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मुद्दे की बात : आरएसएस चीफ की नसीहतें मानेगी बीजेपी ?

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संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इशारों में कसे मोदी और भाजपा पर तंज

केंद्र में जोड़तोड़ कर भाजपा ने सरकार बना ली और पीएम नरेंद्र मोदी समेत सभी मंत्रियों ने मंगलवार को अपने विभागों का कार्यभार संभाल लिया। इसी बीच भारतीय जनता पार्टी के मातृ-संगठन यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया सामने आई। आरएसएस के चीफ यानि सरसंघचालक मोहन भागवत ने केंद्र सरकार को संबोधित करते वर्तमान राजनीति पर विस्तार से बिंदुवार चर्चा की। कुल मिलाकर उनके संबोधन में पीएम मोदी और बड़े भाजपा नेताओं पर इशारों में ही सही, लेकिन नसीहत के साथ करारे तंज देखने को मिले। अब अहम सवाल यह है कि क्या बीजेपी अपने मातृ-संगठन के मुखिया की नसीहतें मानेगी ? यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि चाहे खुद भी चाहे तो बीजेपी वह सब नहीं कर सकती जो संघ चाहता है। दरअसल राजनीति, वो भी गठबंधन वाले दौर में करते हुए सत्ता चलाना कोई धर्म-कर्म नहीं है। संघ में अनुशासन का पालन कराने और सत्ता संचालन करते बीजेपी का सहयोगियों और विपक्ष के साथ आदर्श भूमिका निभाने में जमीन-आसमान का अंतर है। इसी अंतर के चलते लोकसभा चुनाव में बीजेपी-संघ के मतभेद उजागर भी हुए। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो माता-पिता की टोका-टाकी तंग आ चुके किसी किशोरावस्था बच्चे की तरह दोटूक कह भी दिया था कि अब बीजेपी को संघ की जरुरत नहीं।
अब जरा संघ के चीफ मोहन भागवत के ताजा बयान पर गौर करें, जो उन्होंने नागपुर में संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग के समापन में दिया। यहां भागवत ने चुनाव, राजनीति और राजनीतिक दलों के रवैये पर अपने संबोधन में खुलकर चर्चा की। उन्होंने कहा कि जो मर्यादा का पालन कर कार्य करता है, गर्व करता है, किन्तु लिप्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों मे सेवक कहलाने का अधिकारी है। जब चुनाव होता है तो मुकाबला जरूरी होता है। इस दौरान दूसरों को पीछे धकेलना भी होता है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है। यह मुकाबला झूठ पर आधारित नहीं होना चाहिए। भागवत ने मणिपुर की स्थिति पर कहा कि मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है। बीते दस साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां गन कल्चर बढ़ गया। जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाएं। लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद बाहर का माहौल अलग है। नई सरकार भी बन गई है। ऐसा क्यों हुआ, संघ को इससे मतलब नहीं है। संघ हर चुनाव में जनमत को परिष्कृत करने का काम करता है, इस बार भी किया, लेकिन नतीजों के विश्लेषण में नहीं उलझता। संसद में दो पक्ष जरूरी हैं। देश चलाने के लिए सहमति जरूरी है। संसद में सहमति से निर्णय लेने के लिए बहुमत का प्रयास किया जाता है, लेकिन हर स्थिति में दोनों पक्ष को मर्यादा का ध्यान रखना होता है। संसद में किसी प्रश्न के दोनों पहलू सामने आएं, इसलिए ऐसी व्यवस्था है। विपक्ष को विरोधी पक्ष की जगह प्रतिपक्ष कहना चाहिए।
खैर, आदर्शवादी नजरिए से देखें तो संघ-प्रमुख भागवत की नसीहतें सुनने में बेहद अच्छी हैं, इन पर अमल भी होना चाहिए। अगर राजनीतिक-दृष्टिकोण से देखें तो इन नसीहतों में तमाम किंतु-परंतु हैं, भले ही संघ द्वारा तैयार बीजेपी भी चाहे तो वह ऐसा कतई नहीं कर सकती। दरअसल चाल, चरित्र और चेहरा बीजेपी की विशुद्ध जुमलेबाजी थी। जमीनी हकीकत यह है कि वह दूसरे राजनीतिक दलों से किसी मामले में अलग नहीं है। खासकर गठबंधन की राजनीति करते हुए सत्ता कब्जाने के मामले में तो भाजपा विपक्षी दलों से कई कदम आगे चली गई।
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