बड़ा सवाल, कितनी असरदार होगी ये कूटनीति ?
पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच गहराया सैन्य संघर्ष में बदला था। भारत ने पाकिस्तान व पीओके में नौ आतंकी ठिकानों पर हमला किए थे। इस अभियान को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ नाम दिया था। पाकिस्तान की जवाबी कार्रवाई, बयानबाज़ी से कूटनीति और सैन्य ताकत के बीच की रेखा धुंधली हुई है। इसी बीच भारत और पाकिस्तान दोनों ने दुनिया के कई देशों में अपने-अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे। भारत ने आतंकवाद और सीमा सुरक्षा के सवालों पर समर्थन मांगा। वहीं पाकिस्तान ने मानवाधिकारों और क्षेत्रीय अस्थिरता का मुद्दा उठाया।
अब माहिरों से लेकर मीडिया में यही चर्चा-समीक्षा हो रही है कि क्या यह सिर्फ़ कूटनीति की लड़ाई थी या इन दोनों देशों की आंतरिक राजनीति, सेना, सत्ता के समीकरण और मीडिया नैरेटिव ने इसे और उलझा दिया। भारत में इस मुद्दे पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बहस छिड़ी है। कुछ इसे सुरक्षा का सवाल तो कई इसे सियासी-फ़ायदे का ज़रिया मान रहे हैं। वहीं पाकिस्तान में सरकार और सेना की जुगलबंदी इस पूरे मामले की दिशा तय करती दिखी। तो क्या यह संघर्ष सिर्फ़ सरहद तक सीमित है या फिर यह कूटनीति, राजनीति और नैरेटिव की कई स्तर वाली लड़ाई बन चुका है। भारत में मोदी सरकार ने पिछले एक महीने में जो क़दम उठाए, उससे जनता का समर्थन हासिल करने में क्या उसे मदद मिली ?
दूसरी तरफ पाकिस्तान के कदम उठाए, उससे सेना और सरकार की इमेज पर क्या असर हुआ ? दोनों देशों ने कूटनीति का जो रास्ता अपनाया, वो कितना और किस तरह असरदार हो सकता है ? इसे लेकर बीबीसी के साप्ताहिक कार्यक्रम ‘द लेंस’ में चर्चा तक हुई। जिसमें सीनियर जर्नलिस्ट नीरजा चौधरी, कौटिल्य स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर कनिका राखरा और बीबीसी न्यूज़ उर्दू के सीनियर न्यूज़ एडिटर आसिफ़ फ़ारुक़ी शामिल हुए। यहां गौरतलब है कि भारत में इससे पहले हुई सैन्य कार्रवाई के बाद मौजूदा सरकार ने बड़े बहुमत से वापसी की, फिर चाहे बात कारगिल की हो या पुलवामा की। बिहार विधानसभा का चुनाव अभी कुछ दूर है, लेकिन भाजपा और मोदी सरकार ने जनसमर्थन हासिल करने की प्रकिया तेज़ कर दी है। इसे कैसे देखा जा सकता है? इस पर नीरजा कहती हैं, देश और दुनिया में बहुत आतंकी हमले हुए, लेकिन जो बर्बरता इस हादसे में थी, वो कभी नहीं देखी। इस मसले पर विपक्ष लड़ेगा व संसद सत्र होगा, राजनीति, कूटनीति सब चलेगी। विपक्ष के लोगों ने जिस तरह से विदेशों में जाकर भारत का पक्ष रखा, वैसा सत्ता-पक्ष के लोग भी नहीं कर पाए। इससे एक नई लीडरशिप सामने आ रही है।
इस संघर्ष के बाद पाकिस्तान में क्या बदलाव दिखाई दे रहा है ? आसिफ़ के मुताबिक पाकिस्तान में सरकार व सैन्य नेतृत्व की स्वीकार्यता में काफ़ी बदलाव आया है। इस संघर्ष ने चीज़ों को उलट दिया। संघर्ष के बाद सरकार-सेना को जो समर्थन वहां मिला, यह ऐतिहासिक व चौंकाने वाला बदलाव है। भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष पर दुनिया के देशों की कूटनीतिक प्रतिक्रिया कैसी रही ? इस पर प्रोफ़ेसर कनिका के मुताबिक भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को भी समर्थन मिला है। ऐसे कई नामचीन लोगों ने भारत का समर्थन किया, जो अलग-अलग देशों की सरकार में काम कर चुके हैं।
भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने उन देशों की समस्याओं के साथ जोड़ते हुए अपनी बात रखी, जहां वे गए। वहीं, भारतीय प्रतिनिधिमंडल को लेकर देश की राजनीति में कई चर्चाएं हैं तो पाकिस्तान ने भी अपने प्रतिनिधिमंडल कई देशों में भेजे थे। आसिफ़ कहते हैं, पाकिस्तान में इसे लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण चर्चा चल रही है। पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल में जेल में बंद पूर्व पीएम इमरान ख़ान की के लोग शामिल नहीं रहे, सरकार के लिए यह एक बड़ी अड़चन है। इस तरह के प्रतिनिधिमंडल दूसरे देशों का रुख़ बदलने में कितने प्रभावी होते हैं ? इस पर कनिका कहती हैं, इसमें दो तरह की बात है. एक जो दोस्त हैं और एक जो नहीं हैं। जब आप दोस्त के पास जाते हैं तो आपके रिश्ते और मज़बूत होते हैं। दूसरा, जहां पर हमें ये दिखता है कि रिश्ते पाकिस्तान की तरफ़ ज़्यादा झुके हुए हैं, जैसे मलेशिया।
वहीं फ़ारुक़ी के मुताबिक़, कूटनीति में आप अपनी बात किस तरह से रखते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण होता है। क्या यह मुद्दा इसी प्रभाव के साथ बिहार चुनाव तक बना रहेगा ? इस पर नीरजा ने कहा कहा, ये जो सात प्रतिनिधिमंडल गए हैं उनके ज़रिए राष्ट्रवाद अब विपक्ष का भी मुद्दा बन गया है। बिहार में होता ये है कि ज़्यादा क्षेत्रीय मुद्दे सामने आएंगे. हो सकता है कि ये भी थोड़ा बहुत हो, क्योंकि विपक्ष ने भी इसमें जगह बना ली है
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