भारत की राजनीति में पिछले सात दशक से लगातार प्रासंगिक बने हुए ग्वालियर के सिंधिया परिवार की हर पीढ़ी ने पराजय का स्वाद चखा ,लेकिन राजनीतिक मैदान नहीं छोड़ा। आजादी के बाद सिंधिया परिवार की अंतिम राजमाता श्रीमती विजया राजे सिंधिया राजनीति में उतरने वाली पहली महिला थी। उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार वल्ल्भ भाई पटेल कांग्रेस में लेकर आये थे। राजमाता विजया राजे सिंधिया ने पहला लोकसभा चुनाव 1957 में गुना लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकिट पर ही जीता था।
राजमाता विजया राजे सिंधिया कांग्रेस में ज्यादा नहीं टिकीं। एक दशक में ही उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया। 1967 में मध्य्प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र से अनबन के बाद उन्होंने कांग्रेस से बगावत कर दी और कांग्रेस सरकार गिर गय। राजमाता जनसंघ में शामिल हो गयीं। वैसे भी उनका आराम्भिक झुकाव हिन्दू महासभा की और था। राजमाता ने पहला विधानसभा चुनाव भी 1967 में ही लड़ा था। राजमाता विजया राजे सिंधिया मुमकिन था कि अजेय रहतीं लेकिन आपातकाल के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ उनका क्रोध सातवें आसमान पार था। वे अपनी पार्टी की समझाइश के बावजूद हठपूर्वक रायबरेली से श्रीमती इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़ीं और हार गयीं। भरपाई के लिए जनसंघ ने उन्हें १९७८ में राज्य सभा भेजा । अन्यथा राजमाता ने 1957 के बाद 1962 ,71 ,89 , 1991 ,96 ,98 ,99 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीतीं। पराजय का स्वाद चखने वाली राजमाता सिंधिया परिवार की पहली सदस्य थीं।
ग्वालियर के सिंधिया परिवार की दूसरी पीढ़ी में राजमाता के पुत्र माधवराव सिंधिया और वसुंधरा राजे सिंधिया ने राजनीति में कदम रखा। माधवराव सिंधिया ने अपने जीवनकाल में लोकसभा के 9 चुनाव लड़े और सभी में विजय हासिल की। माधवराव सिंधिया ने पहला लोकसभा चुनाव 26 साल की उम्र में गुना से जनसंघ के टिकिट पर लड़ा और जीते । आपातकाल के बाद 1977 का चुनाव माधवराव ने निर्दलीय लड़ा और जीत हासिल की। 1980 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए और गुना से ही लोकसभा का चुनाव जीते । 1984 में कांग्रेस ने उन्हें उनके गृहनगर ग्वालियर सीट से लोकसभा का प्रत्याशी बनाया । इस चुनाव में उन्होंने भाजपा के सबसे बड़े नेता और राजमाता के विश्वसनीय सहयोगी अटल बिहारी बाजपेयी को प्रचंड बहुमत से हराया । माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर से 1998 तक सभी चुनाव लड़े और जीत। उन्हें 1996 में एक चुनाव निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लड़ना पड़ा क्योंकि कांग्रेस ने उन्हें हवाला कांड के बाद पार्टी से बाहर कर दिया था। लेकिन इस चुनाव में भाजपा ने उन्हें वाकओव्हर दे दिया था।
राजमाता के अस्वस्थ होने और ग्वालियर में जन समर्थन में आयी गिरावट के बाद माधवराव सिंधिया 1999 में गुना सीट पर वापस लौट गए। उन्होंने 1999 और 2002 तक गुना का ही प्रतिनिधित्व किया किन्तु अजेय बने रहे। लेकिन उनके साथ ही उनकी बहन वसुंधरा राजे अजेय होने का कीर्तिमान नहीं रच सकीं । वसुंधरा राजे को अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा । उन्होंने पहला लोकसभा चुनाव १९८४ में मध्यप्रदेश की भिंड सीट से लड़ा था। इंदिरा लहर में उन्हें कांग्रेस के प्रत्याशी और दतिया के राजा कृष्ण सिंह ने 88 हजार मतों से पराजित किया था। प्रथम ग्रासे मच्छिका पात होने के बाद वसुंधरा राजे ने मध्य्प्रदेश की राजनीति से विदाई ले l। वे राजस्थान चलीं गयीं और उन्होंने 1985 में धौलपुर से विधानसभा का पहला चुनाव लड़ा और जीती।
वसुंधरा राजे सिंधिया बाद में 1989 ,91 ,96 ,98 ,और 99 में लोकसभा के लिए चुनी गयीं। बादमें भाजपा ने उन्हें राजस्थान की राजनीति में इस्तेमाल किय। वसुंधरा राजे ने 2003 ,2008 ,2013 और 2018 में राजस्थान विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा और जीतीं। वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री भी रहीं । इन दिनों वे हासिये पर हैं। वे अपने भाई माधवराव सिंधिया की तरह अजेय नहीं रह पायी।
सिंधिया परिवार की दूसरी पीढ़ी की एक और महिला सदस्य श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया भी हैं। वे भी अपने भाई माधवराव सिंधिया की ही तरह अजेय ही राजनीति से रिटायर हो गयीं। वे बहुत देर से यानि 1998 में राजनीति में आयीं । उन्होंने पहला विधानसभा चुनाव 1998 में शिवपुरी से लड़ा हालांकि वे पहला चुनाव गुना से लोकसभा का लड़ना चाहतीं थीं । यशोधरा राजे ने 2003 ,2013 ,2018 में भी शिवपुरी से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीता । वे 2007 और 2009 में ग्वालियर से लोकसभा के लिए भी चुनाव लड़ीं और जीती। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया। क्योंकि पार्टी नेतृत्व ने उनकी नहीं सुनी। न उन्हें टिकिट दिया और न उनके बेटे को टिकिट दिया ।
यशोधरा राजे दरअसल अपनी माँ राजमाता विजयाराजे सिंधिया की राजनीतिक विरासत की उत्तराधिकारी बनना चाहतीं थीं ,इसीलिए उन्होंने सबसे पहले गुना से लोकसभा चुनाव लड़ने का मन बनाया था किन्तु उनके भाई माधवराव सिंधिया और बाद में भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ऐसा होने नहीं दिया। राजमाता के निधन के बाद खुद मश्वराव सिंधिया ग्वालियर छोड़कर गुना आ गए थे और बाद में उनके निधन के बाद गुना लोकसभा सीट पर उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कब्जा कर लिया।
सिंधिया परिवार की तीसरी पीढी के प्रतिनिधि ज्योतिरादित्य सिंधिया है। वे अपने पिता माधवराव सिंधिया की आकस्मिक मृत्यु के बाद 2002 में राजनीति में आये । उन्होंने कांग्रेस के टिकिट पर ही गुना से अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और जीते । वे 2004 ,2009 ,2014 में भी कांग्रेस के टिकिट पर ही गुना से चुनाव लड़े और अजेय बने रहे किन्तु 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें घेर कर पराजय का मुंह दिखा दिया। यानि सिंधिया परिवार की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि भी अजेय नहीं रह सके । मजे की बात ये है कि जिस भाजपा ने उन्हें 2019 में पराजय का स्वाद चखने पर विवश किया था,आज 2024 के चुनाव में वे उसी भाजपा के प्रत्याशी की हैसियत से लोकसभा का चुनाव गुना से लड़ रहे हैं। अब वे हारें या जीतें इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि पराजय तो उनके दमन का अभिन्न अंग बन चुकी है।
सिंधिया पारिवार की चौथी पीढ़ी के महाआर्यमन सिंधिया जो की ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे हैं राजनीति में प्रवेश के लिए तैयार हैं। मुमकिन है की उन्हें 2029 में ग्वालियर या गुना से भाजपा के ही टिकिट पर राजनीति में प्रवेश कराया जाये। सिंधिया प्रियवर की प्रासंगिकता शोध का विषय भी हो सकती है।
@ राकेश अचल
इतिहास : सिंधिया परिवार की हर पीढ़ी ने पराजय का स्वाद चखा

Janhetaishi
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