हीही, हाहाहाहाहा पहचाना मैं हूं महंगाई का रावण  मेरी ऊंचाई हमेशा नापते जो सभी को सिरदर्द होता…!

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हीही, हाहाहाहाहा पहचाना मैं हूं महंगाई का रावण

मेरी ऊंचाई हमेशा नापते जो सभी को सिरदर्द होता…!

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मैं हूं महंगाई का रावण मेरी ऊंचाई हमेशा नापते जो सभी को सिरदर्द होता। ऊंचाई नापने वाला हमेशा दुखी रहता हैं, मुझे हमेशा बढ़ता हुआ पाता है। बड़े धंधे वाले, बड़े दुकानदार, कंपनी, उद्योग वाले प्रसन्न रहते हैं, उन्हें मेरा कद भाता हैं। लोग मेरा पुतला जलाते, मैं उन पर अटृहास करता, फिर भी नहीं डरता, फिर भी नहीं मरता। रक्त बीज के जैसा हर जगह पनपता,

नहीं झुकता, ना ही रूकता, हर समय फलता-फूलता रहता हूं।

हर बार मेरा कद, शरीर, ऊंचाई बढ़ती जाती हैं। महंगाई का पुतला जलाने से क्या महंगाई मरती है। हां, मेरी संख्या और उम्र

लगातार बढ़ती जाती है। मुझ पर किसी का बस नहीं चलता, खड़े-खड़े सीना ताने चलता हूं। मुझ पर सरकार का भी बस नहीं चलता।

 

अब डकार आ रही हैं, हीही, हाहाहाहाहा पहचाना मैं हूं रावण।

महंगाई का रावण, जिसे लोग डायन भी बोलते हैं, ससुरा बहुत ही कमात हैं, महंगाई डायन खायें जात है। मुझे गरीब, मजदूर

पसंद नहीं करते। मेरे कारण गरीबी आती है, मेरे कारण लोगों का गुजारा सही तरीके से नहीं होता, मुझसे परेशान होकर गरीब

अपनी जान तक दे देते हैं तो मैं क्या करूं, मुझे भी अपना घर देखना हैं, सगे संबंधियों का घर बनाना है। मेरे कारण दूसरे वर्गों के घर आसानी से चलते हैं, रोड़ पति करोड़ पति बनता हैं, आगे चलकर अरब-खरब पति बन जाता हैं। गरीब लोग मुझे उलाहना देते हैं, मुझे उनका व्यवहार पसंद नहीं। मुझे भी दुख पहुंचता लेकिन मैं असहाय हूं, मैं मेरी आदतों से बाज नहीं आ सकता।

 

हां मैं विद्वान भी हूं, ओरिजनल नहीं मगर लोग मुझे पसंद करते हैं उन्हें मेरा जीवित रहना पसंद है और जिन्हें मैं नापसंद हूं वो मेरा पुतला चौराहों पर जलाते हैं, ओरिजनल मैं मर जाऊं यह नापसंदीदा लोगों के बस में नहीं इसीलिए इन्हें में अपने जोश व प्रभाव से पीसता रहता हूं। दशहरे का रावण केवल जलता या जलाया जाता हैं मगर उनके भीतर खेलता असली रावण कभी मरता नहीं, यह आपराधिक वृत्ति का रावण सदैव चौकस जिंदा रहता हैं। दशहरे का रावण बेजान होता हैं इसलिए फूंक दिया जाता है। पहले संजाते संवारते फिर आग में फूंककर जश्न मनाते हैं। मेरी उपस्थिति से ही लोग परेशान हो जाते हैं, ऊंची नजरें जमाकर कौतूहल से देखते हैं, फिर नजरें मिलाकर सिर नीचा कर लेते हैं सरकार को कोसते हैं, मुझे अंटसंट अपशब्द सुनाते और अपने हाथों अपना सिर धुनते हैं। यहां मुझे मारकर अपने बंधुओं से गले मिलने वाला कोई नहीं।

 

 

फिलहाल तो एक से बढ़कर एक रावण तैयार हैं, धरतीपकड़

रावण जमीन पर बनाया जाता हैं, इसकी बनावट व आकार में वृद्धि व लंका निर्माण देखने लोग जाते हैं उत्तरोत्तर ग्रोथ पकड़ते रावण को देखते हैं, मुस्कराहट बिखेरते हुए आगे बढ़ जाते हैं।

दशहरे के दिन पूरा रावण देखने जाते हैं। रावण को टपकाकर दशहरा जीत कर आते हैं। कई रावण विचित्र मुखौटों के साथ शामियानों, पांडालों में बनाये जाते हैं जिनका रंग-रूप, आकार अनेक साइजों में बनवाने वाले तय करते हैं। लोग रेडिमेड खरीद कर ले जाते और जलाते हैं। अक्सर रावण का स्वरूप व चेहरा क्रोध से भरा, भृकुटी तना, डरावना बनाया जाता हैं। महंगाई सीधी चलती हैं निराकार होती है, दिखाई नहीं देती, व्यक्त या महसूस की जाती है एक बार आ जाती फिर जाने का नाम नहीं लेती। दशहरे का रावण एक बार जलाने के बाद फिर नहीं आता।

फूटफाट जाता और फिर अगली बार फिर नया लाना याने बनवाना पड़ता है, यही खेल सेमटूसेम मेघदूत-कुंभकरण के साथ खेला जाता है।

 

मंहगाई जीती नहीं जाती ना वापस आती सो किसी दुकानदार या अन्य के पैर नहीं पकड़े या छुए जाते। महंगाई पर जीत असंभव हैं। कर्मचारी व पेंशनर्स भत्ता -राहत की गुहार लगाने हेतु

सरकार की लेट लतीफी का इंतजार करते थक जाते हैं उनके आंसू सूख जाते हैं। महंगाई के बदले भत्ता – राहत ऊंट के मुंह में जीरे के समान पाकर। पहले तो चक्कर आ जाते हैं उन्हें फिर ढांढस संभाल काम में लग जाते हैं मप्र-छग के कर्मी-पेंशनरों

के यही हाल हैं इनके परिवार महंगाई वृद्धि दैत्य से बदहाल हैं,

हाय महंगाई, तुझे बढ़ने में शरम नहीं आई, तूने दया नहीं दिखाई।

आज भी मध्यप्रदेश के कर्मचारी – पेंशनर्स को दस महीने से केंद्र के समान चार प्रतिशत भत्ता नहीं मिल रहा। निष्ठूरता निष्ठावानों पर हो रही जो महंगाई के बोझ तले पिसे जा रहे हैं। सरकार को उनके जख्मों पर मरहम लगाने हेतु महंगाई भत्ता/राहत दशहरा -दीवाली त्योहार के पूर्व देना चाहिए।

 

 

– मदन वर्मा ” माणिक ” इंदौर, मध्यप्रदेश

 

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