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कांग्रेस राज में बिट्टू के दबे अरमान भाजपा में आकर मोदी-कैबिनेट में मंत्री बन हुए पूरे

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भले ही कैबिनेट, स्वतंत्र प्रभार वाला दर्जा नहीं मिला, लेकिन हार कर भी राज्यमंत्री कैसे बने रवनीत बिट्टू

नदीम अंसारी
लुधियाना 10 जून। केंद्र में तीसरी बार मोदी सरकार बन गई, उसमें 72 मंत्री भी शामिल हो गए। मोदी सरकार के इस कुनबे में लुधियाना से लोकसभा चुनाव लड़कर हारे पूर्व सांसद रवनीत सिंह बिट्टू को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। बेशक वह कैबिनेट मंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्रियों के दर्जे में नहीं रहेंगे, लेकिन उनको राज्यमंत्री की सूची में तो जगह मिल ही गई। पोर्टफोलिया के मुताबिक तकनीकी तौर पर उनकी रिपोर्टिंग सीधे प्रधानमंत्री की बजाए संबंधित विभाग के कैबिनेट मंत्री को रहा करेगी।
अब आम लोगों के जहन में यह सवाल जरुर कौंध रहा है कि आखिर बिट्टू यह लोस चुनाव हारकर भी मंत्रिमंडल में कैसे ले लिए गए ? अगर संवैधानिक तौर पर देखें तो यह कोई नई बात नहीं है। डॉ.मनमोहन तो लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य न होने के बावजूद सीधे पीएम बने थे। संवैधानिक-व्यवस्था के तहत ही बाद में उनको राज्यसभा में भेज दिया गया था। कमोबेश उसी तर्ज पर बिट्टू के लिए भी संभावित राज्यसभा सीट हरियाणा में तैयार है। वैसे भी बीजेपी और उसके सहयोगी दल कई राज्यों में सत्तारुढ़ हैं। जो बिट्टू जैसे नेताओं को एडजस्ट कर ही लेंगे।
खैर, बात करें बिट्टू को मंत्री बनाने के राजनीतिक कारणों की तो वह बहुत स्पष्ट हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से ही बीजेपी पंजाब में ‘सर्जिकल-स्ट्राइक’ चला रही थी। मेन-टारगेट कांग्रेस थी, लिहाजा कैप्टन अमरिंदर सिंह और सुनील जाखड़ समेत तमाम छोटे-बड़े नेता लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हुए। उनमें शुमार बिट्टू भी खास रहे, क्योंकि वह भूतपूर्व सीएम बेअंत सिंह के पोते हैं। बड़े सियासी-परिवार का चर्चित चेहरा होने के अलावा युवा नेताओं में शुमार रहहे हैं। फिर लगातार तीन बार सांसद भी बने। भाजपा के राष्ट्रवाद वाले नारे को बुलंद करने के लिए भी मुफीद हैं। अकसर खालिस्तान समर्थकों के खिलाफ बोलते रहते हैं।
रही बात किसानों की तो उनके आंदोलन के चलते ही पंजाब में बीजेपी लोस चुनाव के दौरान परेशान रही। लुधियाना से भाजपा प्रत्याशी बिट्टू ने किसानों से सीधे ‘पंगा’ लिया। पार्टी वर्करों को उनके तेवर रास आए, भले ही वह चुनाव हार गए। बाकी, भावी-योजना के मुताबिक बीजेपी के पास अगले विस चुनाव में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई बड़ा चेहरा नहीं है। खासकर आधी से ज्यादा सिख आबादी के बीच से कैप्टन ऐसा चेहरा थे, लेकिन उम्र के इस पायदान पर कमोबेश रिटायरमेंट-स्टेज पर हैं। अहम पहलू यह भी है कि बिट्टू इस चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार राजा वड़िंग से हारकर दूसरे नंबर पर रहने में कामयाब हुए और हार-जीत का अंतर भी बहुत ज्यादा नहीं रहा। खास बात यह भी है कि मनमोहन सरकार में स्थानीय सांसद मनीष तिवाड़ी को स्वतंत्र प्रभार वाले कैबिनेट मंत्री बना कांग्रेस बड़ी सियासी-लकीर खींच गई थी। लिहाजा पंजाब की औद्योगिक-राजधानी लुधियाना को नजरंदाज करना बीजेपी को सियासी-नुकसान पहुंचाता।
कुल मिलाकर बिट्टू कई नजरिए से बीजेपी के लिए एक भावी जननेता साबित हो सकता हैं। जिसकी कमी भाजपा को पंजाब में वक्त से खल रही है। बिट्टू उस खाली जगह को इसलिए भी भर सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस में रहते युवा-संगठन की कमान संभालते हुए उन्होंने पूरे पंजाब में पहचान तो बना ही ली थी। फिर दो लोकसभा क्षेत्रों से तीन चुनाव जीते तो राजनीतिक हल्कों में अपना कद और बढ़ाया। बाकी, पंजाब में इस बार अकेले लोस चुनाव लड़कर भी बीजेपी ने अपना वोट-प्रतिशत एकाएक बढ़ा लिया है। अब सियासी-फसल पकती नजर आ रही है और भाजपा को उसकी निगरानी करने वाले एक अदद परिपक्व होते नेता की जरुरत है। इस कमी को बिट्टू पूरी करते नजर आए, लिहाजा उनको मोदी-मंत्रालय में शामिल किया गया। अब ऐसा होने से उनकी नई सियासी-पारी शुरु हो गई है, ऐसा भी जानकार मान रहे हैं।
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