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मुद्दे की बात : आख़िर किस दिशा में जा रही युवा-मानसिकता ?

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नाम से ही नहीं, काम से भी बने शमशेर….

पंजाब की आर्थिक-राजधानी लुधियाना से एक चौंका देने वाला मामला सामने आया है। जाने-माने शिक्षण-संस्थान पीसीटीई कालेज में बी-कॉम के एक छात्र ने कॉलेज की ही एक इमारत की सातवीं मंजिल से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। गौरतलब है कि छात्र का नाम शमशेर सिंह था, लेकिन अपने नाम के विपरीत उसने ना जाने क्यूं ऐसा बुजदिली वाला कदम उठाया।

बताते हैं कि वह परीक्षा में नक़ल करता पकड़ा गया था। जिसके बाद उसने फौरन ही आत्महत्या जैसा घातक कदम उठा लिया। अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या उस छात्र के ऐसा करने के बाद किसे कसूरवार माना जाए। उस नादान छात्र को या उस कालेज-प्रशासन को, जिसने उसे नक़ल करने से रोका या फिर उस समाज को, जिससे शमशेर आंख ना मिला पाने के डर से जान गंवा बैठा। आत्महत्या सच में अनमोल जीवन गंवाने  है। देखा जाए तो आत्महत्या किसी गलती के प्रयाश्चित का सही तरीका नहीं है।

खासतौर पर खुदकुशी का ख्याल मन में आने पर युवाओं को पल-भर अपने पेरेंट्स के बारे में सोचना चाहिए। जो उनकी पैदाइश से पहले कितनी मन्नतें मांगते हैं। फिर उनकी परवरिश कितने अरमानों से करते हैं। उनकी तमाम उम्मीदें अपने बच्चों पर ही टिकी होती हैं। अगर इकलौती औलाद हो तो बुढ़ापे के मुहाने पर खड़े धनवान मां-बाप भी संतान को खोकर कंगाल, विकलांग से भी बदतर स्थिति में मर-मरकर जिंदगी काटते हैं। काश, आत्महत्या करने वाले बच्चे-युवा यह सब सोच लें तो शायद वह बुजदिली वाला ऐसा कदम कभी नहीं उठाएंगे। युवा पीढ़ी को सोचना चाहिए कि बड़ी से बड़ी परेशानी का भी हल होता है। चुनौतियों से हार मानकर आत्महत्या कर लेना कोई हल नहीं है।

अब जरा इसे लेकर मनोवैज्ञानिक नजरिया भी जान लें। जीएचजी खालसा कॉलेज, गुरुसर सुधार के मनोविज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ.परमजीत कौर ने गंभीर टिप्पणी की है। उनके मुताबिक शमशेर यक़ीनन बहुत परेशान था और उसे शर्मसार और अपमानित होने का डर  सता रहा था। उसे अपने साथ बीती घटना के बाद होने वाले अपमान और अपने माता-पिता के सामने जाने में शर्म महसूस हो रही थी। जैसा कि हम जानते हैं कि इंसानों के बीच शर्म और अपमान सबसे अधिक महसूस की जाने वाली भावना है। जिससे व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक तनाव भी महसूस होता है। इसलिए हमें इस पर और ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है। शर्मिंदगी और डर की भावना कहीं ना कहीं हमारे शारीरिक परिवर्तनों को ट्रिगर कर सकती है। जिससे व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति काम नहीं करती है। यह एक ऐसे स्थिति होती है, जिसमें दिमाग पर इतना तनाव पड़ता है कि यह पूरी तरह से  ब्रेन-हाइजेक कर लेती है। यह एक ऐसी दिमागी-स्थिति है, जो खुद-ब-खुद काम करती है, व्यक्ति खुद के काबू में नहीं होता। इन सबके बीच खासतौर पर माता पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों को उनकी गलती का अहसास दिलाए और उन्हें मान लेना भी सिखाए। माता-पिता होने के नाते शुरुआत के दिनों से ही बच्चे को परिवार में रहने वाले लोगों से अच्छे संबंध बनाने और अपमान और शर्म को सही तरह से समझने और अपनाने के तरीके सिखाएं। जिससे वे अपनी गलती को समझें और उसे ठीक करने की सोचें। ये सब चीज़े बचपन से ही बच्चे अपने माता-पिता और दादा-दादी और परिवार में रह कर ही सिखते हैं।

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