मुद्दे की बात : ईरान पर इजराइल भारी पड़ा तो भारत क्या करेगा ?

मुद्दे की बात : ईरान पर इजराइल भारी पड़ा तो भारत क्या करेगा

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ईरान की तुलना में भारत अहमियत दे रहा है इजराइल के साथ बेहतर संबंध रखने को

ईरान और भारत अगस्त 1947 तक 905 किलोमीटर लंबी सरहद साझा करते थे। भारत के विभाजन के बाद यह सरहद पाकिस्तान के साथ लगने लगी। भारत और ईरान के बीच भाषा, संस्कृति और परंपरा के स्तर पर गहरे संबंध रहे हैं। भारत की आज़ादी के बाद मार्च, 1950 को ईरान के साथ राजनयिक संबंध स्थापित हुए थे। हालांकि 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद चीज़ें तेज़ी से बदलीं।

इस मामले में मीडिया ताजा हालात की समीक्षा कर रहा है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 1978 से अगस्त, 1993 तक यानि 16 सालों तक दोनों देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का कोई दौरा नहीं हुआ। फिर सितंबर 1993 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ईरान के दौरे पर गए। पश्चिम एशिया में ईरान एक ऐसा देश है, जो अमेरिकी दबदबे वाले वर्ल्ड ऑर्डर को मानने से इंकार करता रहा है। भारत भी एक ऐसे वर्ल्ड ऑर्डर की वकालत करता है, जिसमें किसी एक देश की मनमानी ना चले भारत मल्टीपोलर वर्ल्ड की बात करता है। 1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ शीत युद्ध का अंत हुआ था और दुनिया बाइपोलर यानि द्विध्रुवीय से यूनिपोलर यानि एकध्रुवीय हो गई थी। अब अमेरिका को चीन से आर्थिक मोर्चे पर कड़ी चुनौती मिल रही है, ईरान कोई महाशक्ति नहीं है। अब जब इजराइल ने ईरान पर हमला किया और दोनों में लड़ाई जारी है, तब अमेरिका खुलकर इजराइल की मदद कर रहा है। दूसरी तरफ़ ईरान पूरी तरह से अलग-थलग दिख रहा है। चीन और रूस इजराइली हमले की निंदा तो कर रहे हैं, लेकिन ईरान की मदद नहीं कर रहे हैं। भारत ने तो इजराइली हमले की निंदा तक नहीं की है।

ऐसे में सवाल उठता है कि भारत जिस बहुध्रुवीय दुनिया की बात करता है, उसमें पश्चिम एशिया में ईरान कमज़ोर पड़ता है तो भारत की चाहत पर क्या असर पड़ेगा ? क्या भारत इजराइल और अमेरिका के मज़बूत होने से बहु-ध्रुवीय दुनिया का लक्ष्य हासिल कर पाएगा ? दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा कहते हैं कि ईरान अगर कमज़ोर पड़ता है तो बहुध्रुवीय दुनिया के लिए झटका है। हालांकि अमेरिका पश्चिम एशिया में ईरान को कमज़ोर करके भी वहां अपने मन से बहुत कुछ नहीं कर सकता है। अगर ईरान हार जाता है, तब भी अमेरिका पश्चिम एशिया में अपना प्रभुत्व बहुत दिनों तक नहीं रख सकता है। पश्चिम एशिया में कई देश कृत्रिम तरीक़े से बनाए गए हैं और ऐसा पश्चिम के देशों ने ही किया है। अब दुनिया की जियोपॉलिटिक्स यूनिपोलर नहीं हो सकती है। सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं, भारत का आधिकारिक रुख़ है कि इजराइल और ईरान के बीच टकराव को डिप्लोमैसी के ज़रिए सुलझाना चाहिए। इस जंग में भारत का जो रुख़ है, उसमें कोई स्पष्टता नहीं है, इसमें कन्फ्यूजन दिखाई दे रहा है।

ट्रंप के पहले कार्यकाल से भारत ने ईरान से द्विपक्षीय व्यापार समेटना शुरू कर दिया था और अब एक अरब डॉलर से भी नीचे आ गया है। भारत के पूर्व क़ानून मंत्री कपिल सिब्बल के एक प्रोग्राम में भारत के पूर्व एनएसए शिवशंकर मेनन ने कहा था कि भारत की विदेश नीति पर घरेलू राजनीति का असर ज़्यादा दिखता है जो कि भारत के हित में नहीं है। मेनन इजराइल में भी भारत के राजदूत रहे हैं। उन्होंने कहा कि गल्फ़ में भारत के क़रीब 90 लाख लोग रहते हैं और अरबों डॉलर कमाकर भारत भेजते हैं। भारत की ऊर्जा सुरक्षा भी इस इलाक़े से जुड़ी है। पड़ोस में जंग की आग भड़केगी तो क्या हमारे हित सुरक्षित रहेंगे ? तलमीज़ कहते हैं, भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अमेरिका के साथ संबंधों को ज़्यादा अहमियत देगा।

जेएनयू में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ मुदस्सिर क़मर मानते हैं कि पश्चिम एशिया में भारत का रुख़ अब भी संतुलित है। भारत ईरान से ज़्यादा इजराइल को तवज्जो दे रहा है तो इसके कारण भी हैं। इजराइल के साथ भारत का द्विपक्षीय संबंध ज़्यादा अहम है, वो मिलेट्री और डिफेंस के मामले में भारत का साथ देता रहा है। इजराइल भारत का अहम रक्षा साझेदार बन गया है।

यहां गौरतलब है कि अमेरिका के साथ ईरान की दुश्मनी का पहला बीज 1953 में पड़ा जब अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट करवा दिया था। उसकी प्रतिक्रिया में 1979 में ईरानी क्रांति हुई थी। इस क्रांति के बाद वाली सत्ता अब भी ईरान में है और अमेरिका ने आज तक उसे स्वीकार नहीं किया। तलमीज़ की मानें तो ईरान को संकट से उबरना बख़ूबी आता है।

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