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भक्त कबीर दास

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दमनजीत सिंह

मध्यकाल में जब संतसाहित्य का उदय हुआ, उस समय उत्तर भारत की सामाजिक एवं राजनीति स्थिति अत्यंत दयनीय एवं अव्यवस्थित थी। दिल्ली का शासन तैमूर के आक्रमणों को झेल रहा था, तुगलक, सैयद एवं लोधी वशंजों द्वारा राज्य विस्तार लालसा, हिंसा, छल-कपट और जबरन धर्म परिवर्तन के कारण जनमानस विक्षुब्धता, अकारण पीड़ा और नैराश्य जीवन जीने को मजबूर था। ऐसे समय में कबीर जी का जन्म ज्येष्ठ सुदी 15वीं विक्रमी संवत् 1455 को बनारस (काशी) नगर में एक विधवा ब्राह्मण महिला से हुआ था, जिसने उन्हें लोक लज्जावश लहरतारा तालाब में फैंक दिया था। मुस्लिम जुलाहा परिवार अली वीरू नामक दंपत्ति द्वारा पाले गये भक्त कबीर का संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। काशी के धार्मिक एवं संस्कृति के विद्वानों का प्रमुख स्थान होने के कारण भक्त कबीरजी साधु-संतों की संगत कर विचार-विमर्श से अच्छे प्रगाढ़ ज्ञाता, प्रचारक एवं आलोचक बन गये। गृहस्थ धर्म का पालन करते हुये भक्त कबीरजी का विवाह मुदृभाषी एवं सेवाभावी लोईजी नामक महिला से हुआ, जिससे आपके परिवार में एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम कमाल रखा गया। भक्त कबीरजी ने ‘हरि को भजे सो हरि को होई…’ के अनुरूप ब्राह्मण सम्प्रदाय के भक्त रामानन्दजी को अपना गुरु मानकर ज्ञानार्जित किया। यद्यपि भक्त कबीरजी जुलाहा जाति के थे। पर भक्त रामानंदजी ने राम नाम के जिस अलौकिक बीज को बोया था, भक्त कबीरजी ने उसे ‘प्रेम न पूछे जात’ कहकर अविरल आध्यात्मिक धारा के साथ निरंतर खींचा। आदि श्री गुरुग्रंथ साहिबजी जो आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीयता के प्रणेता हैं, में भक्त कबीरजी की 540 वाणियां (शब्द) गुरुमत विचारधारा के अनुरूप दर्ज हैं, जो 30 हिन्दू भक्तों एवं मुस्लिम की भक्त माला में सर्वाधिक हैं। भक्त कबीरजी सत्य के पुजारी थे, जो किसी अन्य आकर्षण अथवा मोहमाया से दूर ही रहे, उन्होंने तो ईश्वर को पाकर सब कुछ समर्पित भावना से ब्रह्मï में समावेश कर दिया ‘कबीर मेरा मुझमें किछु नहीं जो किछु है सो तेरा, तेरा तुझ कऊ सउपते किआ लागै मेरा।

 

कबीर जी ने जनमानस में जनजागरण एवं प्रेरणा की भाषा में मानवतावादी, विशुद्धतावादी, आदर्शवादी, पाखंड एवं साम्प्रदायिकता विरोधी धार्मिक आंदोलन को चलाया। राजनैतिक असंतोष के साथ-साथ सामाजिक एवं नैतिक अवमूल्यन शासक वर्ग की ऐश्वर्यमयी विलासिता, साम्प्रदायिक विद्वेष, सांस्कृतिक विभेदनकारी शक्तियों में संत वाणी को एक उत्प्रेरक पृष्ठïभूमि प्रदान की थी, जो कबीरजी के शब्दों में उच्चारित है- अवलि अलह नूरू उपाओ कुदरत के सभ बंदे, एक नूर ते सभी जगु उपजिआ कउन भले को मंदे।

 

संत साहित्य केवल कागद की लेखी पर आधारित न होकर आखन देखी अर्थात व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित है, जहां निगम, अगम पुराणादि पर विशेष बल न देते हुये कथ्य को अधिक ग्राहय, प्रभावी, प्रेषणीय, मनभावन तथा सशक्त बनाने की दृष्टि से प्राचीन धार्मिक सामाजिक मान्यताओं एवं परंपराओं का भी सहारा लिया जाकर सगुण-निर्गुण का नवीन एवं विचित्र सम्मिश्रिण प्रस्तुत किया गया। सगुण का सहारा निर्गुण को स्पष्ट करने हेतु ही लिया गया है, जबकि दार्शनिक आधार तो वस्तुत: निर्गुण रूप ही है।

 

ज्ञानाश्रयी भक्त कबीरजी ने सत् रूपी परम-तत्व का अनुभव करते हुये जीवन में पवित्रता, ईश्वर मिलन, आचरण की शुद्धता तथा क्रोध लोभ, मोह, अहंकार से मुक्ति के आदर्श सिद्धांतों को प्रमुखता प्रदान की है। जहां मानव धर्म का पालन करते हुये न कोई जात-पात का भेदभाव है और न ही कर्मकांड का बंधन रहता है। इसी कारण मध्यकाल के संतों-साधकों में उनका उच्च स्थान रहा है। उनकी काव्य रचना आत्मसमर्पण की भावना से ओत-प्रोत है, जहां सहजता, उदारता, सरलता, आत्मसंतोष, सहनशीलता निस्पृद (लोभ-लालच रहित) के सिद्धांत विद्यमान हैं। साधनावृत्ति, आचरण शुद्धता और उत्कृष्ठ जीवनशैली के कारण कबीरजी पढ़े-लिखे न होकर भी पूर्ण आत्मसमर्पित थे, जिनका ब्रह्म निराकार निरंजन सर्वव्यापक निर्गुण अरूप और रूप विधान से परे है। संघर्षमयी जीवन के कारण उनकी आलोचना एवं उपदेश पूर्ण रूप से तथ्यों एवं प्रमाणों पर आधारित होते थे, क्योंकि वे स्पष्टवादी और क्रांतिकारी नायक थे। धार्मिक, सामाजिक प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने केवल दिशा-निर्देश ही प्रदान नहीं किये अपितु व्यवहारिक जीवन में स्वयं भी वही मार्ग अपनाया, भूखे भगति न कीजै, यह माला अपनी लीजै।

 

समाज उस समय यह धारणा बना चुका था कि काशी में मृत्यु होने पर मुक्ति मिल जाती है तथा मगहर नामक स्थान पर मृत्यु से मुक्ति नहीं मिलती। इस अवधारणा का खंडन करते हुये देहांत से कुछ समय पूर्व वे मगहर स्थान पर जाकर बस गये और यहीं पर ही विक्रमी संवत् 1533 को शरीर त्यागकर ब्रह्मलीन हो गये। काशी में भक्त कबीरजी का पवित्र स्थान कबीर चौरा के नाम से स्थापित है। इसी प्रकार से लहर तालाब पर भी आपकी स्मृति में पावन स्थान सुशोभित हो रहा है। सर्व शक्तिमान एवं सर्वव्यापक ईश्वर पर कबीर का अटूट विश्वास था, जब उन्हें गंगा नदी में डुबोने का प्रयत्न किया गया और राजा द्वारा हाथ-पांव बांधकर हाथी के आगे मरने के लिए फैंक दिया गया किन्तु फिर भी ब्रह्मनिष्ठ कबीरजी का कुछ भी नहीं हुआ और वह पूर्णत: सुरक्षित रहे।

 

आधुनिक समय में आवश्यकता है भक्त कबीरजी के उपदेशों की सर्वकल्याणकारी विचारधारा को जीवन में समाहित करने की, जो मानव सेवा की भावना से ओत-प्रोत है।

(विनायक फीचर्स)

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