गुरुदेव पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज एवं पूज्य भगत हंसराज जी महाराज (बड़े पिता जी) की कृपा से पूज्य पिता श्री कृष्ण जी महाराज एवं पूज्य माँ रेखा जी महाराज के पावन सान्निध्य में चल रहे

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सान्निध्य में चल रहे रामायण ज्ञान यज्ञ के पाँचवे दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिंध्य में श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज सरस्वती द्वारा रचित रामायण में से अयोध्या काण्ड का परायण किया गया।

पूज्य पिता जी महाराज ने कहा महाराज की कृपा बरस रही है। सब ग़द ग़द हो रहें हैं। सब को परम पिता परमात्मा की कृपा की अनुभूति हो रही है। व्रतियों के व्रत पूर्ण हो रहें हैं। हमें महाराज का कोटि-कोटि धन्यवाद करना है। उन की कृपा से साधकों के बिगड़े काम बन रहे है। चारों तरफ प्रभु कृपा के बादल बरस रहें। आनंद ही आंनद है।

उन्होंने कहा हमारे राष्ट्र का पतन कहां से आरंभ हुआ, जो हमारे राष्ट्र के पथ प्रदर्शक, रास्ता दिखाने वाले थे, उन लोगों ने जब धर्म को अपनी आजीविका का साधन बना लिया, उसे दिन से धर्म का पतन शुरू हुआ। हमेशा लज्जा करनी है, तो मांग के खाने में करनी है। अपने कर्म से लज्जा नहीं करनी। कोई कर्म छोटा नहीं होता। हमें सदैव यही प्रार्थना करनी है कि हम सदैव आश्रय बने, कभी आश्रित न बनें।

पिता जी ने अयोध्याकाण्ड का वर्णन किया कि संघर्ष से ही सोना कुंदन बनता है। राम जी का जीवन तो पहले ही कुंदन था, अब वह लोगों के लिए आदर्श बनने जा रहे हैं।
राम जी वन जाने से पहले दशरथ जी से मिलने आते हैं। वह वन जाने की आज्ञा मांगते हैं। दशरथ जी उन्हें एक रात अपने साथ रहने को कहतें हैं, परंतु राम जी नही मानते। राजा उस से धन दौलत साथ ले जाने को कहतें हैं तो राम जी कहतें है मैंने जब राज त्याग दिया तो धन का क्या करुगा। मैं वन में मुनि वत रह कर आपके वचन पूरे करूगां। दशरथ जी जब देखतें हैं कि राम जी अब रुकने वाले नही तो अपने सचिव सुमंत्र को रथ लाने को कहतें हैं। राम जी लक्ष्मण जी और सीता जी सचिव सुमंत्र के साथ रथ में बैठ वन की ओर चल पड़ते हैं।

पिता जी ने कहा कि स्वामी जी महाराज ने रामायण में पिता पुत्र के संबंध का अदभुत वर्णन किया है।

अयोध्या में हाहाकार मच जाता है। शाम को सभी तमसा नदी के किनारे पहुंचते है। राम के बिना अयोध्या सूनी हो जाती है। राम रथ वहां से चल श्रृंगबेर नगरी पहुंचते हैं। वहां का निषाद राजा गुह राम को वहाँ रुकने को कहता है। परंतु श्री राम कहतें है कि पितृ वचन को पूर्ण करने के लिये चौदह वर्ष उन्हें वन में ही रहना है।रात को वहां तिनकों की सेज बना कर राम जी और सीता जी सो जातें है। लक्ष्मण जी रात को गुह जी के साथ वहां पहरा देतें हैं।

पिता जी ने कहा गुह जैसे मित्र तो आज ढूंढे भी नही मिलते। जो दुख के समय में अपना सब कुछ अपने मित्र को देने को तैयार हो जायें और बदले में कुछ भी इच्छा नही रखें। निस्वार्थी हो। आज के समय में यदि आप के पास धन दौलत है तो सभी आप के मित्र होतें है, परंतु निर्धन को तो अपने ही तज जातें है, मित्रों की तो बात ही दूर। रुण्ड पेड पर तो पक्षी भी नही आते।

वह रात वहाँ रुक सुबह राम जी सुमंत्र को अयोध्या वापिस भेज आगे चल पड़ते है और गंगा नदी को पार कर भरद्वाज मुनि के आश्रम में पहुंचते हैं। मुनि उन्हें चौदह वर्ष अपने आश्रम में बिताने को कहतें हैं। राम जी उन्हें कोई और शांत स्थान का पूछते हैं। मुनि उन्हें गंगा यमुना के संगम के पार चित्रकूट पर्वत का बतातें हैं। राम जी रात वहाँ रुक अगली सुबह चित्रकूट पर्वत के लिये निकल पड़ते हैं। राम जी गंगा यमुना के संगम को पार कर चित्रकूट के रमणीय वन की ओर चल पड़ते हैं। चलते चलते वे तीनों वाल्मीकि मुनि जी के आश्रम पहुंचते हैं। मुनि के आशीर्वाद के बाद चित्रकूट में उपयुक्त स्थान देखने के पश्चात राम आज्ञा से लक्ष्मण जी वहां पर्ण कुटि का निर्माण करते हैं। चित्रकूट के पावन वातावरण में वह तीनों मुनि जनों की संगति में प्रसन्ता से रहने लगते हैं।रामजी के वन जाने के बाद दशरथ जी रानी कैकेयी का महल छोड़ रानी कौशल्य के महल में आते हैं। अगले दिन सायं सुमन्त्र अयोध्या लौटने पर राजा दशरथ को राम जी को वन में छोड़ कर आने का समाचार सुनाता है। राजा सचिव से राम का हाल पूछते हैं। सचिव हाथ जोड़ कर कहता है कि तीनों वनों में शांति और सुख से हैं। उन्होंने आप सब को अपना प्रणाम कहा है। यह सुन दशरथ जी अपने अभाग्य व किये पाप कर्म पर विलाप करते हैं। रानी कौशल्या के पूछने पर अपने यौवन काल में हुई घटना को याद करते हैं। वह बताते हैं कि जब मैं जवान था तो वन में शिकार करते समय मेरे बाण से हाथी के धोखे में गलती से श्रवण नामक युवक का वध हो गया, जो अपने अंधे माता- पिता का एक मात्र सहारा था। जब मैंने इस बात की सूचना उस के माता पिता को दी, तो पुत्र वियोग में उसके माता-पिता ने बिलखते बिलखते अपने प्राण त्याग दिये। दशरथ जी भी पुत्र के वियोग में अपने प्राण त्याग देते हैं। उस समय पर चारों में से एक भी पुत्र उनके पास नहीँ था।

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