रविवार, 28 सितंबर, 2025
आरण्य काण्ड में से राम जी का वन में ऋषियों मुनियों से मिलने से लेकर असुरों से युद्ध तक के प्रसंग पढ़े गए। पिता जी ने सभी को अयोध्या काण्ड के पूर्ण होने की बधाई दी। उन्होंने कहा अरण्य का मतलब है वन में विचरना।
पूज्य श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवम् पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन और कृपामय सानिध्य में वातावरण अयोध्या जैसा ही प्रतीत हो रहा है। मधुर, संगीतमय रामायण जी के परायण से मानो जैसे युग ही परिवर्तित हो गया हो। चौपाइयां पढ़ते भक्तों का झूलना, मस्ती में भावविभोर होना इस सारे वातावरण को और अधिक मनमोहक बना रहा है।
पूज्य पिताजी महाराज ने कहा कि श्री स्वामी जी महाराज की कृपा से रामायण का परायण चल रहा है। आप को देख कर अदभुद आनंद की अनुभूति हो रही है। हम भी यहां आपके प्यार में डूब रहे हैं। हम महाराज की कृपा, आशीर्वाद का आह्वान करते हैं। इतनी कृपा, रहमत, मेहर और आनंद की वर्षा हो रही है।
पिता जी ने कहा जितने जीव जन्म लेते हैं, वह अंत में सब मर जाते हैं। यही जगत का नियम है। जो आता है वह आवश्यक जाता है, आदि सदा ही अंत दिखाता है। हमें हर समय यही सोचना है हमने कितना जीवन बिताया है और उस में क्या पुण्य कमाया है। क्योंकि हर बीतता हुआ दिन हमें अपनी मृत्यु की ओर ले कर जा रहा है। जो रात बीत जाती है वह वापिस नही आती।
पिता जी महाराज ने कहा
भरत जी राजा गुह के नाविकों की सहायता से गंगा पार कर ऋषि भारद्वाज जी के आश्रम पहुंचते हैं। रात आश्रम में रुक कर सुबह मुनि आज्ञा ले भरत जी यमुना पार कर चित्रकूट पहुंचते हैं। भरत जी ढूंढते ढूंढते राम जी के पास पहुंचते है और उन के चरणों पर गिर पड़ते हैं। राम जी उन्हें उठ गले लगाते हैं और आने का कारण पूछते हैं। भरत जी उन्हें पिता के निधन के बताते है। यह सुन राम जी लक्ष्मण जी और सीता जी रोते बिलखते लग जाते है। तभी कौशल्या सहित तीनों रानियां वहाँ आ जाती हैं। सभी मिल कर शोक में डूब जाते हैं। तब भरत जी राम जी चरण पकड़ कर उन्हें वापिस चलने को कहते हैं तो राम जी मना कर देते हैं। जब राम जी सभी के समझाने, मनाने से भी नही मानते तो भरत जी उन से उनकी चरण पादुके मांगते हैं और कहते हैं कि अब यह आप की जगह राज करेंगी मैं आप की तरह वल्कलधारी बन रहूँगा और इन की सेवा करूगां। भरत जी चरण पादुका ले वापिस अयोध्या लौट आते हैं और नंदी ग्राम में आ श्री राम की चरण पादुका को राज गद्दी पर रख राज करने लगते हैं। तीनों कुछ समय बाद वनों में आगे चल पड़ते हैं। वहां वह अत्रि ऋषि को मिलते है। अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया सीता जी को वस्त्र और भूषण देती है और कहती है सीते जब तक तू जग में जिये इन्हें अपने पास रखना।
पिता जी महाराज कहा, कहाँ राम जी और भरत जी जैसे बंधु और उन की प्रीति, कहाँ आज के बंधु, प्रीति तो दूर, जो बात बिगड़ जाए तो पास भी नही आते और उल्टे अपनी बात मनवाते हैं।
जब अच्छा समय होता है जो वह आप पीछे पीछे होते हैं पर बुरा समय आने पर वही आप को गिराने लग जाते हैं। बुरे समय में बाहर वालों से अपने ज्यादा नुकसान करतें हैं।
पिता जी ने आरण्य काण्ड का वर्णन करते हुए कहा-
राम जी का वनवास न होता तो असुरों का नाश न होता।
चलते चलते राम जी लक्ष्मण जी और सीता जी शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचतें है। शरभंग ऋषि उनके दर्शन कर के अपना भौतिक चोला त्याग देते हैं। वहाँ के मुनिजन राम के पास आ कहतें कि असुर हमें मार काट रहें हैं अब आप हमारी रक्षा करें। राम जी कहतें है आप की रक्षा और सेवा करना मेरा धर्म है। अब मैं आप की रक्षा करूगां। आगे विचरते वह सुतीक्ष्ण ऋषि के पास पहुंचे। ऋषि उन्हें दो खड्ग और धनु बाण देते है। दस वर्ष तीनों उन्हीं वनों में रहतें है। दस वर्ष बाद वह फिर सुतीक्ष्ण ऋषि का पास आते हैं। बहुत दिन ऋषि पास रह वहां से चल कर वह अगस्त्य ऋषि के भ्राता के पास पहुंचते है। वह उन्हें अगस्त्य ऋषि का पता दे उन के पास भेजतें हैं। अगस्त्य ऋषि उन का स्वागत करतें हैं और उन्हें अपना दिव्य धनुष और अमोघ बाण देते है। ऋषि उन्हें पंचवटी में रहने को और ऋषियों की रक्षा करने को कहते है। वह सभी पंचवटी को जाते है। रास्ते में उन्हें अपने पिता का मित्र जटायु मिलता है। पंचवटी पहुंच राम जी के अनुमति पा लक्ष्मण जी पर्णकुटी का निर्माण करतें है। राम जी, लक्ष्मण जी और माँ सीता जी वहां सुख से निवास करते हैं।