मेरी जान की क़दर मैंने पाई ही नहीं।                          

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मज़बूत इरादे हैं, आगे बढ़ने की चाह भी।

घर भी मुझसे है, परिवार की रौनक भी।

अपनी जान पे खेल कर और जान इस जहाँ में भी लाती हूँ,

पर मेरी जान की क़दर मैंने पाई ही नहीं।

 

कभी बेटी बन, कभी पत्नी, कभी बहन तो कभी माँ,

लड़कियों के लिए झुकना ही है सही।

जीत ली कई आज़ादी की लड़ाइयाँ और हासिल कर लिए कई मुक़ाम,

पर ये सोच हमें आज़ाद कर पाई नहीं।

 

कभी कुचल कर, कभी मार कर, कभी चुप करवा कर,

पहना देते हैं जीती जागती लड़कियों को अपनी इच्छाओं का कफ़न।

दो मोमबत्तियाँ जला के दबाना चाहते हैं कितने गहरे ज़ख़्म,

पर अफ़सोस कोई आग की रौशनी इस दर्द को मिटा पाई ही नहीं।

 

न जाने कितने और साल लग जाएंगे,

औरत को अपना वजूद ढूंढने में।

कितनी और अर्थियों की राख लगेगी सुरक्षा की दीवार खड़ी करने में।

मज़बूत हौसले मन में हो कर भी,

इज़्ज़त की मज़बूती इसमें समा पाई ही नहीं।

मैं अपनी जान पे खेल कर और जान इस जहाँ में लाती हूँ,

पर मेरी जान की क़दर मैंने पाई ही नहीं।

 

नैना जैन |

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