राजनीति और साहित्य के आदर्श पुरूष बालकवि बैरागी

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10 फरवरी जन्म जयंती

सुव्रत दवे

विख्यात साहित्यकार, कवि, गीतकार, श्री बालकवि बैरागी की सात दशकों की साहित्य एवं राजनीति की अनवरत यात्रा का महत्वपूर्ण मुकाम सन् पचास के बाद का समय रहा, जब प्रधानमंत्री पं.नेहरू की गांधीवादी नीतियों से प्रभावित होकर वे कांग्रेस के सदस्य बने व कविताएं भी लिखने लगे।

उनकी मुखरता उनके सम्मान का कारण बनी। जब उन्होंने म.प्र. के मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू के समक्ष कविता सुनाई तो उन्हें काटजू जी ने बालकवि की उपाधि दी। तभी से वे नंदराम दास से बालकवि बैरागी के रूप में चर्चित हो गए।

सन् साठ के बाद वे राजनीति में अधिक सक्रिय हुए व अपने क्षेत्र में तथा वरिष्ठ इंका नेताओं में चर्चित हुए। श्रीमती इंदिरा गांधी से उनकी निकटता बढ़ी व पहली बार वे चुनावी राजनीति में इसी दौर में आए और मंत्री बने। श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में वे लोकसभा के सांसद रहे। श्री नरसिंह राव के समय कांग्रेस के संयुक्त सचिव बने व श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा टिकट दिए जाने पर राज्यसभा सांसद बनें। राज्यसभा में भी उनकी मुखरता बनी रही वे प्रदेश व देश के हित के मुद्दे समय-समय पर उठाते रहे । राजनीति और साहित्य के दुर्लभ संयोग तथा व्यक्तित्व के धनी श्री बैरागी ने हिन्दी की सेवा राजनीति के माध्यम से भी करने के कई प्रयास किए। संसद के एक सत्र में उन्होंने 28 प्रश्न पूछे जिनमें से अधिकांश राजभाषा हिन्दी के समर्थन व संदर्भ में थे। लेख, कहानी, कविता, छन्द, उपन्यास कई विधाओं के धनी बैरागी जी उन चुनिन्दा साहित्यकारों में से थे, जो चुटकुले व कविता का फर्क समझते हैं। उनके काव्य का स्तर समय के साथ बढ़ता ही रहा। हास्य व व्यंग्य या कटाक्ष भी वे अपने संस्कारों की सीमा की रक्षा करते हुए करते थे। विदेश भ्रमण पर वे कई बार गए व देश के सभी प्रान्तों का भी दौरा उन्होंने किया। सभी बड़े कस्बे, शहर या महानगरों में उनके काव्य पाठ को आनंद व उत्सुकता से सुना जाता था। मंच की गरिमा का उन्होंने सदैव ध्यान रखा, इसलिए वे देशभर में सम्मान के मात्र बने रहे। श्री बैरागी की विलक्षण प्रतिभा के मायने उनके सरल व सहृदय व्यक्तित्व के कारण अधिक बढ़ जाते थे। हर पत्र का उत्तर देना वे अपना कर्तव्य समझते थे।

अपने आचरण से वे नेहरू युगीन राजनेताओं का स्मरण कराते थे। दलितों, पिछड़ो व महिलाओं को उन्होंने सदा प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रीय स्तर के कार्य करवाने के बावजूद उन्हें अभिमान व अहंकार छू भी नहीं पाया। उन्होंने अपना समस्त जीवन देशवासियों के लिए ही समर्पित कर दिया। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को उन्होंने पार्टी व जनहित में न्यौछावर कर दिया था। जीवनभर वे पार्टी के अनुशासित सिपाही ही रहे । अपनी बात को तमीज से कहना उनसे सीखने योग्य बात थी। साहित्य, संस्कृति, संस्कार, आदर्श व आस्था के पोषक श्री बैरागी को उनके प्रशंसक दादा कहकर सम्बोधित करते थे। साहित्य में गरिमा बनाए रखना व राजनीति में कालिख से बचना कठिन है किंतु बैरागी जी ने दोनों ही क्षेत्रों का गौरव अक्षुण्ण रखा । देश को उन्होंने कई प्रसिद्घ नारे दिए । उनकी कई पुस्तकें, उपन्यास, काव्य-संग्रह, यात्रा संस्मरण आदि देश भर के लगभग सभी संग्रहालयों में उपलब्ध हैं। सभी धर्मो का वे सम्मान करते थे। वे कहते थे मैं आध्यात्मिक हूं, धार्मिक नहीं। धर्म के आडम्बर से दूर रहते हुए वे धर्म के मर्म तक पहुंचे । सभी धर्म ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। देश भर के कई पत्र-पत्रिकाओं में उनका लेखन निरंतर प्रवाहमान रहा। नई पीढ़ी को सदा उन्होंने प्रोत्साहन दिया। उनके इन्हीं गुणों के साथ देश के शीर्ष साहित्यकारों में उनकी गणना होती थी। कथनी से अधिक करनी में विश्वास करने वाले बैरागीजी अपनी कर्मठता व परिश्रमी स्वभाव से आज भी प्रेरणापुुंज बने हुए है।

(विभूति फीचर्स)

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