डॉ. राघवेन्द्र शर्मा
भारत के लिए यह गौरव का विषय है कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। यह भी सर्वविदित है कि दुनिया में हमारे देश को मदर ऑफ डेमोक्रेसी अर्थात लोकतंत्र की जननी भी कहा जाता है। जाहिर है इसका श्रेय हमारी सामाजिक व्यवस्था और जागरूक अवस्था को जाता है। यही वजह है कि हमारे यहां अपवाद छोड़ दें तो बड़ी ही सहजता के साथ सत्ता परिवर्तन हो जाते हैं। मतदान के बाद सत्ताएं एक औपचारिकता की तरह हस्तांतरित हो जाती हैं। इस बीच किसी भी प्रकार की हाय तौबा देखने को नहीं मिलती। हाय तौबा से मेरा आशय उस हिंसा और उत्तेजना के अतिरेक से है जो हमें तथाकथित विकसित देशों में देखने को मिलती है। ऐसा अनेक जाने-माने देशों में देखने को मिला जब चुनाव पश्चात हारने वाली पार्टी को अपना आपा खोते देखा गया। यहां तक कि नई सत्ता के शपथ ग्रहण समारोह में भगदड़ मचीं,और तो और राष्ट्रपति भवनों तक को हिंसा का अतिरेक देखने को विवश होना पड़ गया। लेकिन बेहद गर्व की बात है कि भारत में ऐसे दृश्य कल्पनातीत ही हैं। सवाल उठता है कि जिन्हें हम आदर्श अथवा विकसित और संभ्रांत मानते रहे, वहां तो मतदान उपरांत सत्ता को लेकर हिंसक वातावरण देखने को मिले। फिर भारत में क्यों हालात सहज बने रहते हैं। इसका जवाब है देश के मतदाताओं का जागरूक होना।
जब हम आजाद हुए तब हम पर राज करने वालों ने यही सवाल उठाया था कि इन्हें आजादी दे दी तो ये देश को चलाएंगे कैसे? लेकिन गर्व होता है यह याद करके कि हमने विश्व का सर्वोत्तम संविधान तो बनाया ही, विश्व की सबसे बड़े लोकतंत्र की स्थापना भी कर दिखाई। तो फिर दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हमारे यहां सत्ता की आपाधापी कभी मची ही नहीं? तो इसका जवाब इनकार में नहीं है। हां हम मानते हैं कि हमारे यहां भी इस तरह के प्रयास हुए, किंतु जनता की जागरूकता ने उन अति महत्वाकांक्षी हसरतों को नाकाम भी कर दिखाया। उदाहरण के लिए हम 1975 में बलात् थोपे गए आपातकाल का उल्लेख कर सकते हैं। जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए देश को आपातकाल अर्थात इमरजेंसी की आग में झोंक दिया था। तब सत्ता पक्ष पर काबिज पार्टी के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारी ने ऐसी अति मचाई कि आम आदमी का जीना दूभर हो गया। जिसने भी इस गलत बात का विरोध किया उसे जेल में ठूंस दिया गया। मीडिया ने कुछ लिखा तो उस पर अघोषित सेंसरशिप लागू कर दी गई। यहां तक कि इस राजनीतिक ज्यादती की खिलाफत को राजद्रोह मानकर आम जनता को अधिकतम कष्ट पहुंचाने की कोशिश की गई।
लेकिन इस ज्यादती का खूबसूरत और सबक हासिल करने वाला स्वर्णिम पहलू यह है कि जो ताकतें देश को अपनी बपौती मानती थीं, उन्होंने फिर कभी दोबारा देश से और उसके संविधान से छेड़छाड़ करने की हिमाकत नहीं दिखाई। दरअसल हमारे संविधान में तत्कालीन इंदिरा सरकार को उन विकट परिस्थितियों के सामने ला खड़ा किया जो खुद उसने दूसरों के लिए निर्मित की थीं। संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को हथियार बनाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे अनेक संगठन सड़कों पर आ गए। स्वयं को सत्ता का स्थाई अधिकारी मानने वाली पार्टी और उसके नेताओं को जनता ने ऐसी धूल चटाई कि आगामी चुनाव में उनका नामोनिशान तक मिट गया। पूरा विश्व जानता है कि आज भी आपातकाल थोपे जाने वाली 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में याद किया जाता है। वो दिन है और आज का दिन, हमारे यहां ये बात स्थायित्व ग्रहण कर चुकी है कि जो भी नेता या दल खुद को देश से बड़ा या स्थाई शासक समझने की भूल करेगा, उसका वही हाल होगा जैसा 77 के चुनाव में जनता कांग्रेस का कर चुकी है।
90 के दशक में भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सामाजिक ताने-बाने को छिन्न भिन्न करने के प्रयास हुए। तब एक बार फिर संघ विहिप और भाजपा को मैदान में आना पड़ गया। फलस्वरुप राम मंदिर आंदोलन, राम रथ यात्रा जैसे संघर्षों का प्रादुर्भाव हुआ। यह वह संघर्ष था जिसके बूते पर आजादी के बाद पहली बार हिंदू समाज ने अंगड़ाई ली। इससे सत्ता में बने रहने के लिए हिंदू समाज को ऊंच नीच के भेद से बांटने वाली सियासी ताकतों को मुंह की खानी पड़ गई। राजनीति के इस कालखंड ने देश में यह संदेश छोड़ा कि अब जो भी समाज को बांटने की कोशिश करेगा, वह इतिहास की चीज बनकर रह जाएगा। अब सवाल उठता है कि हमें यह सब लिखने की जरूरत क्यों आन पड़ी। तो जवाब यह है कि एक बार फिर सत्ता की भूखी सियासत षड़यंत्रों के जाल बुनती दिखाई दे रही है। उदाहरण यह है कि हाल ही में जब मुसलमान समाज द्वारा मोहर्रम के ताजिए निकाले गए, तो उन्हें अशांति और हिंसा का सबब साबित करने के कुचक्र रचे गए। उत्तर प्रदेश सहित कुछ राज्यों में पथराव, आगजनी, मारपीट आदि के प्रयास देखने को मिले। संभवत: इस बार अवसरवादी से सियासतदार मोहर्रम की आड़ लेकर हिंदू मुसलमान के बीच बड़ी खाई खोदना चाहते थे।
भला हो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार का, जिसने बड़ी ही सावधानी के साथ उक्त षड़यंत्र को नाकाम कर दिखाया और अब षड्यंत्रकारियों की धर पकड़ शुरू हो चुकी है। लेकिन देश की जनता जनार्दन ने उपरोक्त हरकतों को हल्के में तो कतई नहीं लिया है। वह तुष्टिकरण का खेल खेलने वाले ऐसे दलों और नेताओं की करतूत को गौर से देख रही है। मध्य प्रदेश समेत अनेक राज्यों से ऐसी ताकतों के खिलाफ एक जन आंदोलन सा खड़ा होता जा रहा है। जनता के बीच भ्रम फैलाकर अवसरवादी प्रवृत्तियों ने गत आम चुनाव में प्राप्त आंशिक सफलता को हथियार बनाकर फिर से वही हिंसा और अराजकता का राज स्थापित करने का असफल प्रयास किया है, जो उक्त ताकतें सत्ता में रहकर लगभग 50 सालों तक करती रही हैं । लेकिन मदर ऑफ डेमोक्रेसी कहे जाने वाले इस देश की जनता बड़ी जागरुक है। जैसे उसने तुष्टीकरण करने वाली ताकतों का मध्य प्रदेश में समूल नाश करने का करिश्मा कर दिखाया है, दावे के साथ कहा जा सकता है कि आने वाले विभिन्न चुनावों में जनता परिवारवादी, भ्रष्ट और तुष्टिकरण की राजनीति की हिमायत करने वाली ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने जा रही है। क्योंकि यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्थापना करने वाले भारत की जागरूक जनता है। इसी जागरूकता के बल पर भारत ने मदर ऑफ डेमोक्रेसी अर्थात लोकतंत्र की जननी का वैश्विक खिताब हासिल कर रखा है।
(विनायक फीचर्स)