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धन्नो , बसंती और बसंत

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विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

बसंत बहुत फेमस है पुराने समय से,बसंती भी धन्नो सहित शोले के जमाने से फेमस हो गई है। बसंत हर साल आता है,जस्ट आफ्टर विंटर। उधर कामदेव पुष्पों के बाण चलाते हैं और यहाँ मौसम सुहाना होने लगता है। बगीचों में फूल खिल जाते हैं। हवा में मदमस्त गंध घुल जाती है।भौंरे गुनगुनाने लगते हैं। रंगबिरंगी तितलियां फूलों पर मंडराने लगती है। जंगल में मंगल होने लगता है। लोग बीबी बच्चों,मित्रों सहित पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं। बसंती के मन में उमंग जाग उठती है। उमंग तो धन्नो के मन में भी जागती ही होगी पर वह बेचारी हिनहिनाने के सिवाय और कुछ नया कर नहीं पाती। कवि और साहित्यकार होने का भ्रम पाले हुये बुद्धिजीवियों में यह उमंग कुछ ज्यादा ही हिलोरें मारती पाई जाती है।वे बसंत को लेकर बड़े सेंसेटिव होते हैं।अपने अपने गुटों में सरस्वती पूजन के बहाने कवि गोष्ठी से लेकर साहित्यिक विमर्श के छोटे बड़े आयोजन कर डालते हैं। डायरी में बंद अपनी पुरानी कविताओं को समसामयिक रूपकों से सजा कर बसंत के आगमन से 15 दिनों पहले ही उसे आभास कर परिमार्जित कर डालते हैं और छपने भेज देते हैं। यदि रचना छप गई तब तो इनका बसंत सही तरीके से आ जाता है वरना संपादक पर गुटबाजी के षडयंत्र का आरोप लगाकर स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाकर दिलासा देना मजबूरी होती है।

सोशल मीडिया की स्व संपादन सुविधा से इन्हें राहत मिली है,अब इधर लिखा उधर पोस्ट किया, सात समुंदर पार से लाइक और कमेंट भी आ जाते हैं, जिससे रचना के उम्दा होने का भ्रम बना रहता है।

चित्रकार बसंत पर केंद्रित चित्र प्रदर्शनी के आयोजन करते हैं।कला और बसंत का नाता बड़ा गहरा है। बरसात होगी तो छाता निकाला ही जायेगा,ठंड पड़ेगी तो स्वेटर पहनना ही पड़ेगा,चुनाव का मौसम आयेगा तो नेता वोट मांगने आयेंगे ही,परीक्षा का मौसम आयेगा तो नकल करवाने के ठेके होगें,पेपर आउट होने की घटनाएं होंगी ही। दरअसल मौसम का हम पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। सारे फिल्मी गीत गवाह हैं कि बसंत के मौसम से दिल वेलेंटाइन डे टाइप का हो ही जाता है। बजरंग दल वालों को भी हमारे युवाओं को संस्कार सिखाने के अवसर और पिंक ब्रिगेड को नारी स्वातंत्र्य के झंडे गाड़ने के स्टेटमेंट देने के मौके मिल जाते हैं। बड़े बुजुर्गो को जमाने को कोसने और दक्षिणपंथी लेखको को नैतिक लेखन के विषय मिल जाते है। दार्शनिक चिंतन धन्नो को प्रकृति के मूक प्राणियों का प्रतिनिधि मानता है,बसंती आज की युवा नारी को रिप्रजेंट करती है, जो सारे आवरण फाड़कर अपनी समस्त प्रतिभा के साथ दुनिया में छा जाना चाहती है। आखिर इंटरनेट पर एक क्लिक पर अनावृत होती बसंतियां स्वेच्छा से ही तो यह सब कर रही हैं। बसंत प्रकृति पुरुष है। वह अपने इर्द गिर्द रंगीनियां सजाना चाहता है,पर प्रगति की कांक्रीट से बनी गगनचुम्बी चुनौतियां , कारखानों के हूटर और धुंआ उगलती चिमनियां बसंत के इस प्रयास को रोकना चाहती हैं,बसंती के नारी सुलभ परिधान,नृत्य,रोमांटिक गायन को उसकी कमजोरी माना जाता है। बसंती के कोमल हाथो में फूल नहीं कार की स्टियरिंग थमाकर,जीन्स और टाप पहनाकर उसे जो चैलेंज जमाना दे रहा है,उसके जबाब में नेचर्स एनक्लेव बिल्डिंग के आठवें माले के फ्लैट की बालकनी में लटके गमले में गेंदे के फूल के साथ सैल्फी लेती बसंती ने दे दिया है । हमारी बसंती जानती है कि उसे बसंत और धन्नो के साथ सामंजस्य बनाते हुये कैसे रूढ़ मानसिकता से जीतते हुये अपना पिंक झंडा लहराना है।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

(विनायक फीचर्स)

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