पांच माह बाद सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष फिर जनता की अदालत में
चंडीगढ़ 5 फरवरी। हरियाणा में विधानसभा चुनाव के पांच माह बाद अब स्थानीय निकाय चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ ही कांग्रेस के लिए भी यह अहम सियासी-इम्तिहान हैं।
भाजपा को सरकार की लोकप्रियता साबित करनी है। साथ ही यह भी बताना है कि विधानसभा चुनाव में जो जलवा उसने दिखाया था, वह अभी बरकरार है। दूसरी तरफ बिना संगठन, बिना विपक्ष के नेता, बिखरी हुई बदहाल कांग्रेस है। बाकी दलों के लिए तो और भी मुश्किल मुकाबला है। एक बार फिर यह मतदाताओं के विवेक की भी परीक्षा है। जिन 41 निकायों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर में भाजपा ही काबिज रही है। आमतौर पर रवायत यही रही है कि जनता सत्ता के साथ जाती है।
अभी सरकार बने साढ़े तीन माह हुए हैं। सरकार व मुख्यमंत्री के सामने कोई चुनौती नहीं है। इसलिए इस बार भी यह माना जा रहा है कि भाजपा को सत्ता में होने का पूरा फायदा मिलना है। फिर भी भाजपा को ज्यादा से ज्यादा सीटों पर काबिज होना है, इसलिए उसका मुकाबला किसी और से नहीं, अपने से ही है। अपने पिछले चुनावी प्रदर्शन से बेहतर करना है। कुछ गलतियों से हिट-विकेट होने से बची तो भाजपा के लिए यह मैच जीतना भी आसान है।
हाईकमान की सुस्ती से हरियाणा में कांग्रेस बुरी स्थिति में है। दस साल से संगठन नहीं है। और तो और विधानसभा में विपक्ष का नेता तक नहीं चुना जा सका है। नेतृत्व को लेकर असमंजस बने रहने से भूपेंद्र सिंह हुड्डा ज्यादा सक्रिय नहीं लग रहे और न ही उनका विरोधी गुट कुछ करने की स्थिति में है। ऐसे में जमीनी स्तर का कार्यकर्ता बिल्कुल निष्क्रिय है। देखना यह होगा कि कांग्रेस इस मैच को पूरी ताकत से खेलेगी या फिर वॉकओवर दे देगी। आम आदमी पार्टी की दशा-दिशा दिल्ली चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगी कि वह पार्टी सिंबल पर लड़ती है या नहीं।
जननायक जनता पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल बहुत कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं रह गई हैं। शहरों की सरकार चुनने के लिए इम्तिहान मतदाताओं का भी है कि वे अपने रोजमर्रा की दिक्कतों, समस्याओं, मुद्दों के समाधान के लिए किसे चुनते हैं। तमाम सियासी गुणा-भाग के बीच सबसे जरूरी यह होगा कि वे स्वच्छ छवि वाले उन लोगों को चुनें जो विकास करवा सकें। यह चुनाव हर वार्ड, मोहल्ले में गर्माहट लाएगा।
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