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सादगी,संपन्नता, सुख-समृद्धि , शांति व ऐश्वर्य के भी प्रतीक हैं मिट्टी के दीपक

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सुनील कुमार महला

 

दीपावली (संस्कृत: दीपावलिः = दीप + आवलिः = पंक्ति) का अर्थ ही पंक्ति में रखे हुए दीपकों से होता है, लेकिन अब दीपावली पर मिट्टी के दीपक कम, चाइनीज़ लाइटें, लड़ियां, रंग-बिरंगे बल्ब, एलईडी लाइटें अधिक जलतीं नजर आतीं हैं। दीपावली रौशनी का त्योहार है,जो हमारे जीवन में रौशनी लाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि प्रकाश के इस त्यौहार का धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। प्रकाश का यह पर्व हम सभी को सीख देता है कि केवल बाहरी चकाचौंध ही नहीं, अपने मन के भीतर भी प्रकाश उत्पन्न करना जरूरी है। रौशनी के इस पवित्र त्यौहार पर पंच तत्वों के प्रतीक मिट्टी के दीपक आज जलते तो हैं लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या में लगातार कमी देखी जा रही है। जो बात मिट्टी के दीपकों में है वह चाइनीज़ लाइटों, झालरों व बल्बों में कहां है ? हमारी भारतीय सनातन संस्कृति और हमारे शास्त्रों में मिट्टी के दीपक को तेज, शौर्य और पराक्रम का प्रतीक माना गया है। जब भगवान श्रीराम चौदह साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब अयोध्यावासियों ने मिट्टी के दीये(घी के दीपक ) जलाकर उनका स्वागत व अभिनंदन किया था। वास्तव में, दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने के पीछे धार्मिक महत्व भी है। मिट्टी के दीपक न केवल हमारे पर्यावरण व प्रकृति का ध्यान रखते हैं, अपितु यह हमारी सादगी,संपन्नता, सुख-समृद्धि , शांति व ऐश्वर्य के भी प्रतीक हैं। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना पंचतत्वों से हुई है, जिसमें जल, वायु, आकाश, अग्नि और भूमि शामिल हैं। वास्तव में,मिट्टी का दीपक भी इन पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है। मिट्टी का दीपक वर्तमान का प्रतीक माना गया है, जबकि उसमें जलने वाली प्रज्ज्वलित ‘लौ’ भूतकाल का प्रतीक होती है। जब हम रुई की बाती डालकर दीप प्रज्जवलित करते हैं तो वह आकाश, स्वर्ग और भविष्यकाल का प्रतिनिधित्व करती है। मिट्टी मंगल ग्रह का प्रतीक है और मंगल साहस और पराक्रम का। तेल शनि भगवान का प्रतीक है। वहीं पर मिट्टी के दीपक में घी समृद्धि व शुक्र का प्रतीक माना जाता है।आज दीपावली इलैक्ट्रिक लाइटों का त्यौहार हो गई है। सच तो यह है कि आधुनिकता, शहरीकरण की चकाचौंध में हमारे प्राचीन रीति-रिवाज आज बहुत पीछे छूट रहे हैं। हिंदू धर्म में मिट्टी के दीपकों का बहुत महत्व है। पूजा-अर्चना से लेकर जन्म-मरण के विधि-विधानों में मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा हमारे देश में रही है। दीपक में ईश्वर का वास माना जाता है, इनमें देवी-देवताओं का तेज होता है, सकारात्मक ऊर्जा होती है। ऋग्वेद काल से लेकर हर युग व काल में दीपकों का महत्व किसी से छुपा नहीं हुआ है। हमारे वेदों, उपनिषदों में गाय के घी से दीपक जलाने के अनेक वर्णन मिलते हैं। द्वापर युग में कृष्ण द्वारा नरकासुर राक्षस वध के बाद वहां के वासियों ने दीपक जलाकर जीत की खुशी को प्रकट किया था। वास्तव में दीपक आत्मा के परमात्मा से मिलन का मार्ग खोलता है। मिट्टी का दीपक वास्तु दोष को समाप्त करने की अद्भुत क्षमता रखता है। आज घरों, दुकानों, प्रतिष्ठानों में रंग-बिरंगी लाइटें, झालरें भले ही जगमगाती हों लेकिन मिट्टी के दीपकों की आभा और नूर कुछ अलग ही दमकता व झलकता है। मिट्टी के दीपक जब जलते हैं तो वे हमें किसी दिव्यलोक का सा अहसास कराते हैं। मिट्टी के दीपक दुःख, आलस्य, निर्धनता को दूर करके जीवन में सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य, खुशी, स्फूर्ति, आनंद, ऐश्वर्य लाते हैं। आज मिट्टी के दीपकों से भले ही महंगाई , आधुनिकता व पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव के कारण, मिट्टी के दीपकों में तेल-बाती डालने के झंझटों के कारण भले ही मोह भंग हो गया हो, लेकिन मिट्टी के दीये के मुकाबले इलैक्ट्रोनिक लाइटें, झालरें, लड़ियों के प्रकाश की आभा कहीं भी नहीं ठहरती है। मिट्टी के दीपक जहां कीट-पतंगों का नाश करते हैं और हमारे पर्यावरण को शुद्ध बनाते हैं वहीं इलैक्ट्रोनिक लाइटें यह सब संभव नहीं कर पातीं हैं। आज कृत्रिम लाइटें, झालरें, लड़ियां कुम्हारों के रोजगार पर भी आफ़त बनकर टूट रही है। चाइनीज़ लाइटों, झालरों, लड़ियों के उपयोग से हम अपने देश की अर्थव्यवस्था पर भी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डाल रहे होते हैं। पर्यावरण संरक्षण तो दूर की बात इसलिए रह जाती है क्योंकि दीपावली पर होने वाले पटाखों के प्रदूषण को हम मिट्टी के दीपक जलाकर रोकते नहीं है। हमारा संपूर्ण ध्यान आधुनिक चकाचौंध पर होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि मिट्टी का एक छोटा सा दीया गहरे अंधकार में भी उजास की लौ जलाकर रखता है। मिट्टी से मानवजाति का जन्म-जन्मांतर का रिश्ता है और हम इस रिश्ते को लगातार भूल रहे हैं। मिट्टी हमारे पर्यावरण, हमारे परिवेश का अहम् और महत्वपूर्ण हिस्सा है।भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीला हो या माता पार्वती के जन्म की कहानी, मिट्टी का हर युग में वर्णन मिलता है। भारतीय संस्कृति में दीपों का इतिहास अति प्राचीन है। विशेषज्ञों व इतिहासकारों के मत के अनुसार शुरूआत में दीपक पत्थर को तराशकर बनाए गए होंगे, लेकिन धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ मिट्टी के दीपक बने। दीयाबत्ती या मोमबत्ती का आविष्कार भी 5 हजार साल से पहले हो गया था और इसके लिए वनस्पति तेल या जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल होता था। घरों में रौशनी के लिए मशालों, दीपकों और लालटेनों का विकास प्राचीन भारत, चीन और मिस्र की सभ्यताओं में हो गया था।पुरातत्विदों को सिंधु घाटी सभ्यता से आगे हर सभ्यताओं व विभिन्न राजवंशों के इतिहास में विभिन्न प्रकार के दीये प्राप्त हुए हैं।मोहनजोदड़ो की खुदाई में 5000 हजार ई०पू० के दीपक मिले हैं। यहां कमरों में दियों के लिये आले या ताक़ बनाए गए हैं, लटकाए जाने वाले दीप मिले हैं और आवागमन की सुविधा के लिए सड़क के दोनों ओर के घरों तथा भवनों के बड़े द्वार पर दीप योजना भी मिली है। इन द्वारों में दीपों को रखने के लिए कमानदार नक्काशीवाले आलों का निर्माण किया गया था। महाभारत के द्रोणापर्व में दीपों का सुंदर वर्णन मिलता है। यहां तक कि कल्हण की राजतरंगिणी में मणिदीप का वर्णन मिलता है। प्रसिद्ध कवि कालिदास ने ‘मेघदूत’ में भी मणिदीप का वर्णन किया है। भारतीय संगीत में भी दीपक का वर्णन मिलता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक राग का नाम दीपक राग रखा गया है। कहते हैं इसके गाने से दीपक अपने आप जलने लगते हैं। इतना ही नहीं, दक्षिण भारत में दीपदान की सोलह विधियों का वर्णन मिलता है। भारत में विभिन्न संप्रदायों के लोग अलग-अलग दीपों का प्रयोग करते हैं- जैसे हठयोगी का सीप दीप, शैव मतावम्बलियों का नाग व कीर्तिमुख दीप वैष्णवी शंख, चक्र, पद्य वरूण आकृतियों के दीप जलाते हैं। गाणपत्य दीपो में गणपति, हाथी, मूणक, सर्प, शिवलिंग और रिद्धि-सिद्धि की आकृतियाँ बनाई जाती है। सौरदीप में सूर्य की आकृति और शक्तिदीप में कालभैरव की आकृति बनाई जाती है। यहां तक कि वृहद आरण्यक उपनिषद् में अंधकार से ज्योति की ओर जाने की कामना की गई है। हमारे यहां दीप-मंत्र तक मिलते हैं यथा ‘शुभंकरोति कल्याणम् आरोग्यं धनसंपदा।शत्रुबुद्धि विनाशाय दीपज्योति नमस्तुते।।’,दीपो ज्योतिः परं ब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः। दीपो हरतु मे पापं संध्या दीप नमोऽस्तुते।। प्रमुख दीप-मंत्र हैं। गुर्जर -प्रतिहार वंश सभ्यता में भी दीपक मिले हैं। हमारे यहां हैंडिल वाले दीपक, गोल कटोरी नुमा दीपक और चोंचनुमा दीपक मिले हैं। सत्रहवीं -अठारहवीं सदी में दीपकों को अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों व अप्सराओं के रूप में ढाला जाने लगा था। इस समय ‘मयूरा धूप दीपक’ का चलन भी खूब था। वास्तव में इसकी आकृति नाचते हुए मोर की तरह होती है। इसके पंजों के ऊपर बत्ती रखने के लिए पांच कटोरे बने होते हैं। वर्तमान में चार मुंह और एक मुंह वाले दीपकों का विशेष चलन है।

वास्तव में दीप हमारी सभ्यता और संस्कृति की अलौकिकता का प्रतीक हैं। दीपावली पर रौशनी के लिए हम सभी को मिट्टी के दीपक जलाने चाहिए। सरसों के तेल के दीपक जलाने से बहुत लाभ होते हैं क्योंकि सरसों के तेल में ऐसे तत्व होते हैं, जिनमें वातावरण में उपस्थित रसायनों से प्रतिक्रिया स्वरूप विषैले तत्वों, कीट-पतंगे, रोगाणु आदि को मारने की शक्ति होती है। घरों और मंदिरों मे दीपक जलाने से एक स्वच्छ व सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति होती है, लोग रोग मुक्त होते हैं, वातावरण स्वच्छ होता है, हवा हल्की होती है जिससे सांस लेने मे आसानी होती है। दीपक में सत्, तम एवं रज का समन्वय है। दीपक का धवल प्रकाश तेज अर्थात सत और श्याम वर्ण अन्धकार अर्थात तम का सम्मिश्रण होता है।

 

शुरूआत में दीपावली की मुख्य भावना दीप दान से जुड़़ी थी। प्रकाश के इस दान को पुण्य का सबसे बड़ा कर्म माना जाता था। आज यह परंपरा धीरे धीरे आधुनिकता और शहरीकरण के रंग में रंगती चली जा रही है और हम चाइनीज़ लाइटों, झालरों पर आ गए हैं।

बहरहाल, वर्तमान में भले ही दीपकों का स्थान मोमबत्ती और विद्युत बल्वों, एल ई डी लाइटों , झालरों, रंग-बिरंगे बल्बों ने ले लिया हो, लेकिन दीपक तो दीपक हैं जो आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करते हैं। अतः हमें अपनी संस्कृति, अपनी परंपराओं को संजोए रखना चाहिए और रौशनी के इस पावन पर्व को मिट्टी के दीपकों से महकाना, चमकाना चाहिए। मिट्टी के दीपक ही हमारे संस्कार और हमारी संस्कृति के असली परिचायक हैं।

(विभूति फीचर्स)

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