इस अभियान के जरिए कांग्रेस ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं कि वह दलित समाज के दिल और दिमाग में एक बार फिर जगह बनाना चाहती है। आजादी के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस दलितों के लिए सबसे बड़ा सियासी मंच हुआ करती थी, लेकिन अस्सी के दशक में बसपा के उदय के बाद यह समीकरण पूरी तरह बदल गया। उत्तर भारत के कई राज्यों में दलित वोट कांग्रेस से खिसककर बसपा की झोली में चले गए। वहीं, पिछले कुछ दशकों में बीजेपी ने भी दलितों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ने में सफलता हासिल की। 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने आरक्षण और संविधान जैसे मुद्दों के जरिए दलित समाज के बीच नई उम्मीदें जगाई थीं, और अब वह इस विश्वास को और मजबूत करने के लिए मैदान में उतर आई है।
कांग्रेस का यह कदम बसपा की राजनीति से प्रेरित नजर आता है। जिस तरह से बसपा ने नीला झंडा, हाथी का निशान और ‘जय भीम’ के नारों से अपनी पहचान बनाई थी, उसी राह पर अब कांग्रेस भी चलती दिख रही है। कांग्रेस नेता, जिनमें राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा शामिल हैं, नीला अंगवस्त्र धारण कर मंच साझा कर रहे हैं और डॉ. भीमराव आंबेडकर की तस्वीरें मंच की शोभा बढ़ा रही हैं। जय भीम का नारा, जो कभी बसपा की पहचान हुआ करता था, अब कांग्रेस की सभाओं में गूंज रहा है।
डॉ. आंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक विरासत आज केवल दलितों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत की राजनीति का केंद्र बन चुकी है। दलित समाज के लिए आंबेडकर एक प्रेरणा हैं, एक मसीहा हैं, और कांग्रेस इसे भलीभांति समझती है। यही वजह है कि आंबेडकर के नाम को लेकर कांग्रेस ने एक ठोस रणनीति बनाई है। बीजेपी नेता अमित शाह द्वारा आंबेडकर पर की गई टिप्पणी के बाद कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाकर बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने इस मामले को लेकर न केवल बीजेपी पर निशाना साधा, बल्कि दलित समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जाहिर की।
कांग्रेस का यह अभियान केवल एक राजनीतिक योजना नहीं है, बल्कि एक विचारधारा को फिर से जीवित करने की कोशिश है। यह अभियान उन दलितों तक पहुंचने का प्रयास है, जो मायावती के नेतृत्व में बसपा से निराश होकर अब सपा या बीजेपी के साथ जुड़ गए हैं। कांग्रेस का मानना है कि बसपा की कमजोर होती पकड़ के बाद दलित वोटर्स स्थायी रूप से किसी एक पार्टी से नहीं जुड़े हैं। ऐसे में कांग्रेस के पास मौका है कि वह अपने पुराने कोर वोट बैंक को वापस हासिल कर सके।
2024 के लोकसभा चुनावों ने कांग्रेस के इस विश्वास को और मजबूत किया है। इन चुनावों में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने दलित बहुल क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रदर्शन किया। बीजेपी, जिसने 2014 और 2019 में दलित वोटों पर बड़ा कब्जा जमाया था, इस बार कमजोर पड़ी। सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार, 2024 में बीजेपी को केवल 31% दलित वोट मिले, जो 2019 के मुकाबले 3% कम थे। वहीं, कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने दलित वोटों में बड़ा हिस्सा पाया। इन चुनावों में दलित बहुल 156 लोकसभा सीटों में से 93 सीटें विपक्षी गठबंधन के खाते में गईं।
देश में दलित समाज की जनसंख्या का महत्व किसी से छिपा नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार, दलितों की आबादी 17% है, जो 20 करोड़ से ज्यादा है। 543 लोकसभा सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन दलितों का सियासी प्रभाव 150 से अधिक सीटों पर देखा जाता है। ऐसे में दलित वोट किसी भी पार्टी के लिए सत्ता तक पहुंचने की कुंजी हो सकते हैं।
कांग्रेस के लिए यह समय निर्णायक है। दलित समाज के बीच अपनी खोई हुई जगह को पाने के लिए उसने पूरी ताकत झोंक दी है। इस अभियान के तहत न केवल बड़ी रैलियां और जनसभाएं आयोजित की जा रही हैं, बल्कि स्थानीय स्तर पर भी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। 28 जनवरी को महू में होने वाला कार्यक्रम इस अभियान का अहम हिस्सा है, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और अन्य प्रमुख नेता शामिल होंगे।
यह साफ है कि कांग्रेस दलितों को लुभाने के लिए पूरी तरह से बसपा की शैली को अपना रही है। इसके तहत पार्टी ने डॉ. आंबेडकर को अपने एजेंडे का केंद्र बनाया है और उनके नाम पर दलित समाज से संवाद स्थापित करने का प्रयास कर रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस का यह प्रयास कितना सफल होता है। लेकिन एक बात तय है, देश के बदलते सियासी परिदृश्य में दलित समाज के लिए कांग्रेस की यह कवायद एक नई सियासी दिशा तय कर सकती है।