रविवार, 06 अक्टूबर : गुरुदेव पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज एवं पूज्य भगत हंसराज जी महाराज (बड़े पिता जी) की कृपा से पूज्य पिता श्री कृष्ण जी महाराज एवं पूज्य माँ रेखा जी महाराज के पावन सान्निध्य में चल रहे रामायण ज्ञान यज्ञ के पाँचवे दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिंध्य में श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज सरस्वती द्वारा रचित रामायण में से अयोध्या काण्ड का परायण किया गया।
पूज्य पिता जी महाराज ने कहा कितने भाग्यशाली हैं, मैं, आप और वह लोग जो दूर देश में भी हमारे साथ मिल कर रामायण का परायण कर रहे हैं। अपने भाग्य की सराहना करनी है की ऐसे वातावरण में, पावन भूमि है, पावन वायुमंडल है और पावन दिन है उस पर रामायण का परायण हो रहा है, में हमें सम्मलित होने का सुअवसर मिला। हमें महाराज का कोटि-कोटि धन्यवाद करना है। “दोनों कर को जोड़ कर, मस्तक घुटने टेक, तुझको हो प्रणाम मम, शत-शत कोटि अनेक।” महाराज जी की कृपा से साधकों के बिगड़े काम बन रहे है। चारों तरफ प्रभु कृपा के बादल बरस रहें। आनंद ही आंनद है। व्रतियों के मनोकामनाएं पूर्ण हो रही हैं।
उन्होंने कहा राम जी वन गए तो राम जी बन गए। राम जी का वनवास नही होता तो असुरों का नाश नही होता।
पिता जी ने कहा स्वामी जी महाराज कहां करते थे,”मर जाऊं मांगू नहीं, अपने तन के काज और परमार्थ के काम में मुझे ना आवे लाज।” दूसरों को सुख देने के लिए मुझे कुछ भी करना पड़ जाए उसमें मुझे लज्जा नहीं होगी, पर मुझे अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी मांगना ना पड़े। मैं मर जाऊंगा लेकिन मांगूंगा नहीं। मांगना है तो परमेश्वर से हमेशा यही मांगना “तेरे जान के हित लगे, तन मन धन सब ठाठ ,आत्मा तुझ में ही रमे और मुख में तेरा पाठ।”
उन्होंने कहा हमारे राष्ट्र का पतन कहां से आरंभ हुआ, जो हमारे राष्ट्र के पथ प्रदर्शक, रास्ता दिखाने वाले थे, उन लोगों ने जब धर्म को अपनी आजीविका का साधन बना लिया, उसे दिन से धर्म का पतन शुरू हुआ। हमेशा लज्जा करनी है, तो मांग के दान खाने में करनी है। अपने हाथ से किया कोई काम छोटा नहीं होता। महाराज बार-बार कहां करते थे, आप कोई भी काम करो, कोई भी काम छोटा नहीं है। कर्म तो कर्म है। “जितने कर्तव्य कर्म कलाप, करिए राम-राम कर जाप।” जीवन में कभी नहीं सोचना की यह मेरा काम छोटा है।
पिता जी ने अयोध्याकाण्ड का वर्णन किया कि
वन जाने से पहले राम जी लक्ष्मण जी और सीता सहित दशरथ जी के पास उन के महल में आते है। उन को मुनि वस्त्रों में देख राजा अचेत हो जातें हैं। राम जी उन्हें सचेत बनातें है वह वन जाने की आज्ञा मांगते हैं। दशरथ जी उन्हें एक रात अपने साथ रहने को कहतें हैं, परंतु राम जी नही मानते। राजा उस से धन दौलत साथ ले जाने को कहतें हैं तो राम जी कहतें है मैंने जब राज त्याग दिया तो धन का क्या करुगा। मैं वन में मुनि वत रह कर आपके वचन पूरे करूगां। दशरथ जी जब देखतें हैं कि राम जी अब रुकने वाले नही तो अपने सचिव सुमंत्र को रथ लाने को कहतें हैं। राम जी लक्ष्मण जी और सीता जी सचिव सुमंत्र से साथ रथ में बैठ वन की ओर चल पड़ते हैं। रामजी के वन जाने के बाद दशरथ जी रानी कैकेयी का महल छोड़ रानी कौशल्य के महल में आते हैं।
पिता जी ने कहा कि स्वामी जी महाराज ने रामायण में पिता पुत्र के संबंध का अदभुत वर्णन किया है।
अयोध्या में हाहाकार मच जाता है। बड़े बूढे सभी रथ के पीछे पीछे चल पड़ते हैं। राम जी सुमंत्र को रथ तेज चलने को कहते है, जिस अधिकतर लोग पिछड़ जातें है। शाम को सभी तमसा नदी के किनारे पहुंचते है। रात को जब सब लोग सो रहे होतें तो राम जी सुमंत्र को रथ लाने को कहतें। सभी को सोता छोड़ राम जी वहाँ से चलें जाते हैं। सुबह जब लोग सो कर उठते हैं वहाँ राम को न पा उदास हो अयोध्या वापिस आ जातें हैं। राम के बिना अयोध्या सूनी हो जाती है। राम रथ वहां से चल
कौशल देश की सीमा पर पहुंचता है। राम जी वहां रथ स्व उतर मातृ भूमि को प्रणाम कर विदा ले आगे चल श्रृंगबेर नगरी पहुंचते हैं। वहां का निषाद राजा गुह राम को वहाँ रुकने को कहता है। परंतु श्री राम कहतें है कि पितृ वचन को पूर्ण करने के लिये चौदह वर्ष उन्हें वन में ही रहना है। वह उन्हें अपने साथ खाना खाने को कहता है तो राम जी कहतें की अब मैं मुनि बन चुका हूं अब मुझे अपने हाथ से लाये कंदमूल ही खाने है। वैसे भी मित्र जब तुम चल के मेरे पास आये तो मैंने सब पदार्थ पा लिए। यह कह राम जी गुह को अपने गले से लगा लेतें हैं। रात को वहां तिनकों की सेज बना कर राम जी और सीता जी सो जातें है। लक्ष्मण जी रात को गुह जी के साथ वहां पहरा देतें हैं।
पिता जी ने कहा गुह जैसे मित्र तो आज ढूंढे भी नही मिलते। जो दुख के समय में अपना सब कुछ अपने मित्र को देने को तैयार हो जायें और बदले में कुछ भी इच्छा नही रखें। निस्वार्थी हो। आज के समय में यदि आप के पास धन दौलत है तो सभी आप के मित्र होतें है, परंतु निर्धन को तो अपने ही तज जातें है, मित्रों की तो बात ही दूर। रुण्ड पेड पर तो पक्षी भी नही आते।
जग में मीत कहो हैं केते?,
जो सखा को सर्व दे देते ।
कड़े काल में कौन सहाई?,
विपदा घोर में देता दिखाई।।
वह रात वहाँ रुक सुबह राम जी सुमंत्र को अयोध्या वापिस भेज आगे चल पड़ते है और गंगा नदी को पार कर भरद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचते हैं। भरद्वाज मुनि उन का स्वागत करतें हैं। मुनि उन्हें चौदह वर्ष अपने आश्रम में बिताने को कहतें हैं। राम जी कहतें की अयोध्या यहाँ से निकट है इस लिये वहां से लोग यहां आते जाते रहेंगे। जिस से आप के जप पाठ में बहुत विघ्न होगा। आप मुझे कोई शांत स्थान बताएं जहाँ मुझे कोई पहचानता न हो। मुनि उन्हें गंगा यमुना के संगम के पार चित्रकूट पर्वत का बतातें हैं। राम जी रात वहाँ रुक अगली सुबह चित्रकूट पर्वत के लिये निकल पड़ते हैं।
चित्रकूट पर्वत है नामी,
सुन्दर शोभित फल जल धामी।
वन्य वस्तु मिलतीं रसवाली,
वहाँ पेड़ हैं शोभाशाली।।
राम जी लक्ष्मण जी द्वारा तरु शाखाओं से निर्मित तमेड में बैठ कर गंगा यमुना के संगम को पार कर चित्रकूट के रमणीय वन की ओर चल पड़ते हैं। चलते चलते वे तीनों वाल्मीकि मुनि जी के आश्रम पहुंचते हैं। श्री रामचंद्र जी मुनि को चित्रकूट में रहने का मनोरथ बताते हैं। मुनि के आशीर्वाद के बाद चित्रकूट में उपयुक्त स्थान देखने के पश्चात राम आज्ञा से लक्ष्मण जी वहां पर्ण कुटि का निर्माण करते हैं।
चित्रकूट की दिशा चारों में,
जल थल पर्वत घरबारों में।
राम नाम धुन जाती गाई,
राम गुण गण देते सुनाई।।
इस प्रकार से चित्रकूट के पावन वातावरण में तीनों मुनि जनों की संगति में प्रसन्ता से रहने लगते हैं।
उधर दशरथ जी रानी कैकेयी का महल छोड़ रानी कौशल्य के महल में आते हैं। अगले दिन सायं सुमन्त्र अयोध्या लौटने पर राजा दशरथ को राम चन्द्र जी को वन में छोड़ कर आने का समाचार सुनाता है। कौशल्या राजा दशरथ को उलाहने देती है कि अब कैकेयी पास नही है अब तो बिना डर के मेरे पुत्र का हाल तो पूछो की वह कैसा है? यह कह रोते रोते रानी अचेत हो जाती है। दासियाँ रानी को होश में लाती है। राजा सचिव से राम का हाल पूछते हैं। सचिव हाथ जोड़ कर कहता है कि तीनों वनों में शांति और सुख से हैं। उन्होंने आप सब को अपना प्रणाम कहा है। यह सुन दशरथ जी अपने अभाग्य व किये पाप कर्म पर विलाप करते हैं। रानी कौशल्या के पूछने पर अपने यौवन काल में हुई घटना को याद करते हैं।
बोला, मैं हूँ देवि! सुनता,
तुझे कर्म का भेद बताता।
जैसे कर्म करे जन कोई,
वैसे फल पाता है सोई।।
जो करनी करता है जैसी,
उसकी गति होती है वैसी।।
जो बीजी थी मैंने खेती,
आज फली जीवन हर लेती।
किये सर्व आये हैं आगे,
सब संस्कार पुराने जागे।
जब मैं जवान था तो वन में शिकार करते समय मेरे हाथों मेरे बाण से हाथी के धोखे में गलती से श्रवण नामक युवक का वध हो गया, जो अपने अंधे माता- पिता का एक मात्र सहारा था। जब मैंने इस बात की सूचना उस के माता पिता को दी, तो पुत्र वियोग में उसके माता-पिता ने बिलखते बिलखते अपने प्राण त्याग दिये। आज मेरे वही पाप कर्म मेरे सामने आ रहे हैं। जैसे पुत्र वियोग में उन्होंने प्राण त्यागे वैसे ही मैं भी पुत्र वियोग में दुखी हो मरूँगा।
राम- वियोग वेदना भारी,
अब तो देवि! न जाय सहारी।
प्राण देह से निसर रहे हैं,
नाम रूप सब बिसर रहे हैं।
उसी तरह दशरथ जी भी पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग देते हैं। उस समय पर चारों में से एक भी पुत्र उनके पास नहीँ था। राजा को जीवन रहित देख राज भवन में हाहाकार हो उठता है। सभी विलाप करने लगते हैं।
मैं तो जा रहा हूं अभागी,
पावन परम पुत्र का त्यागी।
भूप ने अंत राम पुकारे,
तन-त्याग वे स्वर्ग सिधारे।।
पूज्य पिता जी महाराज ने कहा कि राज गुरु वशिष्ठ जी को प्रधान बनाया जाता है। वह भरत और शत्रुघ्न जी को अयोध्या लाने सचिवों को भेजतें हैं। सचिव कैकेय राज पहुंच कर भरत जी को मिल उन्हें गुरु का संदेश देतें हैं। भरत जी उन से सब का हाल चाल पूछतें हैं तो वह जो हुआ, उन्हें कुछ नही बताते और कहतें हैं कि गुरु ने उन्हें शीघ्र बुलाया है। वह उसी समय नाना से आज्ञा ले सचिवों सह अयोध्या की ओर चल पड़ते हैं और रात दिन चल कर वहां पहुँचते हैं। भरत जी वहां पहुंच अयोध्या को सुनसान देख घबरा जातें हैं और अपनी माँ के पास पहुंचते है और उन से इस का कारण पूछते है।
कैकेय उन्हें राजा दशरथ के स्वर्ग सिधारने का समाचार देती है। वह राम जी का पूछतें तो वह उन्हें उन के वनवास का बताती है। भरत जी कहतें की भाई ने ऐसा क्या कर्म किया जो उस को वनवास मिला? वह बोली राम जी ने कोई अपराध नही किया और उन्हें सारी कथा बताती है। इस अवस्था में भी लोभ और मोह से भरी हुई कैकेयी भरत जी को रामचन्द्र जी की अनुपस्थिति में राज पाठ संभालने के लिए कहती है। यह सुन भरत जी की बुद्धि चकरा जाती है। वह सिर से पांव तक कांप उठतें हैं। भरत जी इसका विरोध करते हैं, व माता को कहतें की माता यह तूने बहुत बड़ा पाप किया है। मैं कभी भी राम सिहांसन पर पैर नही टिकाऊगा। मैं उसे वापिस ले कर आऊगा। रोते बिलखते वह कौशल्या माता के पास जाते हैं। माता कौशल्या उन्हें कहती है की तेरा मनोरथ अब पूर्ण हुआ, तेरी माँ ने मेरे पुत्र को वनवासी किया है तू मुझे भी वहीं पहुंचा दे, मुझे मेरा राम मिला दे। यह सुन भरत जी माँ के चरणों पर गिर कर शपथ खा कर कहते हैं कि मुझे तो अणु के सामान भी राम वनवास का पता नही था और अति दुखी मन से बिलख पड़ते हैं। भरत जी की वेदना देखकर और उन्हें शुद्ध मन जान माता उन्हें गले से लगा लेती है।
निश्चय है मन शुद्ध तुम्हारा,
पुत्र! तू है राम को प्यारा।
राम वियोग में बन मतवाली,
बात न जानूँ क्या कह डाली।।
अगले दिन प्रातः वशिष्ठ जी उन्हें पिता की दाह क्रिया करने को कहतें हैं। भरत जी राजा दशरथ की दाह क्रिया करते हैं व् पूरी अयोध्या शोक में डूब जाती है। शोक का समय पूरा होने पर गुरु भरत जी को कहतें कि काल बहुत बलवान है, जीवन और मरण सब इस के हाथ है, इस के सम्मुख किसी का बल नही चलता, इस के आगे सब जन हार जातें है, इसलिये अब शोक को त्याग, राज को संभालें।
राजगुरु और सचिव भरत जी को राजा बनने के लिए कहते हैं। भरत जी इस के लिये मना कर देते हैं और अभिसिंचिन उपकरणों की परिक्रमा कर सभी को कहते हैं की हमारा राजा तो राम है। मैं तो उस का आज्ञाकारी हूँ। मैं माता के वाक्य भंग कर राम को वापिस लाऊँगा। इस के लिये आप मेरी सहायता करें।
है हम सब का राघव राजा,
वह तो वन बीच विराजा।
मैं उन का हूँ आज्ञाकारी,
बनूं नहीं तस पद अपहारी।।
माता-वाक्य भंग करूँगा,
वन में बस मैं वही मरूँगा।
अथवा लाऊँगा रघुराई,
बनिये आप सब सहाई।।
भरत जी राम मिलन के लिये सेना को वन यात्रा की तैयारी को कहते है और सभी माताओं और सचिवों सहित राम को मिलने वन की ओर निकल पड़ते हैं और गंगा किनारे श्रृंगबेरपुर पहुंचते हैं। राजा गुह भरत जी को सेना सहित आते देख शंकित हो जाता है और अपनी सेना को युद्ध के लिये तैयार कर भरत जो को मिलने आता है। सुमंत्र जी राजा गुह का भरत जी से परिचय करवाते है। गुह जी उस से वहाँ आने का कारण पूछता है। भरत जी कहतें है कि वह राम को वापिस लाने जा रहें है। यह सुन गुह जी प्रसन्न हो जातें है। भरत जी उस की सहायता से गंगा पार करते हैं।
पिता जी ने साधकों के भक्ति भाव की भूरी भूरी प्रशंसा की। ऐसा लगता है जैसे हम अयोध्या में आ गए हैं। स्वर्ग की अनुभूति हो रही है। हम व्रती है। हमने वहम नही करना, क्रोध नही करना, भय नही करना, चिंता नहीं करनी क्योंकि जिस नैया के राम खावईया, वो नय्या फिर क्यों डोले। दीनाबन्धु दीना नाथ, लाज मेरी तेरे हाथ। हमारी लाज तो प्रभु के हाथ है फिर हमें किस बात की चिंता।
यही प्रार्थना करनी है, अब तक जो निभाया है, आगे भी निभा देना। अगर आप दस दिनों तक क्रोध नहीं करेंगे तो धीरे धीरे क्रोध न करने की यह आदत पक्की हो जायेगी।
पूज्य माँ रेखा जी महाराज द्वारा मधुर स्वर में रामायण के गायन से सभी साधक भाव विभोर हो गए। जब उन्होंने श्रवण और राजा दशरथ के मरण का प्रसंग पढा तो सब की आंखों में आसूं आ गए।
सत्संग में शहर के गणमान्य व्यक्तियों, MLA श्री चौधरी मदन लाल बग्गा, MLA श्री गुरप्रीत गोगी जी, श्री जीवन गुप्ता, श्री बलकार सिंह पूर्व मेयर, श्री चंद्र गैंद आई ए एस,
श्री महाराज सिंह राजी जी, श्री हेमराज जी अग्रवाल, श्री अंकित बंसल बीजेपी, इत्यादि ने भी शामिल हो कर महाराज एवं गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त किया।