मुद्दे की बात : क्या जस्टिस वर्मा पर एक्शन ले पाएगी केंद्र सरकार ?

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देश की संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक हाईकोर्ट के जज को हटा पाना आसान नहीं

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा को न्यायपालिका से बाहर करने के लिए केंद्र सरकार सदन में प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है। संसदीय मामलों के केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू के मुताबिक सरकार प्रस्ताव लाने के लिए जल्द ही सांसदों के हस्ताक्षर लेगी। अधिकांश मुख्य राजनीतिक दलों ने सैद्धांतिक तौर पर प्रस्ताव का समर्थन करने की बात कही है।

यह मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है, बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार संसद का मॉनसून सत्र 21 जुलाई से शुरू होकर 21 अगस्त तक चलेगा। हालांकि, इस दौरान अगर जस्टिस वर्मा के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पेश हो भी गया तो शायद ही यह एक महीने के अंदर नतीजे पर पहुंच पाए। दरअसल न्‍यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत संसद के किसी भी सदन में प्रस्ताव स्वीकार होने के बाद प्रेसाइडिंग अफसर को तीन सदस्यों वाली समिति बनानी होती है। जो प्रस्ताव को आधार बनाकर जजों के ख़िलाफ़ आरोपों की जांच करती है। जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर इसी साल मार्च महीने में आग लगी थी। जिसे बुझाने के क्रम में उनके आउटहाउस से नोटों की कई गड्डियां मिली थीं। हालांकि, जस्टिस वर्मा ने इस कैश की उन्हें जानकारी ना होने की बात कही थी। उनसे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट के ही एक और सिटिंग जज जस्टिस शेखर कुमार यादव को भी पद से हटाने की मांग उठी थी। उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) को लेकर एक टिप्पणी की थी। जिसके बाद विपक्ष ने उन्हें न्यायपालिका से हटाने की मांग की थी।

इन दो हालिया मामलों ने एक बार फिर से जजों की नियुक्ति और उन्हें पद से हटाए जाने के मुद्दे को चर्चा में ला दिया है। दरअसल संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 के अनुसार, राष्ट्रपति ‘सिद्ध दुर्व्यवहार’ या ‘अक्षमता’ के आधार पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को पद से हटा सकते हैं, इसे ही महाभियोग कहते हैं। हालांकि, इन अनुच्छेदों में महाभियोग शब्द का इस्तेमाल नहीं है। कुछ अलग-अलग मामलों में सुप्रीम कोर्ट ये राय ज़ाहिर कर चुका है कि कार्यालय में जानबूझकर किया गया ग़लत काम, भ्रष्टाचार, या कोई भी अनैतिक काम दुर्व्यवहार माना जाएगा। वहीं अक्षमता का मतलब यहां स्वास्थ्य संबंधी स्थितियों से है, जिनमें शारीरिक या मानसिक अक्षमता भी शामिल हो सकते हैं। जजों को पद से हटाने की विस्तृत प्रक्रिया न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 में दी गई है। यह प्रक्रिया लोकसभा या राज्यसभा में जज को पद से हटाने संबंधी प्रस्ताव पेश करने से शुरू होती है। इस प्रस्ताव पर लोकसभा के कम से कम 100 या राज्यसभा के कम से कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर ज़रूरी होते हैं।

इसके बाद लोकसभा के स्पीकर या राज्यसभा के चेयरमैन यह तय करते हैं कि इस प्रस्ताव को स्वीकार करना है या नहीं। स्वीकृत होने के बाद एक तीन सदस्यों वाली जांच कमेटी गठित की जाती है। इस कमेटी में सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट एक जज और क़ानूनी मामलों की किसी प्रख्यात शख़्सियत को शामिल करते हैं। यह कमेटी आरोप की जांच करती है और जज को अपने बचाव का मौक़ा मिलता है। जांच में सामने आए तथ्यों के आधार पर जांच कमेटी अपनी रिपोर्ट संसद के संबंधित सदन के अध्यक्ष या सभापति को सौंपती है। अगर कमेटी जज को दोषी पाती है तो फिर संसद में जज के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पर वोटिंग होती है। जिसे पास करने के लिए दोनों सदनों में विशेष बहुमत ज़रुरी होता है। अगर दोनों सदनों में प्रस्ताव पास हो जाए है तो इसे राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इसके बाद राष्ट्रपति की ओर से जज को पद से हटाने के लिए आदेश जारी होता है। हालांकि, अगर जज कार्यवाही पूरी होने से पहले पद से इस्तीफा दे दे तो आमतौर पर जांच रुक जाती है। साथ ही जज को रिटायरमेंट से जुड़े सभी लाभ मिलते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ऑब्ज़र्वर वेबसाइट पर जजों पर महाभियोग से जुड़े एक लेख के मुताबिक साल 2011 में भ्रष्टाचार, न्यायिक कार्यालय के दुरुपयोग से जुड़े आरोपों का सामना करने वाले सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस (तत्कालीन) पीडी दिनाकरन के ख़िलाफ़ राज्यसभा के चेयरमैन ने न्यायिक आयोग गठित किया था। मगर उन्होंने महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया। अगर ज़िला अदालतों के जजों को हटाने की प्रक्रिया की बात करें तो इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 235 में प्रावधान है। इसके तहत हाईकोर्ट को ज़िला अदालतों पर सुपरवाइज़री कंट्रोल दिया गया है। इस अनुच्छेद में ‘नियंत्रण’ शब्द का ज़िक्र है। सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड रोहित कुमार के अनुसार उच्च अदालतों के कई फ़ैसलों में इस अनुच्छेद की व्याख्या की गई है और उसके मुताबिक़, न्यायाधीश (जांच) अधिनियम के तहत ज़िला अदालतें हाई कोर्ट के अधीनस्थ होंगी।

सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल मई महीने में निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति पर फ़ैसला सुनाया था। जिसके मुताबिक़, सिविल जज जूनियर डिवीज़न परीक्षा में बैठने के लिए तीन साल की न्यूनतम प्रैक्टिस को अनिवार्य किया। संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति, चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया और संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से करते हैं। हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम की सिफ़ारिश सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम की ओर से की जाती है। कोलेजियम में चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया और दो सबसे वरिष्ठ जज शामिल होते हैं। हालांकि, नामों के प्रस्ताव हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों के साथ मिलकर देते हैं। जजों के नामों की सिफ़ारिश वाला पत्र फिर मुख्यमंत्री राज्यपाल को भेजते हैं, जो बाद में इसे क़ानून मंत्री को भेजते हैं।

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