न सका।

संविधान हत्या दिवस मनाने वाले देश में बिना आपातकाल की घोषणा किये आपातकाल जैसा माहौल बनाये हुए हैं लेकिन औपचारिक रूप से आपातकाल की घोष्णा नहीं कर पा रहे हैं,हालाँकि मंशा इंदिरा गाँधी की ही तरह आपातकाल लागू करने की है। दुनिया को पता है कि भारत में से 2014 से अघोषित आपातकाल लगा हुआ है। हकीकत ये है कि हमारी मौजूदा सरकार संविधान से खिलवाड़ के आरोपों से मुक्ति पाने के लिए पचास साल बाद एक बार फिर आपातकाल का हौवा खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करना चाह रही है ,लेकिन उल्लू टेढ़ा का टेढ़ा है। कभी-कभी मुझे लगता है कि सरकार भाजपा सांसद कंगना रनौत की बहुप्रतिक्षित फिल्म इमरजेंसी का लगातार असंवैधानिक तरीक़े से प्रमोशन पूरी सरकार कर रही है। इस फील्म की रिलीज लोकसभा चुनाव की वजह से टल गयी थी। इमरजेंसी यानि आपातकाल पर पहले भी ‘ किस्सा कुर्सी का ‘और आंधी जैसी फ़िल्में बन चुकीं है।

यदि आप भूले न हों तो माननीय एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री हैं क्योंकि भाजपा संसदीय दल के नेता का औपचारिक चुनाव प्रतिक्षित हैं। अपने ही दल के संविधान की हत्या कर सत्ता में आये मोदी जी संविधान हत्या दिवस शब्द का चयन कर वास्तव में संविधान का क्या हाल वे खुद करना चाह रहे थे । जो एनडीए मोदी जी के नेतृत्व में लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद संवैधानिक परंपराओं के तहत विपक्ष को नहीं देना चाहता है वह निहायत ही बेशर्मी से संविधान हत्या दिवस मना सकते हैं। संविधान हत्या दिवस मनाने के लिए राजपत्र का सहारा लेना ही एक नासमझी है । यदि सचमुच माननीय ने एक मरे हुए संविधान की शपथ ली है तो उन्हें ‘हत्या ‘ जैसे हिंसक शब्द का इस्तेमाल करने और संविधान का अनादर करने से कोई नहीं रोक सकता ।

संविधान की हत्या तो नहीं लेकिन उसके साथ खिलवाड़ की जितनी कोशिशें आज हो रहीं हैं। उतनी कोशिशे आपातकाल के 19 महीनों में भी नहीं हुईं। अन्यथा मनु स्मृति को पाठ्यक्रम में शामिल करने का असफल प्रयास नहीं किया जाता। आप खुद पता कर सकते हैं कि कौन महापुरुष मनु स्मृति को संविधान के स्थान पर लाना चाहते थे। दरअसल भाजपा को जो काम करना है उसे सरकार कर रही है। केन्द्र सरकार लोकसभा चुनाव के समय विपक्ष द्वारा ‘ संविधान पर खतरे ‘ की मुहिम चलने से आहत है। विपक्ष ने खासतौर पर कांग्रेस ने जनता को संविधान के साथ हो रहे खिलवाड़ के प्रति जाग्रत करने में कामयाबी हासिल की है ,इसी से भयभीत होकर केंद्र की सरकार ने एक बचकाना संकल्प ले लिया है।

राज पत्र या किसी अध्यादेश की भाषा कैसी हो इसका भान शायद सरकार को नहीं है । सरकार के पास भाषाविद हैं ही नहीं हैं , या हैं तो वे अधिकांश संघ के प्रचारक हैअन जो ठकुरसुहाती करने में दक्ष हैं। यदि ऐसा न होता तो सरकार संविधान हत्या दिवस मनाने की भूल न करती। मेरा तो सुझाव है कि सरकार अपने वरिष्ठ नेताओं के साथ साहित्यकारों के समूह को रखे ताकि भाषा की मर्यादा भाषण और अधिनियमों के निर्माण में भी दिखे।

मै आपातकाल का समर्थक न कल था ,न आज हूँ और न कल रहूंगा । मेरी स्पष्ट धारणा है कि आपाताकाल कांग्रेस के तबके कुछ उत्साहीलालों की वजह से बदनाम हुआ,क्योंकि उन लोगों ने संवैधानिक अधिकारों और शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस लिहाज से कांग्रेस ने संविधान की हत्या नहीयदि देश का संविधान मर चुका होता तो बीते 9 जून को किस संविधान की कसम खाकर माननीय लोगों ने देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली है ?

संविधान एक लिखित प्रज्ञा है। लोकतंत्र का सबसे बड़ा वेद,सबसे बड़ा पुराण,सबसे बड़ी किंवदंती। यदि ये मर गया होता तो 1975 के बाद देश में लोकतंत्र बचता ही नहीं। देश में ढाई साल की खिचड़ी सरकार के बाद देश की जनता ने 1980 में उसी कांग्रेस को ,उन्हीं इंदिरा गाँधी को दोबारा देश की सत्ता सौंपी जिन्हें संविधान की हत्या का दोषी मानने वाली आज की सरकार 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाने जा रही है। क्योंकि अब मौजूदा सरकार पर ही संविधान से खिलवाड़ करने का आरोप आयद किया जा चुका है।

चूंकि मै कानून का छात्र रहा हूँ इसलिए मैंने देश के संविधान को न केवल पाठ्यक्रम में अपितु सामान्य तौर पर अनेक बार पढ़ा है। मैंने संविधान का इस्तेमाल देश सेवा की झूठी कसमें खाने के लिए कभी नहीं किया। जहाँ तक मेरी जानकारी है तो आपातकाल की घोषणा संवैधानिक नियमों के तहत की गई थी लेकिन आपातकाल के दौरान 1971 में पारित आंतरिक सुरक्षा अधिनियम का दुरूपयोग किया गया था

देश में आपातकाल के हटने के फौरन बाद बनी खिचड़ी सरकार ने इस अधिनियम को 1979 में समाप्त किया गया था और संविधान के 44वें संसोधन के ज़रिए संवैधानिक आपातकाल को लागू करने के लिए इतने उपबंध जोड़ दिये गये जिससे आपातकाल लागू करना असंभव सा हो गया। भाजपा यदि लोकसभा चुनाव में 400 पार कर जाती तो आपातकाल लागू करने का प्रावधान फिर संविधान में जोड़ा जा सकता था। लेकिन ये हो न सका।

संविधान हत्या दिवस मनाने वाले देश में बिना आपातकाल की घोषणा किये आपातकाल जैसा माहौल बनाये हुए हैं लेकिन औपचारिक रूप से आपातकाल की घोष्णा नहीं कर पा रहे हैं,हालाँकि मंशा इंदिरा गाँधी की ही तरह आपातकाल लागू करने की है। दुनिया को पता है कि भारत में से 2014 से अघोषित आपातकाल लगा हुआ है। हकीकत ये है कि हमारी मौजूदा सरकार संविधान से खिलवाड़ के आरोपों से मुक्ति पाने के लिए पचास साल बाद एक बार फिर आपातकाल का हौवा खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करना चाह रही है ,लेकिन उल्लू टेढ़ा का टेढ़ा है। कभी-कभी मुझे लगता है कि सरकार भाजपा सांसद कंगना रनौत की बहुप्रतिक्षित फिल्म इमरजेंसी का लगातार असंवैधानिक तरीक़े से प्रमोशन पूरी सरकार कर रही है। इस फील्म की रिलीज लोकसभा चुनाव की वजह से टल गयी थी। इमरजेंसी यानि आपातकाल पर पहले भी ‘ किस्सा कुर्सी का ‘और आंधी जैसी फ़िल्में बन चुकीं है।

यदि आप भूले न हों तो माननीय एनडीए सरकार के प्रधानमंत्री हैं क्योंकि भाजपा संसदीय दल के नेता का औपचारिक चुनाव प्रतिक्षित हैं। अपने ही दल के संविधान की हत्या कर सत्ता में आये मोदी जी संविधान हत्या दिवस शब्द का चयन कर वास्तव में संविधान का क्या हाल वे खुद करना चाह रहे थे । जो एनडीए मोदी जी के नेतृत्व में लोकसभा के उपाध्यक्ष का पद संवैधानिक परंपराओं के तहत विपक्ष को नहीं देना चाहता है वह निहायत ही बेशर्मी से संविधान हत्या दिवस मना सकते हैं। संविधान हत्या दिवस मनाने के लिए राजपत्र का सहारा लेना ही एक नासमझी है । यदि सचमुच माननीय ने एक मरे हुए संविधान की शपथ ली है तो उन्हें ‘हत्या ‘ जैसे हिंसक शब्द का इस्तेमाल करने और संविधान का अनादर करने से कोई नहीं रोक सकता ।

संविधान की हत्या तो नहीं लेकिन उसके साथ खिलवाड़ की जितनी कोशिशें आज हो रहीं हैं। उतनी कोशिशे आपातकाल के 19 महीनों में भी नहीं हुईं। अन्यथा मनु स्मृति को पाठ्यक्रम में शामिल करने का असफल प्रयास नहीं किया जाता। आप खुद पता कर सकते हैं कि कौन महापुरुष मनु स्मृति को संविधान के स्थान पर लाना चाहते थे। दरअसल भाजपा को जो काम करना है उसे सरकार कर रही है। केन्द्र सरकार लोकसभा चुनाव के समय विपक्ष द्वारा ‘ संविधान पर खतरे ‘ की मुहिम चलने से आहत है। विपक्ष ने खासतौर पर कांग्रेस ने जनता को संविधान के साथ हो रहे खिलवाड़ के प्रति जाग्रत करने में कामयाबी हासिल की है ,इसी से भयभीत होकर केंद्र की सरकार ने एक बचकाना संकल्प ले लिया है।

राज पत्र या किसी अध्यादेश की भाषा कैसी हो इसका भान शायद सरकार को नहीं है । सरकार के पास भाषाविद हैं ही नहीं हैं , या हैं तो वे अधिकांश संघ के प्रचारक हैअन जो ठकुरसुहाती करने में दक्ष हैं। यदि ऐसा न होता तो सरकार संविधान हत्या दिवस मनाने की भूल न करती। मेरा तो सुझाव है कि सरकार अपने वरिष्ठ नेताओं के साथ साहित्यकारों के समूह को रखे ताकि भाषा की मर्यादा भाषण और अधिनियमों के निर्माण में भी दिखे।

मै आपातकाल का समर्थक न कल था ,न आज हूँ और न कल रहूंगा । मेरी स्पष्ट धारणा है कि आपाताकाल कांग्रेस के तबके कुछ उत्साहीलालों की वजह से बदनाम हुआ,क्योंकि उन लोगों ने संवैधानिक अधिकारों और शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करने की कोशिश की। इस लिहाज से कांग्रेस ने संविधान की हत्या नहीं की अपितु संविधान का अपमान किया और उसकी सजा जनता ने 1977 में कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दे दी। अब पचास साल बाद भी आपातकाल की गागरोनी गाना सत्तारूढ़ दल और सरकार के सबसे बड़े घटक के मानसिक दिवालियापन का प्रतीक है।

सरकार के हास्यास्पद फैसले का प्रतिकार करने में कांग्रेस शायद पिछड़ गयी लेकिन सपा मुखिया अखिलेश यादव ने इस मुद्दे पर तीखा प्रहार लिया। उन्होंने कहा की -बीजेपी बताए कि वह अपने काले दिनों के लिए कौन सी तारीख चुनेगी ? अखिलेश ने एक्स पर लिखा-“30 जनवरी को ‘बापू हत्या दिवस’ व ‘लोकतंत्र हत्या दिवस’ के संयुक्त दिवस के रूप में मनाना चाहिए क्योंकि इसी दिन चंडीगढ़ में भाजपा ने मेयर चुनाव में धांधली की थी। ”

मुझे अंदेशा है कि भारत सरकार द्वारा 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने का फैसला विपक्ष के संविधान बचाओ नारे के काट के रूप में लाया गया है ,लेकिन ये दांव उलटा भी पड़ सकता है। बहरहाल देश के सामने एक नया जुमला उछाला जा चुका है। आइये हम सब तेल देखें और तेल की धार भी देखें। अगले साल आप 25 जून को संविधान हत्या दिवस मनाये या न मनाएं ,ये आपके विवेक पर निर्भर करता ह। यदि सरकार तब तक बनी रही तो सरकार तो ये दिवस मनाकर मानेगी।

@ राकेश अचल

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