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प्रयागराज महाकुंभ:हरि अनंत हरि कथा अनंता

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राघवेंद्र शर्मा

 

आजकल जहां देखो वहां महाकुंभ की ही चर्चा है। हो भी क्यों ना, आखिर यह महापर्व पूरे 144 साल बाद आया है। इस महापर्व को लेकर सभी के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसके भौतिक स्वरूप को ही सनातन साबित करने में लगा हुआ है। तो कुछ-कुछ कालनेमि स्वरूप स्वयंभू विद्वानों ने इसमें खोज खोज कर कमियां निकालने का काम हाथ में ले रखा है। इन सबसे बेखबर श्रद्धालुओं, संत, महात्मा, साधु, सन्यासियों का जो हुजूम है, वह अपनी मस्ती में मस्त है और स्वयं को अमृत की बूंद को प्राप्त करने में सफल मानकर आनंदित है। और ज्यादा गहनता से देखेंगे तो हमें महाकुंभ के अनेक स्वरूप और पहलू देखने को मिल जाएंगे। जैसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा भी है –

*जाकी रही भावना जैसी।*

*प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी।।*

या फिर विद्वानों के लिए लिखा गया है-

*हरि अनंत हरि कथा अनंता।*

*कहई सुनई बहु विधि बहू संता।।*

अर्थात इस महापर्व कुंभ को जो जिस भावना से देख रहा है वह उसका उतना ही स्वरूप देख पा रहा है। इस अद्भुत,अनूठे और अनोखे महाकुंभ को लेकर जितने मत हैं उतनी ही बातें हैं। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हम इसके वास्तविक स्वरूप को जान पाएं और अन्य लोगों की जिज्ञासाओं को भी शांत कर सकें। शायद तब ही हम हमारे त्यौहारों को लेकर उठने वाले सवालों का स्थाई रूप से शमन कर पाएं। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी बात यह है कि हम पहले अपने त्यौहारों, संस्कारों, संस्कृतियों और सनातन के बारे में सामान्य ज्ञान तो हासिल कर ही लें। उदाहरण के लिए- हमें यह पता होना चाहिए कि आखिर कुंभ मनाया क्यों जाता है और यह महाकुंभ क्या है। यदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि कुंभ और महाकुंभ का समुद्र मंथन से गहरा नाता है। जब इंद्र सहित अधिकतम देवताओं से रुष्ट होकर दुर्वासा मुनि ने उन्हें शक्ति विहीन होने का श्राप दिया तो देवताओं का पराभव होने लगा। फल स्वरुप आसुरी शक्तियां प्रबल होने लगीं और देवता उनसे हार कर यहां वहां शरण लेने को बाध्य हुए हो गए। तब विचार विमर्श किया गया कि आखिर देवताओं को शक्ति मिले तो मिले कैसे? कैसे देवता एक बार पुनः आसुरी शक्तियों को पराजित कर पाएं और अपने ऐश्वर्या वैभव को हासिल कर सकें! तब एक रास्ता यह निकला कि समुद्र मंथन किया जाए। इसमें से अन्य जो भी रत्न प्राप्त हों, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण अमृत होगा। यदि यह अमृत देवताओं के हाथ लग जाए तो यह वर्ग एक बार फिर स्वर्ग सहित अन्य ऐश्वर्य वैभवपूर्ण स्थानों पर अपना आधिपत्य हासिल कर सकेगा। तब एक सुनियोजित रणनीति के तहत असुरों से बात की गई। भगवान भोलेनाथ को मध्यस्थ बनाकर समुद्र मंथन के लिए असुरों को तैयार किया गया। इस प्रकार समुद्र मंथन शुरू हुआ। जिसमें मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया और वासुकी नाग का रस्सी की तरह प्रयोग किया गया। इस समुद्र मंथन से कुल 14 रत्न प्राप्त हुए। उनके नाम क्रमशः कालकूट विष, कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा नाम की अप्सरा, लक्ष्मी देवी, वारुणी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, और अमृत हाथ में लेकर प्रकट हुए धन्वंतरि भगवान। सबसे अंत में अमृत कलश प्राप्त हुआ, उसे लेकर देवताओं और असुरों में युद्ध छिड़ गया। हर कोई अमृत पीकर अमर हो जाना चाहता था। इसे असुरों से बचाने की पहली जिम्मेदारी इंद्र के पुत्र जयंत को मिली। वह अमृत कलश लेकर स्वर्ग की ओर भागा तो असुरों से झड़प हो गई। फलस्वरुप अमृत की कुछ बूंदें कलश से छलक कर चार स्थानों पर गिर पड़ीं। इन स्थानों के नाम हैं उज्जैन, नासिक, हरिद्वार और प्रयागराज। यही वे चारों स्थान हैं जहां पर क्षिप्रा, गोदावरी, गंगा जी और त्रिवेणी संगम पर 12 साल के अंतर से कुंभ पर्व आयोजित होते हैं।

*कुंभ महापर्व 12 साल में एक बार ही क्यों?*

इस बारे में जानकारी मिलती है कि यह देव असुर संग्राम पूरे 12 दिनों तक चला। चूंकि देवताओं का एक दिवस मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। यही वजह है कि देवताओं के 12 दिन बीतते हैं तब तक पृथ्वी पर 12 साल का समय गुजर जाता है। फलस्वरुप एक स्थान पर कुंभ का मेला 12 साल के अंतर से ही संपन्न हो पता है। जबकि चारों स्थानों पर क्रमशः आयोजित होने वाले कुंभ के मेलों में चार-चार सालों का अंतर बना हुआ है। जब प्रत्येक स्थान पर 12 – 12 कुंभ आयोजित हो जाते हैं तब इनमें से अंतिम कुंभ को महाकुंभ कहा जाता है, जो 144 वर्ष के बाद आयोजित होता है और इसके लिए प्रयागराज स्थान धर्म शास्त्रों द्वारा नियत है। इस हिसाब से देखा जाए तो पिछला महाकुंभ पर्व वर्ष 1881 में पड़ा था और अब अगला महाकुंभ पर्व वर्ष 2169 में पड़ने वाला है। यानि जिन लोगों ने पिछला महाकुंभ देखा वे अब जीवित नहीं है और जो लोग 2025 का कुंभ महापर्व देख पा रहे हैं वह 2169 का कुंभ महापर्व नहीं देख पाएंगे। इस दृष्टि से 2025 का कुंभ महापर्व अति विशिष्ट हो चला है। यही वजह है कि केवल देश भर से ही नहीं, बल्कि दुनिया भर से सनातन श्रद्धालु महाकुंभ की ओर बढ़ चले हैं और बढ़ते ही चले जा रहे हैं। हर कोई त्रिवेणी संगम पर आयोजित महाकुंभ में अमृत की बूंदे पा लेना चाहता है और अपने पापों को धोने का शुभ अवसर हाथों से नहीं जाने देना चाहता।

कुंभ का मेला खगोलीय विज्ञान के हिसाब से भी भारत की विद्वता को वैश्विक स्तर पर प्रतिपादित करता है। क्योंकि 12 साल में कुंभ लगने का एक कारण बृहस्पति ग्रह की गति को भी माना जाता है –

जब बृहस्पति ग्रह, वृषभ राशि में हों और इस दौरान सूर्य देव मकर राशि में आते हैं, तो कुंभ प्रयागराज में होता है। इसी तरह जब बृहस्पति, कुंभ राशि में हों और इस दौरान सूर्य देव मेष राशि में आते हैं,तो हरिद्वार में कुंभ होता है। सूर्य और बृहस्पति जब सिंह राशि में हों तब नासिक में कुंभ लगता है। जब देवगुरु बृहस्पति सिंह राशि में हों और सूर्य मेष राशि में हों, तो कुंभ उज्जैन में होता है।

*पाप कैसे नष्ट होते है?*

कुंभ स्नान का महत्व हिंदू धर्मग्रंथों में विस्तार से वर्णित है। मान्यता है कि कुंभ में स्नान करने से व्यक्ति के सभी पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस बारे में भी सनातन का सदैव विरोध करने वाले कालनेमियों द्वारा कुतर्क दिए जाते हैं कि कुंभ मेले में कुछ नदियों में स्नान भर कर लेने से लोगों के पाप कैसे धुल सकते है? इस शंका का समाधान भी शास्त्रों में वर्णित है –

भगवान शंकर से एक बार माता पार्वती ने पूछा कि गंगा नदी में स्नान करने से क्या वास्तव में जीव मात्र के पाप धुल जाते हैं? तो भोलेनाथ ने कहा कि हां यह सत्य है। अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए भगवान शंकर कुष्ठ रोगी का बेहद घृणित स्वरूप बनाते हैं और माता पार्वती को अपूर्व सुंदरी बनाकर गंगा तट पर पहुंच जाते हैं। यहां माता पार्वती गंगा तट पर आए अनेक लोगों से अनुनय विनय करती हैं। मेरे पति को गंगा की धारा तक पहुंचा दो, आपकी कृपा होगी। लेकिन भगवान शंकर का घृणित स्वरूप देखकर हर कोई नाक भों सिकोड़ता है तथा आगे बढ़ जाता है। इसी के साथ अधिकांश लोगों की रुचि माता पार्वती के यौवन एवं रूप लावण्य में संलग्न दिखाई देती है। दिन ढलने के समय एक मस्तमौला श्रद्धालु दिखाई देने पर माता पार्वती उससे भी वही प्रार्थना करती हैं। वह व्यक्ति कहता है कि माता तेरा पति बहुत भारी है। मैं अकेला इसे नहीं ले जा पाऊंगा। इसके एक कंधे को तू सहारा दे, एक कंधे को मैं सहारा देता हूं। दोनों इसे गंगा की धारा में ले जाकर नहलाते हैं। गंगा जी में पाप धुलने से शायद इसका कुष्ठ रोग दूर हो जाए! माता पार्वती और वह युवक सहारा देकर शंकर जी को गंगा की धारा में ले गए और उन्हें प्रेम पूर्वक स्नान कराया। युवक का धर्म और दायित्व के प्रति निश्छल प्रेम एवं समर्पण देखकर भगवान शंकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करके उक्त युवक को वरदान दिया, तुम्हारे समस्त पाप मिट गए और तुम मोक्ष के अधिकारी हो। आशय यह कि यदि स्नान तन के साथ मन का भी हो तो गंगा, यमुना, सरस्वती या क्षिप्रा, कोई भी नदी हो, पाप तो धुलना ही धुलना है।

इसके अलावा, कुंभ मेला आध्यात्मिक ज्ञान, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सामाजिक समरसता का भी प्रतीक है। यहां कई आध्यात्मिक और धार्मिक सभाएं आयोजित होती हैं, जिनमें साधु-संतों के प्रवचन, योग साधना और विभिन्न अनुष्ठान शामिल होते हैं।

पौराणिक कथाओं में कहा जाता है कि प्रजापति ब्रह्मा ने यमुना और गंगा के संगम पर स्थित दशाश्वमेध घाट पर अश्वमेध यज्ञ करके ब्रह्मांड का निर्माण किया था, जिसके कारण प्रयागराज का कुंभ सभी कुंभ त्यौहारों में सबसे महत्वपूर्ण है। कुंभ मेले का सामाजिक महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह दुनिया का एकमात्र ऐसा आयोजन है जिसके लिए किसी आमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी लाखों तीर्थयात्री इस विशाल आयोजन के लिए आते हैं। कुंभ मेला एक सामाजिक संदेश भी देता है, जो सभी मनुष्यों के कल्याण, अच्छे विचारों को साझा करने और रिश्तों को बनाए रखने और मजबूत करने का है। मंत्रों का जाप, पवित्र व्याख्याएँ, पारंपरिक नृत्य, भक्ति गीत और पौराणिक कहानियाँ लोगों को एक साथ लाती हैं, जिससे कुंभ का सामाजिक महत्व झलकता है। कुंभ मेले में पवित्र नदियों में स्नान करना अत्यधिक शुभ माना जाता है। माना जाता है कि इस दौरान नदियों का जल अमृत के समान पवित्र होता है। इसलिए इस दौरान श्रद्धालु दूर-दूर से स्नान करने आते हैं। प्रयागराज के संगम स्थल, जहां गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है, को विशेष धार्मिक महत्व प्राप्त है। श्रद्धालु यहां स्नान कर अपने पापों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

विश्व के सर्वाधिक महान इस मेले में करोड़ों लोग पुण्य स्नान कर चुके हैं, जबकि करोड़ों ही अभी इसमें भाग लेने वाले हैं। सर्वाधिक सुंदर बात यह देखने को मिली कि इस मेले में केवल भारतीय मूल के लोग ही नहीं, वरन् उन देशों के लोग भी पहुंचे जो पश्चिमी सभ्यता से त्रस्त होकर अब शांति की खोज में सनातन धर्म की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। सनातन धर्म का इससे अधिक सर्वोत्तम स्वरूप और क्या हो सकता है कि कुंभ महापर्व में एक शिविर ऐसा भी लगा हुआ है, जहां यूक्रेन और रूस के लोग एक साथ बैठकर हरे रामा हरे कृष्णा का पावन जाप कर रहे हैं। दुनिया भर के महापंडित और वैज्ञानिक भारत की इस पुरातन धरोहर का अध्ययन करने कुंभ मेले में पहुंचे हुए हैं। हर कोई अचंभित है और समझने का प्रयास कर रहा है कि भारतवर्ष की संस्कृति और सनातन में ऐसा क्या आकर्षण है, कि स्थान विशेष पर करोड़ों लोग, बिना किसी निमंत्रण के स्वत:स्फूर्त होकर एक अदृश्य डोरी में बंधे हुए खिंचे चले आते हैं। सत्य है, सनातन धर्म केवल मनुष्य ही नहीं, जीव मात्र के लिए भी कल्याणकारी ईश्वरीय मार्ग है। क्योंकि विश्व भर में मत और संप्रदाय तो अनेक हैं, किंतु धर्म एकमात्र सनातन ही है जो सबके मंगल की कामना करता है।

*सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:*

*सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चिद दुख भाग्भवेत।।

(विभूति फीचर्स)

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