बच्चों के सेक्स एजुकेशन को लेकर कई दृष्टिकोण हैं, लेकिन एक प्रमुख राय यह है कि बच्चों को इस विषय में समय पर और सही तरीके से जानकारी दी जानी चाहिए। यह जानकारी देने वाला व्यक्ति ऐसा होना चाहिए जिसे न केवल शरीर शास्त्र की, बल्कि बच्चों के मनोविज्ञान की भी गहरी समझ हो। मुझे जयपुर में इसी तरह की एक क्लास में शामिल होने का मौका मिला, जिससे मुझे यह अहसास हुआ कि बच्चों को समय पर सेक्स से संबंधित जानकारी देना बहुत जरूरी है।
एक नज़रिया यह भी है कि जैसे अन्य प्राणी बिना किसी विशेष शिक्षा के सेक्स की समझ विकसित कर लेते हैं, वैसे ही मनुष्य भी कर सकता है। अमूमन धार्मिक और परंपरावादी लोग यही सोचते हैं। जहां तक मेरी जानकारी है, किसी भी धर्म में सेक्स एजुकेशन के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है। कुछ जनजातियों में सेक्स एजुकेशन के कुछ रूप दिखाई देते हैं, लेकिन इसकी कोई समुचित व्यवस्था वहां भी नजर नहीं आती।
कुछ लोगों का मानना है कि अगर वे अपने बच्चों के सामने सहज और सामान्य व्यवहार करें, जिससे बच्चे उनके शरीर से परिचित हो जाएं, तो बच्चों में विपरीत सेक्स के लोगों के प्रति सहजता होगी। लेकिन यह सेक्स एजुकेशन का कोई कारगर उपाय नहीं हो सकता। दुनिया के कई हिस्सों में महिलाएं स्विमिंग सूट पहनती हैं और उनके इर्द-गिर्द बच्चे और हर उम्र के पुरुष भी होते हैं। लेकिन उन समाजों में भी सेक्स आधारित हिंसा होती है। यह साफ है कि किशोर- किशोरियां अगर स्त्री या पुरुष के शरीर को देख लेते हैं तो इससे विपरीत सेक्स के प्रति कोई विशेष सहजता नहीं होती।
अब उस तर्क की बात की जाए कि समय पर सभी लोग सेक्स से जुड़ी जरूरी बातें सीख लेते हैं जैसे दूसरे प्राणी। यहाँ मनुष्य और दूसरे प्राणियों में कुछ महत्वपूर्ण अंतर हैं जिन्हें लोग नजरअंदाज कर देते हैं। मसलन, मनुष्य का सेक्स के लिए कोई निश्चित समय नहीं होता, वह बच्चा पैदा करने के लिए नहीं बल्कि आनंद के लिए सेक्स करता है, बच्चे बाई डिफॉल्ट पैदा हो जाते हैं। मनुष्य स्त्री के मासिक के दौरान या गर्भावस्था में भी सेक्स कर लेता है। स्त्री की मर्जी न हो, वह बीमार हो, कम या ज्यादा उम्र की हो, लेकिन उसके साथ सेक्स होता है। यह सभी बातें दिखाती हैं कि मनुष्य का सेक्स जीवन अन्य प्राणियों जितना सरल नहीं है।
मनुष्येतर प्राणियों में अगर मादा का शरीर सेक्स के लिए तैयार नहीं है तो नर उसके करीब नहीं जाता। मादा भी एक खास मौसम या काल में ही सेक्स के लिए तैयार होती है। इस तरह यह बात स्पष्ट है कि मनुष्य का सेक्स जीवन और मनुष्येतर प्राणियों का सेक्स जीवन समान नहीं माना जा सकता।
स्त्री की यौनिकता को सदियों से नियंत्रित किया गया है जिससे मनुष्य का सेक्स जीवन बहुत विकृत हुआ है। हालांकि इसका सम्पूर्ण इलाज एक न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था में ही संभव है, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, बच्चों को जननांगों की कार्यप्रणाली और सामाजिक जीवन में इसे सीमित करने के मामले के सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों पर विषय विशेषज्ञों द्वारा बात होनी चाहिए।
अंतिम बात, हम सब एक कामाणु का ही विस्तार हैं, इसलिए सेक्स को पाप, अधर्म या ऐसा ही कुछ कहना सही नहीं है, इसे समझना जरूरी है। यह भी जरूरी है कि फैमिली लाइफ के सुख-दुःख का बहुत गहरा संबंध स्वस्थ सेक्स लाइफ से है, इसलिए इसे नकारा या उपेक्षित नहीं किया जा सकता और न ही झाड़फूंक टाइप शिक्षा का इस्तेमाल किया जा सकता है।