लहू बोते मानव : एक युद्ध त्रासदी की मार्मिक कथा

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इस महीने मेरे पास पढ़ने के लिए दो पुस्तकें थीं । पहली तस्लीमा नसरीन की ‘ उत्ताल हवा’ और दूसरी मंयक तोमर का उपन्यास ‘ लहू बोता मानव ‘। मैंने मंयक के उपन्यास को पहले पढ़ने का निश्चय किया ,क्योंकि उत्ताल हवा का आरम्भ ही तोड़ा उबाऊ ढंग से हुआ था। किसी एक उपन्यास को लिखने में महीनों की मेहनत लगती है ,लेकिन उसे पढ़ने में कुछ दिन या कुछ घंटे लगते है । ये उपन्यासकार की क्षमता पर निर्भर करता है कि वो अपने लिखे को पाठक के सामने कितनी देर रोक पाता है।
‘ लहू बोता मानव ‘ मंयक तोमर का पहला उपन्यास है । मंयक पेशेवर लेखक नहीं हैं ,लेकिन उनके भीतर की कसमसाहट ने इनसे रूस-यूक्रेन युद्ध की त्रासदी पर ये उपन्यास लिखवा ही लिया। इस उपन्यास के केंद्र में यूक्रेन में पढ़ रहे भारत और दुसरे देशों के छात्र ,प्रेम,घृणा और मानवीय जीवन के तमाम पहलू हैं। भारत से मेडिकल की पढ़ाई करने गयी संधि और उसके यूक्रेनी प्रेमी पेत्रोविच का मिलना और बिछुड़ना इस उपन्यास की रीढ़ है किन्तु इस उपन्यास में जैसे-जैसे नए पात्र जुड़ते जाते हैं ,ये उपन्यास पाठक की ऊँगली पकड़कर उसे अपने साथ लेकर चलने लगता है। उपन्यास कि पात्रों में एक पालतू कुत्ता हीरो भी है। जो मानवीय पात्रों की तरह अपनी उपस्थिति से पाठकों को प्रभावित करता है।
अपने लम्बे जीवन काल में मैंने अनेक नामचीन्ह उपन्यासकारों के साथ ही नवोदित उपन्यासकारों की कृतियों को पढ़ा है। मैंने खुद बड़े दुस्साहस के साथ एक उपन्यास लिखा है ,इसलिए मै जानता हूँ कि उपन्यास कितना कष्टसाध्य कार्य है। कहानी लिखना जितना आसान है ,उपन्यास लिखना उतना ही कठिन। वो भी तब जब आप सम्बंधित विषय वस्तु से बहुत ज्यादा ताल्लुक नहीं रखते। मंयक ने कोशिश की कि वो इस युद्ध त्रासदी की कथा को आँखों देखी की तरह अपने पाठकों के सामने रख दे।
उपन्यास यूक्रेन कि शहर खारकीव के एक होटल से शुरू होकर उस सीमा पर जाकर समाप्त होता है जहां भारतीय और अमरीकी छात्रों को स्वदेश ले जाने के लिए आये विमान खड़े हैं। लेकिन सबको स्वदेश जाना नसीब नहीं होत। अमरीकी छात्र ब्लादिमीर को बारूद उड़ा ले जाती है और संधि को युद्ध से क्लांत देश की पीड़ित आबादी यूक्रेन से जाने नहीं देती। । कहानी बहुत गुथी हुई है। भाषा सहज है। कहीं -कहीं संवाद इतने पनीले हैं कि आपको रुला दें। यही मंयक की कामयाबी है। एक नवोदित उपन्यासकार को यदि पाठक का ये स्नेह हासिल हो जाये तो उसे और क्या चाहिए ?
मेरे ख्याल से ये उपन्यास 217 पृष्ठ में ही समाप्त हो जाना चाहिए था ,लेकिन मंयक इसे खींचके 360 पेज तक ले गए क्योंकि वे उपन्यास की नायिका के चरित्र को और उभारना चाहते थे। इस कोशिश में वे कामयाब हुए या नहीं ये आप खुद उपन्यास पढ़कर तय करें ,लेकिन मुझे लगता है कि वे यदि संधि को भारत न आने के फैसले और अपने एक अमरीकी साथी की एन मौके पर मौत के साथ ही वे अपना उपन्यास समाप्त कर देते तो भी उनका मकसद पूरा हो जाता। उपन्यास का सन्देश युद्ध के ऊपर प्रेम की विजय को स्थापित करना था। लेखक इसमें कामयाब हुआ। बेहतर होता है कि मंयक उपन्यास में युद्ध के पहले के खारकीव की सुंदरता और वहां के बारे में भी कुछ जिक्र करते ,लेकिन जो छोटा सो छूटा और जो हासिल हुआ सो हुआ।
रूस-यूक्रेन कि युद्ध कि समय भारत सरकार द्वारा चलाये गए अभियान पर केंद्रित एक उपन्यास मप्र कि एक आईएएस अफसर ने भी लिखा लेकिन वो एक डायरी से ज्यादा कुछ नहीं था,लेकिन ‘ लहू बोता मानव में उपन्यास कि लगभग सभी तत्व मौजूद है। युद्ध कि दौरान का तनाव,हिंसा, प्रतिक्रिया,घृणा,प्रेम ,उत्तेजना, और मानवीय स्वभाव में प्रतिपल होने वाले परिवर्तनों का शानदार चित्रण किया गया है। दुनिया को कोई भी युद्ध हो मनुष्यता कि खिलाफ होता है। युद्ध की शिकार सबसे ज्यादा औरतें और बच्चे होते हैं। मंयक ये सब रेखांकित करने में एक चित्रकार की तरह जुटे रहे। उपन्यास हालाँकि एक बैठक में पढ़ने लायक नहीं है । इसे पढ़ने कि लिए समय और एकाग्रता चाहिए। लेखक पाठक से ये सब हासिल कर लेता है। भाषा की अशुद्धियाँ न कि बराबर हैं लेकिन वाक्य विन्यास कहीं-कहीं गड़बड़ा गया है।
कुलजमा मुझे उपन्यास पठनीय लगा ,मुझे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में मंयक से और बेहतर उपन्यास मिल सकते है। 41 साल के मंयक के परिवार में साहित्य अनुरागी तो हैं किन्तु लेखक कोई नहीं ,इसलिए मै मंयक को विशेष बधाई देना चाहता हूँ। उपन्यास के अध्याय 11 के बाद के कथानक को सीमित किया जा सकता था। संधि को एक ‘ एक्टिविस्ट ‘ के रूप में स्थापित करने के लिए मंयकेँ ने कुछ ज्यादा ही शब्द खर्च कर दिए। उपन्यास उपसंहार पर आते -आते कुछ बोझिल सा होने लगता है। कारण संवाद आख्यान में बदलते दिखाई देते हैं। भविष्य में इससे बचने की कोशिश की जाना चाहिए। उपन्यास का शीर्षक भी लगता है जल्दबाजी में तय किया गया। आवरण आकर्षक है । उपन्यास का प्रकाशन ब्लूरोज वन ने किया है । 366 पेज के इस उपन्यास की कीमत कुल 465 रूपये है। आपको ये उपन्यास एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।
@ राकेश अचल

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