पितरों को भावपूर्ण,अश्रु-युता विदाई-चिट्ठी ना कोई संदेश ना जाने कौनसा देश जहां तुम चले गए-सर्वपितृ अमावस्या,की ग्राउंड रिपोर्टिंग व अंतरराष्ट्रीय- स्तरीय विवेचन
सर्वपितृ अमावस्या सिर्फ एक तिथि अथवा धार्मिक अनुष्ठान नहीं है;यह उन अनगिनत रिश्तों, यादों और ऋण-भावनाओं का संगम है- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया-भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तरपर 21 सितंबर 2025 की अमावस्या, जिसे अनेक परंपराओं में सर्वपितृ अमावस्या भी कहा गया,सिर्फ एक तिथि अथवा धार्मिक अनुष्ठान नहीं है;यह उनअनगिनत रिश्तों, यादों और ऋण- भावनाओं का संगम है जो हम अपने पूर्वजो,माता,पिता,दादा- दादी, नाना-नानी और अन्य पूर्व पीढ़ियों के साथ बाँधे रखते हैं। इस दिन भारत सहित संसार भर के मूल भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय मूल के भारतीय (प्रवासी, प्रवासोत्तर पीढ़ियाँ) मिलकर अपने पितरों को भावपूर्ण, अश्रु-युता श्रद्धांजलि देते हैं। यह लेख उसी भाव, रीति- रिवाज़, मान्यताओं और आधुनिक-आध्यात्मिक अर्थों का विस्तृत, शोधप्रधान और सहृदय विवेचन है, जो पारंपरिक भारतीय समाज और विदेशी- पृष्ठभूमि के भारतीय निवासियों द्वारा मनाया जाता है वह चाहे किसी भी देश में हो। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि,अमावस्या के दिन परिवार मिलकर शोक और स्मृति को साझा करते हैं, यह एक निजी और सार्वजनिक दोनों तरह का अनुभव है। भारत में पारंपरिक रूप से यह दिन न केवल घरों में बल्कि नदी, तालाब के किनारे, तीर्थों पर भी मनाया जाता है।आज हम इस विषय पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि मैंनें 21 सितंबर 2025 की यह अमावस्या की मैंने भारत में ग्राउंड रिपोर्टिंग की तथा सोशल मीडिया के माध्यम से देखा,तो यह स्पष्ट था कि वैश्विक भारतीय समुदाय,लंदन, न्यूयॉर्क, दुबई, सिंगापुर, सिडनी और कनाडा के टोरन्टो तक, अपने-अपने रूपों में अपने पितरों को अंतिम विदाई दे रहे थे। अंतरराष्ट्रीय मूल भारतीयों का भाव एक विशेष साम्य रखता है: दूरस्थता के कारण व्यक्तिगत स्मृतियाँ और पारिवारिक वस्तुएँ, फोटो व कहानियाँ और स्थानीय जगहों पर आयोजित छोटे-छोटे समारोह पितृस्मृति को जीवंत रखते हैं।अमावस्या पर उमड़ती संवेदना, सहानुभूति और साझा स्मरण,ये भाव न केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित हैं; वे परिवारिक पुनर्संयोजन, लोकसंगीत,स्मृति-कथाएँ और भोजन के माध्यम से पीढ़ियों के बीच सेतु बनाते हैं।
साथियों बात अगर हम मेरी स्वयं की निगरानी: ग्राउंड रिपोर्टिंग की करें तो मुझे अश्रु-पूर्ण विदाई का सामाजिक अनुभव हुआ। मैंने 21 सितंबर 2025 कीअमावस्या पर संध्या 7 बज़े तक मित्रों के यहाँ जाकर जो दृश्य देखा, सबका अश्रु-पूर्ण विदाई देना,वह भारत की विविधता का सूक्ष्म उद्घाटन था। छोटे-छोटे घर, अपार्टमेंट के लिविंग रूम, महानगर के कॉमन-हॉल और गाँवों के आंगन,हर जगह एक समानता थी:चिर परिचित गहन भाव,अगस्त- सी नमी आँखों में और शब्दों से परे गूँथी हुई स्मृति। कुछ स्थानों पर वृद्धाएँ अपने पुराने सरज़मीन के हावभाव, पुरानी कहानियाँ और दिये हुए संस्कार याद कर रही थीं; युवा पीढ़ी मोबाइल पर दादी-दादाजी की पुरानी आवाज़ सुनाकर परिवार को जोड़ रहे थे।अमावस्या के दिन का यह दृश्य केवल धार्मिक क्रिया न होकर, सामुदायिक सहानुभूति, सांस्कृतिक साझा स्मृति और सामाजिक समर्थन का प्रतीक बनकर उभरा। यह भावुकता न केवल व्यक्तिगत शोक की अभिव्यक्ति थी बल्कि एक सामूहिक अंतिम-आदर का रूप लेकर राज्य-स्तर, नगर-स्तर और अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के जरिए फैला हुआ दिखा।
साथियों बात अगर हम मेरी निजी अनुभूति, मेंरे परिवार का अमावस्या 21 सितंबर शाम 6 बजे की अनुभूति की करें तो मेंरे दादाजी-दादी जी, पिताजी-मम्मी और छोटी बहन हमारे परिवार के ‘पितृ’ थे और मेंरे उन पन्द्रह दिनों में उनकी उपस्थिति अपने चारों ओर महसूस की थीं। यह तो अपने-अपने भाव हैं, इसे उच्च अनुभूति भाषा में व्यक्त करें तो “उन पंद्रह दिनों के भीतर मेरे घर का प्रत्येक क्षण एक शिष्ट, सुखद और शोक-युक्त स्मृति-आलम्ब बन गया। सुबह का पहला दीप मेरे दादाजी के सिरहाने की याद लेकर आता,उनके मुस्कुराते चेहरे का उदित प्रतिबिंब और संध्या की शंख-पुकार मेरे पिताजीकी गम्भीर परामर्श -आवाज़ की स्मृति जगाती। मेरे घर की दीवारों पर लगे फोटो केवल कागज़ नहीं रहे;वे जीवन के वे उजले अध्याय बन गए, जिन्हें मैं हर सुबह चाय के संग पिघलते हुए अनुभव करता था। उनकी उपस्थिति का आभास, कभी मृदु हवा के झोकों में तो कभी भोजन की खुशबू में आता,और उस अनुभूति ने मुझे बतलाया कि जीव-सम्बन्ध केवल शरीर में नहीं, स्मृति और संस्कार में भी रहते हैं।मैंने देखा कि श्रद्धा केवल शब्दोंसे परे है,वह कर्मों में बदलकर रह जाती है; वह क्षमाशीलता,दान,और जीवन को सरलता से जीने की साधना बन जाती है।”
साथियों बात अगर हम पितृपक्ष का समापन, जिसे सर्वपितृ अमावस्या कहा जाता है की करें तो,यह एक पौराणिक तथा वैदिक-पुराणिक परिप्रेक्ष्य से गहन अर्थ रखता है। प्राचीन ग्रंथों में पितरों को विशेष स्थान दिया गया है। पितृ, जिन्हें पितरों का कुल अथवा पूर्वज कहा जाता है, को परिवार के उत्थान और धर्म के पालन में उत्तरदायी माना गया है। पुराणिक कथा-परंपराएँ बताती हैं कि पितृ लोक और पृथ्वी के मध्यका वह क्षेत्र है जहाँ पूर्वज अपनी रक्षा और आशीर्वाद प्रदान करते हैं,परंतु उन्हें शांति और मुक्ति के लिए संतोषजनक श्राद्धों/पिण्डदानों की आवश्यकता रहती है। पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में परिवार अपने पितरों को आह्वान करके, भोजन- दान, तर्पण, पिण्ड-दान और अनुष्ठान द्वारा उन्हेंसम्मानित करते हैं ताकि उनके पुत्र- पौत्रों पर सुख-शांति बनी रहे। सर्वपितृ अमावस्या को इन पंद्रह दिनों का समापन और अंतिम विदाई माना जाता है, एक तरह से यह ‘धर्म, स्मृति और समर्पण’ का अंतिम बिंदु है।सर्वपितृ अमावस्या पर किए जाने वाले मूल अनुष्ठानों का उद्देश्य है,पितरों को श्रद्धांजलि देकर उनके प्रति कृतज्ञता, क्षमा, और मंगल-आशीर्वाद प्रार्थना करना।
साथियों बात अगर हम पितृपक्ष यह ‘पंद्रह दिनों’ की आस्था, अनुभवात्मक और भावनात्मक व्याख्या की करें तो,मैंने जैसा अपने अपने घर में अनुभव तथा मित्रों के घरों में जाकर देखा, पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में दौरान कई परिवार अपने पूर्वजो की प्रतिकृतियाँ या फोटो या स्वरुप घर में रखकर सुबह-शाम पूजा करते थे,उनसे संवाद करते हुए भोजन अर्पित करते थे और पशु-पक्षियों को भोज खिलाते थे, यह व्यवहार केवल अनुष्ठानिक क्रिया नहीं, बल्कि रिश्तों और स्मृतियों को बार-बार जीवन में लाने का एक संवेदनशील तरीका है। भावनात्मक भाष्य में इसे इस प्रकार कहा जा सकता है: ‘पितृ’ हमारा आनुवंशिक, संस्कारात्मक और सांस्कृतिक स्रोत हैं; वे जन्म देने-सम्भालने,निदान-संरक्षण और धार्मिक-सदाचार के मूल रूपों के संवाहक रहे हैं। पितृपक्ष में उनका आगमन प्रतीकात्मक रूप से तब मनाया जाता है जब हम अपने जीवन के उन मूलभूत स्तंभों को स्मरण कर, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और अपने कर्मों, विचारों व भावनाओं में शुद्धिकरण का संकल्प लेते हैं।व्यवहारिक दृष्टि से पंद्रह दिनों की यह प्रथा, जिसे मैंने अपने घर में व मित्रों द्वारा अपनाया हुआ देखा तो ठोस रूप में तीन कार्य करते है: पहला, यह शोक- निवारण और स्मृति-उत्सव का माध्यम है; दूसरा, पारिवारिक कथाएँ, व्यंजनों और रीति- रिवाजों को अगली पीढ़ी तक स्थायी रूप से पहुँचाती है; तीसरा, यह सामाजिक दायित्व (दान, परोपकार) का अवसर देती है। इसलिए इसे केवल अलौकिक मान्यता नहीं, बल्कि पारिवारिक धरोहर और समुदाय- निर्माण की अभिव्यक्ति भी माना जाना चाहिए।इसलिए पितृपक्ष और सर्वपितृ अमावस्या जैसे संस्कार यह याद दिलाते हैं कि जीवन केवल व्यक्तिगत नहीं,बल्कि एक निरंतर सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मकधारा है। आस्था का अर्थ कट्टर विश्वास नहीं, बल्कि एक ऐसा भाव है जो हमारे मूल्यों, कृतज्ञता और सामाजिक दायित्वों से जुड़ा होता है। आपने अपने मित्रों द्वारा अपनायी गई सरल परन्तु गहन प्रथा देखी,वही सच्ची आत्मीयता है: जो बड़े शहरों की व्यस्तता में भी रौशनी नहीं खोती।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विशेषण करें तो हम पाएंगे कि 21 सितंबर 2025 की वह अमावस्या,जब पितरों को अश्रु-पूर्ण विदाई दी गयी,केवल अंतिम संस्कार या एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं थी;वह एक समस्ती भावनात्मक समारोह था जहाँ स्मृति, कृतज्ञता,क्षमा और आशा एक साथ विहित हुए। सर्वपितृ अमावस्या ने हमें यह सिखाया कि पूर्वजों का स्मरण हमें हमारी जड़े, हमारी जिम्मेदारियाँ और हमारे संस्कार पुनः स्मरण कराता है।और जब ये परंपराएँ अंतरराष्ट्रीय रूप से, शालीनता और पर्यावरण-ज्ञान के साथ निभायी जाती हैं, तब वे न केवल भारतीय संस्कृति को बनाये रखेंगी, बल्कि वैश्विक समुदाय के सामने उसके सौंदर्य और मानवता के संदेश को भी मजबूती से रखेंगी।
*-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र *