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सावित्री और फातिमा : एक अभिन्न जीवन

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सावित्री और फातिमा : एक अभिन्न जीवन*

(आलेख : सुभाषिणी अली, अनुवाद : संजय पराते)*

 

सदियों से शक्तिशाली लोगों द्वारा राजनीतिक और वैचारिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐतिहासिक घटनाओं और यहां तक कि ऐतिहासिक व्यक्तियों को मिटाने का काम किया जाता रहा है। यह कोई संयोग नहीं है कि प्रथम महान सम्राट अशोक को उनके जन्म के बाद लगभग दो हज़ार साल तक उनकी अपनी जन्मभूमि में ही कोई नहीं जनता था। 1837 में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासक जेम्स प्रिंसेप द्वारा अशोक साम्राज्य के, विभिन्न भागों में वितरित किए गए, स्तंभों पर लिखे शिलालेखों को समझने के बाद ही उनके अस्तित्व और उनके महत्व के तथ्य उनके साथी भारतीयों को ज्ञात हुए और जल्द ही उन्हें स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की पुस्तकों में शामिल कर लिया गया। यह बहुत संभव है कि अशोक को मिटाने का काम, उन लोगों द्वारा जानबूझकर किया गया काम था, जिन्होंने ज्ञान और उसके प्रसार का अधिग्रहण करके, उस तक पहुंच पर अपना एकाधिकार जमा लिया था और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बनाए रखने और मजबूत करने के लिए अडिग थे। इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने इस एकाधिकार को जारी रखना सुनिश्चित किया। अशोक एक बौद्ध सम्राट था, जिसने अपने पूरे साम्राज्य में तथा उसके बाहर, बौद्ध विश्वासों का प्रचार किया तथा महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों का विकास किया, जिससे तीर्थ यात्राओं को प्रोत्साहन मिला। अतः ब्राह्मणवादी पुनरुत्थान के लिए यह विलोपन आवश्यक हो गया था।

 

हाल के वर्षों में, इतिहास को मिटाने और इसका मिथ्याकरण करने का हम अनुभव कर रहे हैं। इसका उद्देश्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिए आरएसएस के नेतृत्व वाली हिंदुत्व परियोजना के तहत विभिन्न मुस्लिम शासकों के जीवन और उनकी उपलब्धियों को शैतानी बताना और कमतर आंकना है। हाल ही में हुई एक घटना ने अब यह प्रदर्शित किया है कि समाज सुधारकों को भी अब विलुप्त करने और मिटा दिए जाने का खतरा है। एक प्रसिद्ध पत्रकार, श्री दिलीप मंडल, जिन्होंने एक ‘बहुजन’ प्रचारक के रूप में पहचान हासिल की है और जिन्होंने वर्षों तक जाति व्यवस्था की बदनामी, सामाजिक सुधार, धर्मनिरपेक्षता के बारे में शोध और लेखन किया है, ने हाल ही में अपने कई प्रशंसकों और पाठकों को तब चौंका दिया, जब उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा सलाहकार के पद पर नियुक्त किया गया। उन्होंने अब खुद को हिंदुत्व ताकतों के लिए एक मेहनताना प्राप्त (पेड) प्रचारक के रूप में बदल लिया है। आश्चर्य की बात नहीं है कि सोशल मीडिया पर उनकी टिप्पणियां और ब्लॉग तेजी से मुस्लिम विरोधी हो गए हैं। अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए, उन्होंने पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ इस आधार पर हमला किया है कि वे मूल रूप से सुधार करने में असमर्थ हैं और इसलिए यह बहुजन के सामाजिक न्याय आंदोलन के लिए एक बाधा के रूप में कार्य करता है। वे मुगल शासकों को उच्च जाति के हिंदुओं को बढ़ावा देने और जाति व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए दोषी ठहराते हैं, क्योंकि मंडल का मानना है कि मुगलों के पास इसे नष्ट करने की शक्ति थी। यह तथ्य कि वे ब्रिटिश शासकों को उसी आधार पर दोषी नहीं ठहराते हैं, न केवल उनकी बौद्धिक बेईमानी को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि उन्होंने अब अपनी स्वयं के घोषणाओं को उन हिंदुत्ववादी ताकतों के एजेंडे के साथ जोड़ दिया है, जो स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान भी ब्रिटिश शासन के समर्थक थे और बाद में साम्राज्यवाद के समर्थक रहे हैं। मुस्लिमों के खिलाफ उनके द्वारा उगला गया जहर प्रत्येक ब्लॉग और पोस्ट के साथ बढ़ता गया है और यह बहुजनों और मुस्लिमों के बीच एक अपूरणीय खाई पैदा करने का काम करता है। वास्तव में, बहुजनों को मुस्लिमों से घृणा करने के लिए मजबूर करने की उनकी कोशिश न केवल सामाजिक न्याय के लिए उनकी प्रतिबद्धता की कमी के कारण है, बल्कि इसलिए भी है, क्योंकि वे इस तर्क को गढ़ते हैं कि सामाजिक समानता के लिए अपने स्वयं के संघर्षों की विफलताओं और कमजोरियों के लिए मुस्लिम ही जिम्मेदार हैं।

 

हाल ही में, घृणित छल-कपट का एक आश्चर्यजनक प्रदर्शन करते हुए, मंडल ने न केवल कम चर्चित, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण मुस्लिम महिला, फातिमा शेख, जो सामाजिक समानता और लैंगिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध थी, की यादों को मिटाने का न केवल बीड़ा उठाया है, बल्कि वास्तव में उसके अस्तित्व को ही नकार दिया है। उन्होंने यह बेतुका दावा किया है कि फातिमा शेख उनकी अपनी कल्पना की उपज है, जिसे उन दिनों धर्मनिरपेक्षता के महत्व को बढ़ावा देने के लिए गढ़ा गया था, जब वे खुद एक प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे!

 

मंडल जैसे लोगों का, अपने पापों से मुक्ति पाने की प्रबल भावना के साथ, इस तरह के दावे करना आश्चर्यजनक है! हाल के वर्षों में, फातिमा शेख का नाम सावित्री बाई फुले के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया है, जिन्होंने काफी प्रतिष्ठा अर्जित की है। सावित्री बाई खुद कुछ दशक पहले तक बहुत व्यापक रूप से नहीं जानी जाती थीं। 70 के दशक के महिला आंदोलन ने उन्हें फिर से खोजा और महिलाओं सहित कई विद्वानों ने उनके असाधारण जीवन और योगदान के विवरण को उजागर किया। तब तक अगर उन्हें याद किया जाता था, तो वह ज्योतिबा फुले की पत्नी के रूप में था, जो ब्राह्मणवादी मान्यताओं और सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ अदम्य योद्धा थीं, जिन्होंने उस पुणे में इनका सामना करने का साहस किया था, जो 1818 में पेशवाई की हार के बाद भी कई वर्षों तक ब्राह्मणवाद का गढ़ बना रहा ; एक ऐसी पेशवाई, जिसने मनुवादी वर्णाश्रम धर्म या जाति व्यवस्था के सबसे क्रूर पहलुओं को लागू करने में गर्व महसूस किया था।

 

हमारे इतिहास में, कई महिलाएं, जिनमें से अधिकांश उत्पीड़ित जातियों से संबंधित हैं और जिन्होंने दमघोंटू सामाजिक मानदंडों और जाति और लिंग उत्पीड़न का सामना करने का साहस किया, आंशिक रूप से या पूरी तरह से हमारी यादों से मिटा दी गई हैं। उनकी कविताओं के अंश और उनके इतिहास के टुकड़े ही हमें उनके साहसी जीवन और इतिहास के बारे में बताते हैं। हाल के वर्षों में, श्रमसाध्य शोध, जो अक्सर महिलाओं द्वारा किया जाता है, उन्हें पुनर्जीवित कर रहा है।

 

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पिछड़ी जाति के बुनकर समुदाय से ताल्लुक रखने वाली मुस्लिम महिला फातिमा शेख को सालों से कोई याद नहीं करता। दरअसल, सावित्री बाई के जीवन में दिलचस्पी ने ही फातिमा शेख को जीवित रखा है!

 

ज्योतिबा की पत्नी के रूप में सावित्री बाई का नाम मिटाया नहीं जा सका और हर बीतते साल के साथ उनके पत्र, उनकी कविताएँ, उनके लेख और उनकी कहानियाँ खोजी और प्रकाशित की गईं और उन्होंने प्रतिष्ठा हासिल की है। 3 जनवरी को उनकी जयंती सामाजिक न्याय और समानता के लिए समर्पित बहुत से संगठनों द्वारा मनाई गई है, जिसमें जनवादी महिला समिति जैसे कई महिला संगठन शामिल हैं। महिलाओं और वह भी सबसे अधिक शोषित और बहिष्कृत समूहों – विधवाओं, अविवाहित माताओं, पिछड़ी जातियों और दलितों – की महिलाओं द्वारा साक्षरता तक पहुंच में उनके योगदान को अब जाना जाता है, अध्ययन किया जाता है और स्वीकार किया जाता है।

 

सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को हुआ था और 9 साल की उम्र में उनका विवाह ज्योतिबा से हुआ था। बचपन में ही उन्होंने अपने भाइयों को पढ़ना-लिखना सीखते देखा था और वह उनकी किताबों को देखने की कोशिश करती थीं। इसके लिए उन्हें डांटा गया और कहा गया कि अगर वह शिक्षित होने की कोशिश करेगी, तो अविवाहित रहेगी। बहरहाल, किताबों के प्रति उनका प्यार इतना ज़्यादा था कि वह अपने साथ एक किताब लेकर अपने ससुराल गई थीं!

 

सावित्री, कई अन्य बाल वधुओं से भिन्न, भाग्यशाली थी। ज्योतिबा न केवल दयालु और विचारशील थे, बल्कि उन्होंने उसे मराठी और अंग्रेजी दोनों पढ़ना भी सिखाया। ज्योतिराव ने स्वयं केवल सातवीं कक्षा तक ही शिक्षा प्राप्त की थी, जब उनके गांव के ब्राह्मणों ने उनके पिता को उन्हें स्कूल से निकाल देने पर मजबूर कर दिया। सौभाग्य से, स्कूल निरीक्षक गफ्फार मुंशी ने ज्योतिराव फुले को अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए मना लिया, (टाइम्स ऑफ इंडिया, 25 सितंबर 2023)।

 

ज्योतिराव ने शिक्षा के मुक्तिदायी स्वभाव को समझते हुए, सावित्री और अपनी चचेरी बहन सुगना को पढ़ाने के लिए काफी कष्ट उठाए। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने के बाद, फुले दंपत्ति अहमदनगर में लड़कियों के लिए एक ईसाई मिशनरी स्कूल गए, जहां पर्यवेक्षक सुश्री सिंथिया फरार थीं। सावित्री ने यहां सुश्री फरार के अधीन शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। एक युवा मुस्लिम महिला, फातिमा शेख, उनकी सहपाठी थी।

 

सावित्री ने अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद, ज्योतिबा के साथ मिलकर 1848 में पिछड़े और दलित समुदायों की लड़कियों के साथ-साथ युवा विधवाओं और अविवाहित माताओं को पढ़ाने के लिए पहला स्कूल खोला। यह बहुत साहस का काम था और इसने पुणे के ब्राह्मण समुदाय को तुरंत क्रोधित कर दिया, जो मनुस्मृति के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध और अडिग था। ब्राह्मणों ने ज्योतिबा के पिता को दोनों को घर से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर दिया।

 

ज्योतिबा के पुराने दोस्त गफ्फार मुंशी ने उनकी मदद की और उन्हें उस्मान शेख से मिलने के लिए कहा, जो सावित्री की सहपाठी फातिमा शेख का भाई निकला। जिस तरह सावित्री को ज्योतिबा जैसा पति मिला था, उसी तरह फातिमा को भी उस्मान जैसा भाई मिला था, जो उस समय के हिसाब से सबसे असामान्य व्यक्ति था, जिसने उसे एक शिक्षक के रूप में शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हर संभव प्रयास किया था।

 

जब ज्योतिबा उस्मान से मिले और उन्हें अपनी दुर्दशा के बारे में बताया, तो उस्मान ने तुरंत उन्हें और सावित्री को अपने घर में रहने के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद, फातिमा अनैतिक और बहिष्कृत समझी जाने वाली महिलाओं और लड़कियों को शिक्षित करने के सावित्री के मिशन का हिस्सा बन गईं और उन्हें वही हमले और अपमान सहने पड़े, जो सावित्री के रोज़मर्रा के अनुभव का हिस्सा बन गए थे।

 

कुछ ही वर्षों में सावित्री और फातिमा ने पुणे में 18 स्कूल शुरू कर दिए। सावित्री जहां सामाजिक प्रकृति की अन्य गतिविधियों में शामिल हो गईं, वहीं स्कूल चलाने की जिम्मेदारी फातिमा ने धीरे-धीरे संभाल ली। बाल विवाह की प्रचलित प्रथा के कारण, कई युवा लड़कियां विधवा हो गईं थीं। उनका जीवन एक जीवित मृत्यु के समान था। उनमें से कुछ गर्भवती हो जाती थीं, क्योंकि उन्हें अपने वैवाहिक घरों में प्रायः यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता था और कभी-कभी इसलिए, क्योंकि उन्होंने संबंध बना लिए थे। एकल माताओं के रूप में उन्हें अक्सर आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ता था। 1853 में ज्योतिबा और सावित्री ने ऐसी बहिष्कृत महिलाओं के लिए अपने आश्रम, ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ के दरवाजे खोल दिए। आज भी, यह एक बहुत ही साहसी कदम होगा। लेकिन उन दिनों, ब्राह्मणवादी मनुवाद के गढ़ में, यह अकल्पनीय था। लेकिन ज्योतिबा और सावित्री ने मिलकर लगातार वह काम किया, जो दूसरों के लिए करना अकल्पनीय था!

 

आश्रम में रहने वाली महिलाओं को कुछ ऐसे हुनर सिखाए गए, जिससे उन्हें अपनी आजीविका कमाने में मदद मिली और उनके बच्चों को सावित्री और फातिमा द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में भर्ती कराया गया। आश्रम में लाई गई गर्भवती महिलाओं में से एक काशीबाई थी। उसके बेटे यशवंत को ज्योतिबा और सावित्री ने गोद लिया और उसकी शिक्षा-दीक्षा कराई और वह एक चिकित्सक बन गया।

 

ज्योतिबा की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद, 1896 में बंबई और पुणे में प्लेग की महामारी फैली। सावित्री ने लोगों की मदद करने में खुद को समर्पित कर दिया और खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं। 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया। फातिमा शेख ने उन स्कूलों को चलाना जारी रखा, जिन्हें दोनों दोस्तों ने मिलकर शुरू किया था, लेकिन उनके जीवन के बारे में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। उनकी मृत्यु की तारीख अभी तक पता नहीं चल पाई है। उनके जन्म के बारे में, कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 9 फरवरी को हुआ था। सावित्री बाई ने कई डायरियां और कविताएं अपने पीछे छोड़ी हैं और ज्योतिबा को लिखे उनके पत्र भी अच्छी तरह से संरक्षित हैं। उन्होंने फातिमा के बारे में लिखा है : “जब मैंने 1854 में काव्य फुले प्रकाशित किया, तो मैंने जोर देकर कहा कि वह (फातिमा) अपनी कविताओं की एक पुस्तक भी प्रकाशित करें। उन्हें उर्दू का बहुत ज्ञान है और उन्होंने कई कविताएं लिखी हैं। दुख की बात है कि उन्होंने कभी प्रकाशित नहीं किया….।” इससे हमें पता चलता है कि फातिमा ने भी कविताएं लिखी हैं, लेकिन दुख की बात है कि उन्हें प्रकाश में नहीं लाया गया।

 

सावित्री बाई अक्सर कहती थीं कि दलित और पिछड़े समुदायों की लड़कियों के लिए स्कूल खोलने के उनके प्रयास सफल नहीं होते, अगर फातिमा शेख नाम की कोई महिला न होती, जिसके बारे में उन्होंने कहा था कि : “फातिमा मेरी सबसे करीबी दोस्त थी, लड़कियों की शिक्षा में हमारी सफलता में मेरी सबसे भरोसेमंद सहयोगी थी…।” सावित्री बाई और फातिमा शेख के जीवन ने हमारे देश की लाखों महिलाओं को प्रेरित किया है। उनकी दोस्ती और अनुकरणीय साहस के मजबूत बंधन कई लोगों के लिए ताकत का स्रोत रहे हैं। एक हिंदू और एक मुस्लिम महिला के बीच असाधारण रिश्ता, जिन्होंने कुछ समय के लिए एक घर भी साझा किया, एकता का एक अद्भुत उदाहरण है, जो सामाजिक न्याय के संघर्ष को सफल बनाने के लिए बहुत जरूरी है।

 

यही कारण है कि श्री मंडल ने यह कहने की हिम्मत की कि फातिमा शेख केवल उनकी कल्पना की उपज थी। जब तथ्यों और आंकड़ों के साथ इस बात को चुनौती दी गई, तो उन्होंने अपने दावे को संशोधित करते हुए कहा कि वह अस्तित्व में रही होंगी, लेकिन केवल सावित्री बाई की नौकरानी के रूप में। फातिमा शेख को एक मुस्लिम महिला समाज सुधारक के रूप में स्वीकार करना, जिसका अपना भाई सुधार और सामाजिक न्याय दोनों के लिए प्रतिबद्ध था, मंडल की इस धारणा की नींव हिला देता है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमान न केवल सामाजिक सुधार करने में असमर्थ हैं, बल्कि वास्तव में बहुजनों के लिए सामाजिक न्याय के मार्ग में बाधा डालते हैं।

 

सौभाग्य से, इसकी बहुत कम संभावना है कि मंडल के प्रयासों को कोई सफलता मिलेगी। लेकिन, यह समझना महत्वपूर्ण है कि उनके जैसे हिंदुत्व समर्थक सामाजिक न्याय के संघर्ष को नुकसान पहुंचाने और विभाजित करने के लिए किस हद तक जाने को तैयार हैं। वे न केवल मुस्लिम सुधारकों की भूमिका, बल्कि उनके अस्तित्व को भी नकार कर और इस तरह सबसे अधिक उत्पीड़ित और शोषित लोगों की एकता को कमजोर कर रहे हैं, जो सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई की सफलता के लिए आवश्यक है।

 

यह उनकी अटूट एकता ही थी, जिसने सावित्री बाई और फातिमा शेख को उन मनुवादी ताकतों से मुकाबला करने की ताकत दी, जिन्होंने उनके साहसी सफर के हर कदम पर उनका अपमान किया। हाल के वर्षों में जिन हिंदुत्ववादी ताकतों ने बहुत ताकत और सफलता हासिल की है, वे कई मायनों में मनुवादी मान्यताओं और विश्वासों के वाहक हैं। जिस एकता ने सावित्री बाई और फातिमा शेख को ताकत दी, उनके संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए आज उसी एकता की और भी ज्यादा जरूरत है।

(लेखिका महिला आंदोलन की राष्ट्रीय नेत्री तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्षस्थ निकाय पोलिट ब्यूरो की सदस्य हैं। अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। )

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