ये पहला मौका है जब होली पर चंद्र ग्रहण का साया है। 100 साल बाद होली पर चंद्रग्रहण का संयोग बन रहा है। हमारी होली और हमारे लोकतंत्र में ऐसे मौके कम ही आते है। हमारे लोकतंत्र को भी ग्रहण लगे लंबा अरसा हो चुका है ,लेकिन लोकतंत्र में ये मौक़ा आजादी के 67 साल बाद आया था। लोकतंत्र के ग्रहण का सूरज और चन्दा से नहीं बल्कि इलेक्टोरल चंदे से रिश्ता होता है। चन्दा पहले भी लोकतंत्र को राहु-केतु की तरह सताता था लेकिन पहली बार ये हुआ है कि लोकतंत्र को लगा ग्रहण हट ही नहीं रहा।
भारत में होली और लोकतंत्र के प्रति आदमी की श्रद्धा और विश्वास एक जैसा है। होली में कभी ‘ होली पर्सन ‘ शामिल नहीं होते । ये गंवारों का त्यौहार माना जाता है । कीचड़ से लेकर रंगों तक का इस्तेमाल इस होली में होता है । लोग नशा-पत्ता करते हैं और झूमते नाचते हैं। ‘होली पर्सन ‘आजकल रंगों और कीचड़ से उतना ही परहेज करते हैं जितना तालिबानी सोच के लोग लोकतंत्र से करते हैं। मुझे होली और लोकतंत्र में पूरा भरोसा है। मुझे लगता है कि हमारे लोकतंत्र में रंग ही रंग हैं। इन्हें बरकरार रखा जाना चाहिए। होली और लोकतंत्र को कभी कोई ग्रहण नहीं लगना चाहिए। लेकिन ग्रहण है कि लगता है।
भारतीय लोकतंत्र को पहला ग्रहण कहते हैं 1975 में लगा था। इस ग्रहण से मुक्ति में 19 महीने का समय लगा था लेकिन अबकी ग्रहण लगे पूरे दस साल हो गए हैं ग्रहण हटने का नाम ही नहीं ले रहा उलटे दावा कर रहा है की वो 2047 तक पिंड नहीं छोड़ने वाला। ग्रहण के बारे में हमारी जानकारी बहुत ज्यादा नहीं है । बचपन में हमने देखा था कि ग्रहण के सूतक लगते ही मंदिरों के पट डाल दिए जाते थे। गर्भवती महिलाओं के पेट पर गेरू पोत दी जाती थी । पानी में तुलसी दल डाल दिया जाता था। लोग भोजन तक नहीं करते थे। लोकतंत्र को लगे ग्रहणकाल में ऐसा कुछ नहीं होता। लोकतंत्र इन टोटकों को नहीं मानता। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हमारा लोकतंत्र अब खुद एक टोटका बन चुका है। लोकतंत्र को भेड़ों की रेवड़ की भांति हांका जा रहा है।
बहरहाल मेरा तो यही कहना है कि होली के हुड़दंग से निजात मिलते ही आप इस साल अपने लिए अपने इलाके में ‘ होली पर्सन ‘ को ही चुने । क्योंकि यदि ‘ होली पर्सन ‘ न चुना तो भविष्य में सब कुछ ‘ अनहोली ‘ हो जाएगा। वैसे हमारे तमाम नेता ‘ होली पर्सन ‘ ही है। वे मंदिर-मंदिर,नगरी,नगरी जाकर होलीवर्क करने में खून-पसीना एक किये हुए हैं। कोई न्याय यात्रा पर उतारू है तो कोई अन्याय यात्रा पर। कोई अपने प्रतिद्वंदियों को चुन-चुनकर जेल के सींखचों के पीछे भेज रहा है तो कोई जेल जाकर भी जेल से ही सरकार चलने की जिद किये बैठा है। ये लोग नहीं जानते कि लोकतंत्र जिद और सनक से नहीं चलता। लोकतंत्र उदारता से चलता है । सामंजस्य से चलता है। अदावत से तो लोकतंत्र की तबियत खराब होती है।
इन दिनों पूरा देश होलीमय होने के साथ ही चुनावमय है। देश की गलियों में वोट-भिक्षु अपना कासा लिए घूम रहे हैं। भिच्छामि देहि ,, भिच्छामि देहि ‘ की आवाजें लगते हुए घूम रहे हैं। इनमें कितने लकीर के फकीर है और कितने फकीर की लकीर पर चलने वाले ये देखने की जरूरत है। कोशिश कीजिये कि देहलीज तक आने वाला कोई भी वोटभिक्षु निराश न हो । खाली हाथ न जाये। आप कुछ न कुछ दान अवश्य कीजिये । कासे में दान नहीं करना है तो मतदान केंद्र तक जाइये लेकिन जाइये जरूर। इस बार कम से कम 80 फीसदी मतदान तो होना ही चाहिए। लोकतंत्र को ग्रहण से मुक्त करने के लिए शत-प्रतिशत मतदान अनिवार्य भी है अपरिहार्य भी है।
लोकतंत्र में लोकसेवा के लिए कुछ ख़ास लोगों को मैदान में उतारा जाता है । हर दल ये काम करने में लगा है। रोज नई-नई फ़ेहरिस्तें जारी की जा रही है। किसी को टिकट मिल रहा है तो किसी का टिकट कट रहा है। माता जी को टिकट मिला तो बेटा जी का टिकट गया । बेटे को टिकिट मिला तो पिता जी के हाथ से कासा छीन लिया गया। इस मामले में राजा और रंक दोनों को मौक़ा दिया जा रहा है । किसी भी दल में उम्र कोई बाधा नहीं है। जिन लोगों के पैर कब्र में लटके हैं या जो अंतिम यात्रा पर जाने की तैयारी में लगे थे उन्हें भी टिकिट देकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए कहा जा रहा है। लोकतंत्र के चारों और दलदल ही दलदल है। दलदल में खेती करना है या इसे सुखाना है ,ये आप जानें।इस समय दरअसल गांधी जी भी पीठ फेरकर बैठे हुए है। लद्दाख में सोनम वांगचुक की कोई नहीं सुन रहा। तो आपको सूना जाये ये जरूरी नहीं। आज मै इस बारे में आपको कोई मशविरा देने वाला नहीं हूँ ,क्योंकि आखिर मै भी एक ‘ होली ‘ लेखक हूँ।
आप सभी को होली की हार्दिक बधाइयां और लोकतंत्र के पर्व में शामिल होने के लिए पेशगी शुभकामनाएं। पढ़ते -लिखते रहें और मुझे श्रद्धानुसार एक रूपये के हिसाब से दान करते रहें ,क्योंकि मेरे लिए न किसी ने इलेक्टोरल बांड खरीदे हैं और न मै किसी को उपकृत कर सकता हूँ।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com