क्या आप जानते हैं पानी बोने की इस सोच के पीछे कौन हैं?

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“बीज बोने से अन्न मिलता है तो पानी बोने से जल क्यों नहीं?”— इसी सोच ने उत्तराखंड के गांवों की किस्मत बदल दी। पिछले 13 वर्षों से पर्यावरण प्रेमी मोहन चंद्र कांडपाल ने बंजर जमीनों को उपजाऊ बनाने और वर्षा जल को सहेजने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है। उनके प्रयासों से अब तक 22 जलस्रोत पुनर्जीवित हो चुके हैं और कभी सूख चुकी रिस्कन नदी फिर से बहने लगी है।

इन भगीरथ प्रयासों के लिए कांडपाल को मंगलवार को छठा राष्ट्रीय जल पुरस्कार प्रदान किया गया। इससे प्रेरित होकर वह अब इस मुहिम को राज्य स्तर पर विस्तारित करने की तैयारी में हैं।

कानपुर से लौटकर शुरू की जल यात्रा

1966 में अल्मोड़ा जिले के कांडे गांव में जन्मे मोहन बचपन में पिता के साथ कानपुर चले गए थे। स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रेरित होकर 1984 में गांव लौटे और पलायन व जल संकट से जूझते लोगों की स्थिति देखकर उन्होंने पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया।

महिलाओं को जोड़ा, बनाई हरियाली की ढाल

1990 में शिक्षक बनने के बाद उन्होंने ‘पर्यावरण चेतना मंच’ की स्थापना की और ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं को जागरूक किया। द्वाराहाट और भिकियासैंण में 62 महिला मंगल दलों के माध्यम से एक लाख से अधिक पौधे लगाए गए।

‘पानी बोओ, पानी उगाओ’ अभियान से बदल दी तस्वीर

2012 में शुरू हुए इस अभियान के तहत उन्होंने साथियों की मदद से 5000 से अधिक छोटे तालाब (खाल) बनाए। आज ये सभी वर्षा जल से लबालब भरे हैं, जिससे करीब 45 हजार लोग लाभान्वित हो रहे हैं।
भारत सरकार की टीम ने सितंबर में क्षेत्र का गुप्त निरीक्षण किया था, और अब यह सम्मान पूरे उत्तराखंड के लिए गर्व का विषय बन गया है।

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