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कॉर्पोरेट बस्तर के सेप्टिक टैंक में दफ्न ‘लोकतंत्र’

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आलेख : संजय पराते

यदि पत्रकारिता लोकतंत्र की जननी है या पत्रकार लोकतंत्र के चौथे स्तंभ हैं, तो यकीन मानिए, 3 जनवरी की रात वह बस्तर के बीजापुर में एक राज्य-पोषित ठेकेदार के सेप्टिक टैंक में दफ्न मिली। लोकतंत्र की इस मौत पर अब आप शोक सभाएं कर सकते हैं, श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

जी हां, हम बात उस नौजवान की कर रहे हैं, जिसकी पत्रकारिता उसकी मौत के बाद भी कब्र से खड़ी होकर कांग्रेस-भाजपा को कटघरे में खड़ी कर रही है। हम बात उस मुकेश चंद्राकर की कर रहे हैं, जिसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक पत्रकार के रूप में ही पहचानने से इंकार कर दिया। हम बात उस नौजवान पत्रकार की कर रहे हैं, जिसकी मौत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि पूरी दुनिया में भारत को ‘फ्लॉड डेमोक्रेसी’ का दर्जा क्यों मिला हुआ है। पूरी दुनिया जब नव वर्ष का स्वागत कर रही थी, इस आशा के साथ कि नया साल मानवता के लिए पिछले से कुछ बेहतर, और बहुत बेहतर होगा ; छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र के बीजापुर में पूरी खामोशी और योजनाबद्ध तरीके से नर-पिशाचों द्वारा मुकेश चंद्राकर के रूप में लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफ्न किया जा रहा था। ये वे नर पिशाच थे, जिन्हें ‘दैनिक भास्कर’ जैसा कॉरपोरेट मीडिया उनके कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए इस ब्रह्मांड के सबसे बड़े समाजसेवी, सामाजिक क्षेत्र, शिक्षा, उद्यमिता और महिला सशक्तिकरण के प्रणेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा था।

मुकेश चंद्राकर की हत्या ने बता दिया है कि क्रोनी कैपिटलिज़्म (परजीवी पूंजीवाद) ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर अडानी-अंबानी पैदा किए हैं, उसी तरह उसने स्थानीय स्तर पर भी जिन अडानियों-अंबानियों को पैदा किया है, उनमें से एक सुरेश चंद्राकर है। पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या का मुख्य आरोपी वह व्यक्ति है, जिसे कांग्रेस-भाजपा ने बस्तर की लूट को सहज और निर्बाध बनाने के लिए अपनी सत्ता की ताकत का सहारा देकर पैदा किया है। आदिवासी विरोधी और मानवाधिकार विरोधी राज्य-प्रायोजित सलवा जुडूम ने जिन अपराधियों को पाला-पोसा-पनपाया है, सुरेश चंद्राकर उनमें से एक हैं। कुछ महीने पहले बाप्पी रॉय और उसके साथियों को रेत माफियाओं के खिलाफ रिपोर्टिंग करने पर गांजा तस्करी में फंसाने की कोशिश हुई थी। इस मामले में भी हमने पी. विजय जैसे एक और नर पिशाच को देखा था, जो सलवा जुडूम की ही उपज था और इस जुडूम के (खल)नायक एसआरपी कल्लूरी से जिसकी घनिष्ठता किसी से छुपी हुई नहीं है। इसी रेत माफिया ने पत्रकार कमल शुक्ला पर जानलेवा हमला किया था, जिसके वीडियो फुटेज आज भी हवा में तैर रहे हैं। लेकिन किसी हमलावार पर आज तक फैसलाकुन कोई कार्यवाही नहीं हुई। इन अपराधियों के साथ तब के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और कांग्रेस के व्यक्तिगत और सांगठनिक संबंध आज भी कायम है। इन अपराधियों के इसी स्तर के संबंध अब भाजपा से भी बन चुके हैं। पूरे प्रदेश में ये अपराधी आज हत्यारे गिरोह में तब्दील हो चुके हैं। अब क्रोनी कैपिटलिज़्म अडानी-अंबानी पैदा करने वाली एक आर्थिक प्रक्रिया ही नहीं है, एक राजनैतिक प्रक्रिया भी है, जो लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफ्न करने की ताकत रखती है।

छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद पिछले 24 सालों में बस्तर में कई लाख करोड़ का खेल हो चुका है और यह सब विकास के नाम पर हुआ है। इसलिए 120 करोड़ का सड़क घोटाला कोई मायने नहीं रखता। बस्तर के विकास के लिए केंद्र से लेकर राज्य तक (चाहे किसी भी जगह सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की) और राजनेता से लेकर अधिकारी और ठेकेदार तक कमर कसे हुए हैं। बस्तर के विकास के लिए 6-लेनी सड़क चाहिए और सड़क बनाने के लिए फोर्स चाहिए। बस्तर के विकास के लिए नक्सल उन्मूलन की जरूरत है और इसके लिए फोर्स चाहिए। बस्तर के विकास के लिए संसाधनों का दोहन जरूरी है, इसके लिए कॉर्पोरेट चाहिए और इसके लिए भी फोर्स चाहिए। लेकिन बस्तर के विकास के लिए आदिवासी नहीं चाहिए, उनके लिए हॉस्पिटल, स्कूल, आंगनबाड़ी नहीं चाहिए। यदि विकास के नाम पर इन सबकी, दिखावे के लिए ही सही, कभी-कभार चिंता जताई जाएं, तो इसके लिए भी फोर्स चाहिए। सोशल मीडिया में अपनी टिप्पणी में पत्रकार सौमित्र रॉय ने ठीक ही लिखा है — “यह भयानक विकास है। अपराधियों की सत्ता का विकास। संघियों का विकास। सत्ता को तेल लगाने वालों का विकास और गरीब आदिवासियों की हक की बात करने वालों का विनाश।” ‘कॉर्पोरेट बस्तर’ की यही सच्चाई है। इसी सच्चाई को अपनी त्वरित टिप्पणी में माकपा नेता बादल सरोज ने कुछ यूं बयान किया है — “बस्तर सचमुच में एक जंक्शन बना हुआ है ; एक ऐसा जंक्शन जहां के सारे मार्ग बंद हैँ : माओवाद का हौवा दिखाकर लोकतंत्र की तरफ जाने वाला रास्ता ब्लॉक किया जा चुका है। कानून के राज की तरफ जाने वाली पटरियां उखाड़ी जा चुकी हैं। संविधान नाम की चिड़िया बस्तर से खदेड़ी जा चुकी है। अब सिर्फ एक तरफ की लाइन चालू है : आदिवासियों की लूट, उन पर अत्याचार, सरकारी संपदा की लूट और उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों का क़त्ल करने की छूट।”

यही सच्चाई है, जिसे कांग्रेस-भाजपा दोनों मिलकर दबाना-छुपाना चाहते हैं। मुकेश की हत्या के बाद कांग्रेस-भाजपा एक-दूसरे पर जो आरोप-प्रत्यारोप लगा रही है, वह इसी मुहिम का हिस्सा है। वरना कौन नहीं जानता कि जो ठेकेदार कल तक तिरंगा लपेटे थे, आज वे भगवा धारण किए हुए हैं। कांग्रेस या भाजपा का होने या न होने का एक झीना-सा अंतर जो बचा हुआ था, वह भी सलवा जुडूम के दौर में खत्म हो गया था। महेंद्र कर्मा तब के भाजपा मंत्रिमंडल के 16वें मंत्री ठीक उसी प्रकार गिने जाते थे, जिस प्रकार बृजमोहन अग्रवाल कांग्रेस मंत्रिमंडल के 16वें मंत्री गिने जाते थे। अब हर खादी के नीचे खाकी है। कुछ अपवाद जरूर है और वे सम्मान के योग्य तो हैं ही, लेकिन उनके पास सत्ता की ताकत नहीं है।

खादी के नीचे की यही खाकी है, जो इस सवाल को पूछने से रोकती है कि गंगालूर से लेकर मिरतुर तक जो सड़क बनाई गई थी, वह थी किसके लिए? आदिवासियों के लिए या कॉरपोरेटों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट को ढोने के लिए? इस सड़क को बनाने का अनुबंध 16 टुकड़ों में बांटा गया था, फिर भी सभी टुकड़े सुरेश चंद्राकर की जेब में ही क्यों पहुंचे? जब एक किमी. सड़क निर्माण की औसत लागत लगभग एक करोड़ रुपए आती है, तो इस सड़क की लागत 56 करोड़ से बढ़कर 120 करोड़ कैसे और किनकी कृपा से हो गई? सड़क बनने से पहले ही पूरी राशि का भुगतान हो गया, तो इस 120 करोड़ के कितने टुकड़े हुए और किस-किसकी जेब में पहुंचे? जब एक सड़क के लिए पानी की तरह पैसे बह रहे हैं, तो सड़क को भी पहली ही बारिश में बहना ही था। इसमें किसी ठेकेदार का दोष कैसे हो सकता है! लेकिन यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि इस हत्यारे ठेकेदार को तीन सशस्त्र जवानों का सुरक्षा चक्र क्यों और कैसे उपलब्ध कराया गया है? क्या यह सुरक्षा चक्र पत्रकारों की हत्या करने और लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफनाने के पुनीत कार्य के लिए दिया गया है?

सलवा जुडूम ने समाज के अंदर अपराधियों की फौज को तैयार किया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे प्रतिबंधित करने के बाद भी आज भी यह अलग अलग रूपों में यह चल रहा है। सलवा जुडूम में जो एसपीओ बनाए गए थे, वे सभी पूर्व-नक्सली थे या नक्सली गतिविधियों से उनका घनिष्ठ संबंध रहा है। सलवा जुडूम ने नक्सलियों से जुड़े असामाजिक तत्वों द्वारा लूटपाट के अवैध कामों को वैधता देने का काम भी किया है। सुरेश चंद्राकर भी एसपीओ था और यह तय है कि आज भी नक्सलियों से उसके संबंध हैं। बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में इस संबंध के बिना कथित विकास का कोई काम नहीं हो सकता। यह भूतपूर्व नक्सली और वर्तमान सलवा जुडूम की अवैध संतान आज पूरे बस्तर को रौंदने की ताकत रखता है, तो कांग्रेस और भाजपा दोनों अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती।

यह आम चर्चा है कि बस्तर में सामने ठेकेदार होता है, पीछे कोई अधिकारी या राजनेता होता है। तो जिस सरकार और उसके प्रशासन को इस भ्रष्टाचार को नियंत्रित करना था, वही इस भ्रष्टाचार का जनक है। क्रोनी कैपिटलिज़्म में सरकार नाम की केवल छाया रह जाती है, जो जनता को भरमाती रहती है। असल नियंता, असल सूत्रधार तो सुरेश चंद्राकर जैसे हत्यारों के गिरोह होते हैं, जो आदिवासियों पर गोलियां भी बरसाते हैं, उनके घर-गांव जलाते हैं, बलात्कार करते हैं, मासूमों को जेल भी भेजते हैं और इसके खिलाफ उठने वाली हर लोकतांत्रिक आवाज को सेप्टिक टैंक में दफनाने की बर्बरता भी दिखाते हैं, क्योंकि सत्ता, कॉरपोरेट पूंजी की गुलाम बन जाती है और पूरे तंत्र को अपने हाथों में नचाने की ताकत समेट लेती है।

सबको मालूम है कि बीजापुर के एसपी (पुलिस अधीक्षक) का सुरेश चंद्राकर से क्या संबंध है और हर किसी को यह लग रहा है कि मुकेश की हत्या के तार उससे भी जुड़े हैं, क्योंकि जिस सड़क घोटाले को मुकेश ने उजागर किया है, उस ठेके में सुरेश चंद्राकर का ही नहीं, बीजापुर के एसपी सहित कई नेताओं-अधिकारियों के हित जुड़े हैं। नक्सल इलाकों में हर निर्माण कार्य की देखरेख जिला प्रशासन द्वारा की जाती है। ऐसे में महीनों और सालों तक चलने वाले सड़क निर्माण के काम में गिट्टी की जगह बिछाई जाने वाली मिट्टी किसी भी जिम्मेदार की नजर में कैसे नहीं आई? अब इस घोटाले से प्रशासन के अधिकारी कैसे बरी हो सकते हैं? क्या इनमें से किसी भी घोटालेबाज को सरकार नामक संस्था ने आज तक छुआ है? पुलिस द्वारा सेप्टिक टैंक की खुदाई में आनाकानी करना अकारण नहीं था। गुमशुदगी की रिपोर्ट के बाद भी एसपी और पुलिस की निष्क्रियता अकारण नहीं थी। नर पिशाच सुरेश चंद्राकर का पुलिस की नाक के नीचे से आसानी से फरार होना क्या बताता है?

इस मामले में भाजपा सरकार द्वारा एसआईटी के गठन का मतलब है, हत्यारों को बचाने के लिए मामले को ही कमजोर करना। एक ऐसी ही एसआईटी तब गठित हुई थी, जब भाजपा के सत्ता में आते ही संघी गिरोह से जुड़े गौ-गुंडों ने उत्तरप्रदेश से आए तीन मुस्लिम पशुपालकों की आरंग के पास महानदी पुल पर हत्या कर दी थी। बाद में इस एसआईटी ने, सरकार के स्पष्ट इशारे पर, हास्यास्पद निष्कर्ष पेश किया था कि तीनों ने आत्महत्या की है। गौ-गुंडों को बरी कर दिया गया था। फिर इस एसआईटी से क्या उम्मीद की जा सकती है?

मुकेश हत्याकांड के बाद पुलिस अधीक्षक का बयान है — “सुरेश चंद्राकर जगदलपुर में था, जब उसे इस घटना की जानकारी दी गई।” इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी के बारे में कितने मासूम हैं बेचारे एसपी! पत्रकार सुरेश महापात्र ने ठीक ही सवाल किया है : “मुकेश की हत्या के मुख्य साजिशकर्ता के बारे में पुलिस का यह बयान क्या साबित करता है?” तो इस एसपी के बारे में, जिसकी गतिविधियां बताती है कि इस हत्या में उसका भी हाथ हो सकता है, एएसपी की एसआईटी क्या कर लेगी? क्या यह एसआईटी बीजापुर एसपी की कारगुज़ारियों को उजागर करेगी? इसलिए एक निष्पक्ष जांच की जरूरत है, जो इस पूरे माफिया गिरोह और उनके राजनैतिक आकाओं को बेनकाब करें। ऐसी जांच सीबीआई या हाई कोर्ट की निगरानी में ही हो सकती है। लेकिन ऐसी जांच का साहस किसी कॉर्पोरेटपरस्त सरकार में कैसे हो सकता है?

मुकेश चंद्राकर तंत्र की इसी पाशविकता के खिलाफ लड़ रहे थे। उसने हमेशा बस्तर में माओवादियों को कुचलने के नाम पर फर्जी मामलों में आदिवासियों की गिरफ्तारियों से लेकर फर्जी मुठभेड़ तक के मामलों को, आदिवासियों के मानवाधिकारों के मुद्दों को और प्रदेश की प्राकृतिक संपदा को कॉरपोरेटों को सौंपे जाने के लिए की जा रही साजिशों को प्रमुखता से उठाया था। उसकी पत्रकारिता में राजनीति का वह पक्ष था, जो आम जनता के अधिकारों, उसके संघर्षों, उसके दुख-दर्दों, उसकी आशा-आकांक्षाओं को उकेरता था। उसकी रिपोर्टिंग में बस्तर की संस्कृति और उसका जन जीवन गतिमान दृश्य की तरह सामने आते है। बादल सरोज के शब्दों में कहें, तो वह एक साथ अपने लिए और अपने साथियों के लिए खाना रांध सकते थे और अपने लैपटॉप पर बैठकर दिन भर की खबरों को पका सकते थे। रांधने और पकाने की कला में बहुत कम पत्रकार सिद्धहस्त होते हैं। यह कला मुकेश में थी, जिसे उन्होंने आदिवासी दूरस्थ अंचलों में उनकी झोपड़ियों में सोकर, नक्सली कैंपों में रातें बिताकर, साप्ताहिक ग्रामीण बाजारों में आदिवासियों से बतियाकर हासिल की थी। इसलिए उनकी रिपोर्टिंग उनके रांधे खाने की तरह दिमाग के लिए सुपाच्य और स्वादिष्ट होती थी। वे पुल थे नक्सलियों और प्रशासन के बीच, जिस पर आदिवासी जनता सहजता से चहलकदमी कर लेती थी। वे आदिवासियों पर विश्वास करते थे, आदिवासी उन पर विश्वास करते थे। यही उसे अपनी पत्रकारिता के लिए आत्मबल देता था। यदि मुकेश जैसे छोटे भाई और कमल शुक्ला जैसे आत्मीय मित्र नहीं होते, तो सिलगेर सहित बस्तर के अंदरूनी इलाकों में मेरा जाना, वहां के संघर्षरत आदिवासियों से अनेकों बार मिलना संभव नहीं होता। यह मुकेश की खूबी थी और कमल का साहस कि हमारी पहचान संघर्षों की जगहों पर पहुंचकर ही प्रशासन के लिए उजागर हो पाती है। इस समय भी, जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं, कमल शुक्ला मेरी सूचनाओं का भरोसेमंद स्रोत हैं और किसी ट्रक में बैठकर यात्रा कर रहे हैं।

जिस सरकार का काम है पत्रकारों को सुरक्षा देना, उस सरकार का सुरक्षा चक्र यदि हत्यारों के पास में है, तो हम अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे देश और छत्तीसगढ़ में लोकतंत्र की स्थिति कितनी बदतर है। छत्तीसगढ़ निर्माण के 24 साल बाद भी पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कांग्रेस-भाजपा एक प्रभावशाली कानून बनाने और उसे लागू करने में विफल रही है, तो इसलिए कि न तो कांग्रेस की, और न ही भाजपा की पत्रकारों को सुरक्षा देने में कोई दिलचस्पी रही है। एक विपक्षी पार्टी के रूप में उन्होंने केवल पत्रकारों को भरमाने का और सत्ता में चढ़कर गोदी-भोंपू मीडिया पनपाने ही काम किया है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारों पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं।

‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ के अनुसार, 2005-24 के बीच जिन देशों में सबसे ज्यादा पत्रकार मारे गए हैं, उनमें भारत का स्थान 7वां है। 2014 से अब तक हमारे देश में 28 पत्रकार मारे गए हैं। 2025 में हत्यारों का पहला शिकार मुकेश चंद्राकर बना। न्यूयॉर्क स्थित एक संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में मई 2019 से अगस्त 2021 तक मोदी राज के 28 महीनों में पत्रकारों पर 256 हमले हुए हैं, याने हर महीने 9 से ज्यादा और हर तीन दिनों में कम से कम एक। पिछले 10 सालों में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के पैमाने पर भारत 35 अंक नीचे गिर चुका है और आज वैश्विक प्रेस सूचकांक में हमारा स्थान 180 देशों में 142वें से फिसलकर 159वें पर आ गया है।

अमेरिकी रिपोर्टर वाल्टर लीलैंड के अनुसार : “स्वतंत्र पत्रकारिता लोकतंत्र की पहली शर्त है। बिना इसके सिर्फ किताबी लोकतंत्र बनाए जाते हैं, जो अक्सर चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा मिटा दिए जाते हैं और लोकतंत्र बस नाम के रूप में ही बच जाता है।” भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता की जगह अब उस कॉरपोरेट मीडिया ने ले ली है, जिसे अक्सर गोदी मीडिया के रूप में पहचाना जाता है। सलवा जुडूम और क्रोनी कैपिटलिज़्म के जरिए जिस कॉर्पोरेट बस्तर को विकसित करने की कोशिश की जा रही है, वह लोकतंत्र को सेप्टिक टैंक में दफनाकर ही पनप सकता है।

लेकिन बस्तर की जन पक्षधर पत्रकारिता और उसकी रंग-बिरंगी छवियां मुकेश-युकेश भाईयों, कमल शुक्ला, बाप्पी रॉय, रितेश पांडे, रानू तिवारी, मालिनी सुब्रमण्यम आदि से मिलकर बनती है, जिसे कुचलकर नहीं मारा जा सकता। मुकेश की हत्या के बाद भी उसकी पत्रकारिता कॉर्पोरेट तंत्र, उसकी मीडिया और नर-पिशाचों के सामने तनकर खड़ी है।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। )
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