पूज्य पिता जी महाराज ने कहा आज मंगलवार है, दुर्गा अष्टमी है, शुभ दिन हैं

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30 सितम्बर–

रामायण ज्ञान यज्ञ के आठवें दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिंध्य में श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज सरस्वती द्वारा रचित रामायण जी का हज़ारों साधकों ने मिल कर परायण किया। पिता जी महाराज ने कहा
वर्षा ऋतु खत्म हो जाती और शीत ऋतु आ जाती है। पर सुग्रीव जी नहीं आते। राम जी लक्ष्मण जी को सुग्रीव के पास भेजते हैं और कहते हैं कि सुग्रीव को उनकी प्रण और प्रतिज्ञा याद करवा कर आओ। लक्ष्मण जी राम जी की व्याकुलता और दुख देख क्रोध में आ कर सुग्रीव जी के महल में जातें है। वहाँ सुग्रीव जी को हास मोद में मगन देख क्रोधित हो जाते है। तब तारा आ उन्हें समझती है। लक्ष्मण जी शांत हो सुग्रीव के पास जातें और उसे उस के वचन याद करवाते हैं। सुग्रीव जी लक्ष्मण जी से क्षमा मांगते है और कहतें है मैं सारी आयु राघव का कृतज्ञ और आभारी हूँ। मैने उस के उपकार कभी भुलाये नही। वह पास खड़े हनुमान को सभी सैनिकों को सज्जित हो कर आने का आदेश देतें हैं। सुग्रीव जी सेना सहित राम जी के पास आतें हैं। राम जी सुग्रीव जी को गले लगा मिलते हैं। सुग्रीव जी हनुमान जी को सीता जी के खोज का लिये चारों दिशाओं में सैनिकों को भेजने को कहते हैं। पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर सैंकड़ो सैनिक खोज के लिए निकल पड़ते हैं। नील, अंगद, जाम्बवान और हनुमान जी जैसे महाबली सैनिकों को साथ ले दक्षिण दिशा जो जाने लगते हैं तो राम जी हनुमान जी को अपनी नामांकित अंगूठी देते हैं और कहते हैं जब सीता मिले तो उसे यह अपनी पहचान के लिये दे देना । हनुमान जी अंगूठी को ले सभी वानरों सहित दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ते हैं और सीता माँ को ढूंढते ढूंढते अंत में सागर पास आ जाते हैं। वहां उन्हें जटायु का भाई संपाती मिलता है और कहता है कि एक दिन उसने रावण को एक रोती हुई, हा राम!, हा लक्ष्मण! पुकारती नारी को आकाश मार्ग से लंका में ले जाते देखा था। यहाँ से सौ योजन दूर सागर से घिरा लंका द्वीप है, रावण वहां रहता है। सीता जी भी वहीं हैं। यह सुन वानर प्रसन्न हो जाते हैं। परंतु असीम सागर को सामने देख वह उदास हो जातें हैं। अंगद जी उन्हें कहतें की भय न करें, अपने मन के विषाद को तज सब अपनी अपनी शक्ति बखान करें कौन इस सागर को पार कर सकता है। सब अपनी अपनी शक्तियों का बखान करते है की कौन कितने कितने योजन जा सकता है। परंतु कोई भी इतना शक्तिशाली नही था जो सागर के पार जा कर वापिस आ सके। तब जामवंत जी हनुमान जी की तरफ देखकर कहते हैं जो सफलता का प्रतीक सफलता का सूचक सफलता की प्रतिमा जहां भी जाए, वहां सफलता पाए बिगड़े काम तुरंत बनाएं, वह हमारे सामने बैठे हैं और हनुमान जी को उनकी शक्ति याद करवाते हैं। जैसे-जैसे शक्ति याद करवाते गए हनुमान जी का शरीर और मनोबल बड़ा होता गया। वह समुन्द्र में कूद जातें हैं और अपनी भुजाओं से सागर की जलराशि चीर कर लंका पुरी पहुंचते हैं। वहां वह भेष बदल कर वहाँ जगह जगह सीता जी की खोज करते हैं। पर वह उन्हें ढूंढ नही पाते। निराश हो कर हनुमान जी मरने का सोचतें हैं। फिर अपने विचारों को बदल कर मन को कड़ा कर हनुमान जी पुनः उत्साह आशा के साथ सीता जी को ढूंढने लग जाते हैं। घूमते हुए वह ऊंचे पेड़ों से घिरी अशोक वाटिका में पहुंचते हैं। वहाँ की शांति और सुंदरता देख वह सोचते हैं यदि माँ जीवत है तो ध्यान संध्या के यहाँ जरूर आएगी। वहाँ बाग में घूमते हुए वह एक असुरिओं से घिरी दुबली पतली नारी को देखते हैं। राम जी द्वारा बताए चिन्ह उस में देख वह उन्हें पहचान लेते है की यही सीता है।

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