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कविता : शीत पवन तुम धीर धरो

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शैलेंद्र

शीत पवन तुम धीर धरो, अब उर अग्नि को गाना है,

धरती के कंपते आँगन में अब बसंत को आना है।

 

रंग हैं जितने इस सृष्टि में सब के सब खिल जाते हैं,

रूप सुधा और यौवन मिल कर मादक धुनें सुनाते हैं।

 

जंगल, उपवन, नगर, गाँव सब बौराए से लगते हैं,

किंतु ज्ञान की देवी का वंदन भी संग संग करते हैं।

 

है बसंत भावुक संयोजन ज्ञान, काम के रंगों का,

सभी इंद्रियों के इक धुन में बजते हुए मृदंगों का।

 

जब व्यक्ति के ध्यान, कर्म से स्वार्थ अलग हो जाता है, धड़कन, साँसें, मन, बुद्धि में तब आनंद समाता है ।

धर्म, अर्थ और काम, मोक्ष के राग, सुरों में गाएँ ,

जब जीवन के निर्जन उपवन में, तब बसंत छा जाता है।

 

राग, रंग, धुन, धूनी, चारों मौसम के पुरुषार्थ हैं,

ये ना रहे तो कैसे मौसम जंगल जंगल गाएँगे?

ये ना रहे तो कैसे रति को कामदेव मिल पाएँगे ?

 

पेड़, जंगल, बाग़ ये हैं मौसमों के मायके,

ये जो रहेंगे तो ही मौसम लौटकर घर आएँगे॥ *

(विनायक फीचर्स)

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