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भाजपा के हिंदुत्व को अडानी-अंबानी की टेक

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(आलेख : सैयद जुबैर अहमद, अंग्रेजी से अनुवाद : संजय पराते)

 

भारत में प्रायः राजनैतिक शक्ति और आर्थिक प्रभुत्व के विस्तार की तुलना इतिहास में फासीवादी शासन के उदय से की जाती है। एक लोकप्रिय धारणा यह है कि जब राजनेता और व्यवसायी घनिष्ठ गठबंधन बनाते हैं, तो इसका परिणाम फासीवाद जैसा हो सकता है। यह एक ऐसी बात है, जो भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में फिट बैठती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश के दो सबसे धनी उद्योगपतियों गौतम अडानी और मुकेश अंबानी के बीच रणनीतिक साझेदारी ने, भारत में अघोषित रूप से फासीवाद की जड़ें जमने की चिंता को जन्म दिया है। यह गठबंधन न केवल राजनैतिक और आर्थिक शक्ति के एकमेक होने का उदाहरण है, बल्कि हिंदुत्व की उस व्यापक वैचारिक परियोजना को भी उजागर करता है, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की वैचारिक मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ा हुआ है।

*फासीवाद की जड़ें : आरएसएस, भाजपा और हिटलर- मुसोलिनी*

 

आरएसएस ने लंबे समय से फासीवादी विचारधाराओं के प्रति सहानुभूति रखी है। यह वह वैचारिक केंद्र है, जिससे भाजपा अपनी अधिकांश प्रेरणा प्राप्त करती है। दस्तावेजों से यह अच्छी तरह स्पष्ट है कि आरएसएस के नेताओं ने एडोल्फ हिटलर और बेनिटो मुसोलिनी जैसे तानाशाह व्यक्तियों की प्रशंसा की है। यह प्रशंसा सत्ता के केंद्रीकरण, अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जा देने और एक एकात्म राष्ट्र-राज्य के निर्माण में साझा विश्वास से उपजी है। आरएसएस के साहित्य में इन विचारधाराओं के संदर्भ हैं और ऐतिहासिक रूप से, इसके नेताओं ने मुसोलिनी के फासीवादी इटली से प्रेरणा ली है।

 

जैसे-जैसे आरएसएस ने हिंदू राष्ट्र के अपने दृष्टिकोण को पोषित किया, उसे अपने एजेंडे को लागू करने के लिए एक राजनीतिक हथियार की आवश्यकता थी। यह हथियार पहली बार 1950 के दशक में जनसंघ के रूप में सामने आया, जिसे बाद में 1980 में भाजपा के रूप में पुनर्गठित किया गया। भाजपा, देखने में तो एक लोकतांत्रिक राजनीतिक दल है, लेकिन वह एक बड़े वैचारिक ढांचे के भीतर काम करती है, जो भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी मूल्यों के बजाय हिंदू बहुसंख्यकवाद को प्राथमिकता देती है। आरएसएस के लिए, हिंदुत्व के अपने लक्ष्य को प्राप्त करना लोकतंत्र से जुड़ी एक ढीली-ढाली शासन प्रणाली में संभव नहीं है। इसके लिए उसे एक मजबूत, केंद्रीकृत और तानाशाही शासन की आवश्यकता है। आरएसएस ने इस दृष्टिकोण को लागू करने के लिए नरेंद्र मोदी को आदर्श उम्मीदवार के रूप में देखा।

 

*मोदी-अडानी-अंबानी गठजोड़ : खेल एक रणनीतिक शक्ति का*

 

मोदी और अडानी के बीच का संबंध राजनैतिक सत्ता और कॉर्पोरेट प्रभाव के मिश्रण का प्रतीक है। 2014 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने अडानी समूह द्वारा आपूर्ति किए गए निजी जेट और हेलीकॉप्टरों का व्यापक उपयोग किया था। 23 मई 2014 को, जिस दिन भारत के आम चुनाव के परिणाम घोषित किए गए थे, अडानी के जेट में सवार होते समय विजय चिह्न दिखाते हुए मोदी की छवि, दोनों के बीच घनिष्ठ संबंधों का प्रतीक बन गई।

 

गुजरात के मुख्यमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल में अडानी की किस्मत चमक उठी। अडानी समूह, जो शुरू में कमोडिटी ट्रेडिंग का व्यवसाय करता था, ने जल्द ही बुनियादी ढांचे, ऊर्जा और बंदरगाहों में अपना विस्तार किया। जब मोदी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, तब तक अडानी का व्यापारिक साम्राज्य मजबूती से स्थापित हो चुका था और मोदी के राजनीतिक उदय के साथ-साथ इसकी वृद्धि भी तेज हो गई। दोनों के बीच के संबंध को केवल संयोग के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि एक सोची-समझी साझेदारी के रूप में देखना चाहिए, जिससे दोनों पक्षों को लाभ हुआ है — मोदी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता प्राप्त की और अडानी ने अनुकूल सरकारी नीतियों का लाभ उठाया।

 

इस गठजोड़ में एक और प्रमुख खिलाड़ी मुकेश अंबानी ने भी भाजपा के कार्यकाल के दौरान बड़े पैमाने पर अपने व्यवसाय में वृद्धि की है। मोदी की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के कारण, अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने दूरसंचार, खुदरा और ऊर्जा के क्षेत्र में अपना विस्तार किया। अंबानी का दूरसंचार उद्यम, जियो, भारतीय बाजार में एक विशालकाय कंपनी बन गई, जिसने देश में डिजिटल संचार और वाणिज्य के परिदृश्य को नया आकार दिया। अडानी की तरह, अंबानी की सत्ता से निकटता केवल व्यावसायिक रणनीति का मामला नहीं है — यह आर्थिक राष्ट्रवाद की एक बड़ी कहानी का हिस्सा है, जो भाजपा के हिंदुत्व-संचालित एजेंडे के साथ जुड़ी हुई है।

 

गौतम अडानी और अनिल अंबानी की कंपनियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ विदेश यात्राओं के दौरान कम से कम 18 समझौतों पर हस्ताक्षर किए है। सौदों का यह संकलन सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी पर आधारित है, जिसमें मीडिया रिपोर्ट भी शामिल हैं। ये समझौते इन प्रमुख व्यवसायियों और प्रधानमंत्री की अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों के बीच घनिष्ठ संबंधों को उजागर करती हैं।

 

*कॉरपोरेट समर्थित राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की परियोजना*

 

भाजपा शासन में अडानी और अंबानी का आर्थिक उत्थान पार्टी के व्यापक सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्यों से निकटता से जुड़ा हुआ है। दोनों उद्योगपतियों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की सत्ता को मजबूत करने में अपना योगदान दिया है। इसके लिए चुनावी बॉन्ड का उपयोग किया गया, जो राजनीतिक दलों को गुमनाम दान की अनुमति देता था। यह एक ऐसा प्रमुख तंत्र रहा है, जिसके माध्यम से अडानी और अंबानी जैसे कॉर्पोरेट सार्वजनिक जांच का सामना किए बिना भाजपा को वित्तीय सहायता प्रदान करते रहे हैं। धन के इस प्रवाह ने भाजपा को अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकलकर एक अभूतपूर्व अभियान का बुनियादी ढांचा बनाने में और भारतीय राजनीति में अपना प्रभुत्व मजबूत करने में सक्षम बनाया है।

 

*हिंदुत्व के एजेंडा को बढ़ाने वाला मीडिया-स्वामित्व*

 

गौतम अडानी का मीडिया उद्योग में प्रवेश मुकेश अंबानी के सुस्थापित मीडिया साम्राज्य की तुलना में अपेक्षाकृत हालिया घटना है। 2022 में, अडानी समूह ने भारत के सबसे प्रतिष्ठित समाचार नेटवर्क में से एक एनडीटीवी (न्यू दिल्ली टेलीविज़न लिमिटेड) में पर्याप्त हिस्सेदारी हासिल करके एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। इस अधिग्रहण ने अडानी के मीडिया क्षेत्र में अपनी पहुंच का विस्तार करने के इरादे का संकेत दिया है।

 

*अडानी मीडिया वेंचर्स (एएमवी)*

 

अडानी समूह ने मीडिया से संबंधित निवेश के लिए अपनी प्रमुख इकाई के रूप में अडानी मीडिया वेंचर्स (एएमवी) का निर्माण किया है। एएमवी के माध्यम से, अडानी का लक्ष्य पारंपरिक और डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म दोनों पर अपने प्रभाव को व्यापक बनाना है। एनडीटीवी का अधिग्रहण इस रणनीति में मील का एक प्रमुख पत्थर था, लेकिन समूह की महत्वाकांक्षाएँ बताती हैं कि समाचार और मनोरंजन मीडिया में और निवेश का काम प्रगति पर हैं।

 

वर्तमान में, एनडीटीवी अडानी की प्राथमिक मीडिया संपत्ति है। बहरहाल, समूह अपनी मीडिया उपस्थिति का विस्तार करने के काम में सक्रिय रूप से लगा हुआ है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम दिसंबर 2022 में अडानी द्वारा इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) का अधिग्रहण था, जिसने एनडीटीवी में अपनी पिछली हिस्सेदारी और क्विंटिलियन बिज़नेस मीडिया के अधिग्रहण को पूरक बनाया है। ये निवेश भारत में समाचार और सूचना वितरण पर अपने नियंत्रण को मजबूत करने की अडानी की व्यापक योजना को दर्शाते हैं।

 

एक ओर जहां मीडिया उद्योग में अडानी की मौजूदगी बढ़ रही है, वहीं मुकेश अंबानी ने पहले ही इस क्षेत्र में काफी प्रभाव जमा लिया है। नेटवर्क-18 के उनके स्वामित्व ने, जो सीएनएन-न्यूज18, सीएनबीसी-टीवी18 और कई क्षेत्रीय नेटवर्क चैनलों का संचालन करता है, उन्हें राष्ट्रीय आख्यान को ढालने का मौका दिया है। कई आलोचकों का तर्क है कि ये मीडिया आउटलेट अक्सर भाजपा की नीतियों को अनुकूल रोशनी में पेश करते हैं, जबकि असहमतियों को कम महत्व देते हैं।

 

उल्लेखनीय रूप से ये चैनल मुस्लिम विरोधी भावना को बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, जब मोदी सरकार ने तीन विवादास्पद कृषि कानून पेश किए और जिन्हें व्यापक रूप से अडानी और अंबानी को लाभ पहुंचाने के रूप में देखा गया, इन दोनों व्यवसायियों के स्वामित्व वाले टीवी चैनलों ने किसानों के विरोध को कमतर आंकने का प्रयास किया। आंदोलन को बदनाम करने के प्रयास में इन मीडिया आउटलेट्स ने प्रदर्शनकारी किसानों को देशद्रोही और यहां तक कि आतंकवादी तक करार दिया।

 

अंबानी और अडानी के हाथों में मीडिया की शक्ति का यह संकेन्द्रण हिंदुत्व के एजेंडे को बढ़ावा देने में मदद करता है, जो सांस्कृतिक रूप से समरूप भारत के भाजपा के दृष्टिकोण से मेल खाता है। प्रमुख मीडिया प्लेटफॉर्म को नियंत्रित करके, ये व्यवसायिक दिग्गज विपक्ष और आलोचना को दबाने में मदद करते हैं, जिससे वैकल्पिक दृष्टिकोणों के लिए बहुत कम जगह बचती है। यह मीडिया प्रभुत्व हिंदू-बहुसंख्यकवादी आख्यान बनाने के भाजपा के प्रयासों का समर्थन करता है और सार्थक सार्वजनिक बहस को दबाते हुए उसके सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्यों को मजबूत करता है।

 

*निजीकरण, संसाधनों का आबंटन और कॉर्पोरेट प्रभुत्व*

 

भाजपा सरकार के तहत, सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण ने बड़े समूहों, विशेष रूप से अडानी समूह को अनुपातहीन रूप से लाभ पहुंचाया है। हवाई अड्डों से लेकर कोयला खदानों तक, अडानी ने आकर्षक सरकारी अनुबंध हासिल किए हैं। ये अनुबंध ऐसे क्षेत्रों में भी हासिल किए हैं, अक्सर जहां हाशिए पर पड़े कमजोर मूल निवासी रहते है। निजीकरण का अभियान, सामाजिक न्याय की चिंताओं को दरकिनार करते हुए, आर्थिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के भाजपा के व्यापक एजेंडे के साथ एकरूप है। आरक्षण प्रणाली जैसे सकारात्मक कार्रवाई के लिए भाजपा का तिरस्कार सर्वविदित है। लालकृष्ण आडवाणी जैसे पार्टी नेताओं ने ऐतिहासिक रूप से मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध किया था, जिसमें सार्वजनिक नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में निचली जातियों के लिए प्रतिनिधित्व बढ़ाने जैसी नीतियों को लागू करने की सिफारिश की गई थी। इस संदर्भ में, मोदी सरकार के तहत कॉर्पोरेट एकाधिकार का उदय एक अभिजात्य आर्थिक मॉडल की ओर व्यापक बदलाव को दर्शाता है, जो उच्च जाति के हिंदुओं का पक्षधर है और हाशिए के समूहों को बाहर करता है।

 

प्रमुख संसाधनों का निजीकरण न केवल कॉर्पोरेट अभिजात वर्ग को समृद्ध बनाता है, बल्कि राष्ट्रीय आख्यान को आकार देने में उनकी भूमिका को भी मजबूत करता है। ऊर्जा, दूरसंचार और मीडिया जैसे महत्वपूर्ण उद्योगों को नियंत्रित करके, अडानी और अंबानी ने आर्थिक नीतियों और जनमत दोनों को प्रभावित करने के लिए महत्वपूर्ण शक्ति अर्जित की है। सत्ता का यह संकेद्रण सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से समरूप भारत के भाजपा के दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने में और मदद करता है, जहां राजनीतिक विमर्श में हिंदू बहुसंख्यकवाद हावी है।

 

*असहमति पर चुप्पी और विपक्ष का दमन*

 

अडानी और अंबानी के उदय के साथ-साथ भाजपा की तानाशाही प्रवृत्तियों ने भारत में असहमति पर चुप्पी साधने का प्रभाव डाला है। कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और विपक्षी राजनेताओं सहित शासन के आलोचकों को अक्सर उत्पीड़न, कानूनी चुनौतियों और मीडिया से ब्लैकआउट का सामना करना पड़ता है। कॉरपोरेट दिग्गजों और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच मधुर संबंध एक ऐसा माहौल बनाते हैं, जहां असहमति की आवाज़ों को या तो सीधे डराने-धमकाने के ज़रिए या फिर मीडिया स्पेस पर एकाधिकार के जरिए दबा दिया जाता है।

 

*भाजपा-आरएसएस को अप्रत्याशित लाभ*

 

सीएमएस के अनुसार, 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा किए गए कुल व्यय का लगभग 45% हिस्सा भाजपा का था — लगभग 60,000 करोड़ रुपए। 1998 में, भाजपा का हिस्सा बहुत कम, केवल 20% था। 2024 के चुनावों के लिए अनुमानित लागत दोगुनी, लगभग 1,35,000 करोड़ रुपए रहने का अनुमान है।

 

क्या कोई यह सवाल उठा सकता है कि सत्ता में आने के चार साल के भीतर ही भाजपा ने दुनिया की किसी भी राजनीतिक पार्टी से बड़ा नया मुख्यालय कैसे बना लिया? आरएसएस, जो एक गैर-पंजीकृत संगठन है, कैसे दिल्ली के झंडेवालान में 350,000 वर्ग फीट निर्मित क्षेत्र के साथ 12 मंजिला इमारत बनाने में कामयाब रहा? आरएसएस ने जितना 90 सालों में हासिल नहीं किया, उससे ज्यादा उसने सिर्फ 10 साल में हासिल कर लिया।

 

दोनों कार्यालय परियोजनाओं पर हजारों करोड़ रुपये खर्च हुए होंगे। भाजपा की योजना देश भर में 768 कार्यालय बनाने की है, जिनमें से 563 पहले ही पूरे हो चुके हैं।

 

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया है कि उन्हें 2021 में दो फाइलों को मंजूरी देने के लिए 300 करोड़ रुपये की रिश्वत की पेशकश की गई थी, जिनमें से एक अंबानी से संबंधित थी और दूसरी आरएसएस के एक पदाधिकारी से संबंधित थी। यह आरोप मोदी राज में भारत में पैठे गहरे भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है और कॉरपोरेट हित और राजनैतिक ताकत किस हद तक एक-दूसरे से जुड़ गए हैं, इस बात पर प्रकाश डालता है।

 

*फासीवादी ढांचा : कॉर्पोरेट समर्थित तानाशाही*

 

मोदी के शासन में राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का एकीकरण फासीवाद के कई लक्षणों को दर्शाता है। इतिहास में फासीवादी शासन सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए प्रायः उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट अभिजात वर्ग के समर्थन पर निर्भर रहे हैं। बदले में, ये शासन अपने व्यावसायिक समर्थकों को अनुकूल नीतियां और सरकारी अनुबंध प्रदान करते हैं। मोदी, अडानी और अंबानी के बीच सहजीविता के संबंध इससे अलग नहीं हैं। अडानी और अंबानी, भारत की अर्थव्यवस्था और मीडिया परिदृश्य के विशाल हिस्से को नियंत्रित करके, मोदी की तानाशाही प्रवृत्तियों को मजबूत करने और हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

 

राजनीति और व्यापार के बीच यह गठबंधन राष्ट्रवाद के एक खतरनाक रूप को बढ़ावा देता है — जो सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक मूल्यों पर कॉर्पोरेट हितों और बहुसंख्यकवाद को प्राथमिकता देता है। “आत्मनिर्भर भारत” के विचार का इस्तेमाल अक्सर भाजपा की आर्थिक नीतियों के मूल में मौजूद परजीवी पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) को छिपाने के लिए किया जाता है। रिलायंस और अडानी जैसी घरेलू कंपनियों की सफलता का बखान करके, भाजपा आर्थिक ताकत और राष्ट्रीय गौरव की छवि पेश करती है। बहरहाल, यह बयानबाजी निजीकरण, कॉर्पोरेट एकाधिकार और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के क्षरण की सामाजिक लागतों को आसानी से नज़रअंदाज़ कर देती है।

 

पिछले 12 वर्षों में, नौ गैर-भाजपा राज्य सरकारों को बिना चुनाव कराए भाजपा ने बदल दिया है। कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने लगातार इस प्रवृत्ति पर चिंता जताई है और आरोप लगाया है कि अंबानी और अडानी जैसे औद्योगिक दिग्गजों से कॉर्पोरेट फंडिंग ने इन राजनीतिक परिवर्तनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका कहना है कि भाजपा ने बड़े निगमों द्वारा समर्थित वित्तीय शक्ति का इस्तेमाल लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को कमजोर करने और राजनीतिक सत्ता को अपने पक्ष में करने के लिए हेरफेर करने के लिए किया है। उनका दावा है कि कॉर्पोरेट अभिजात वर्ग और सत्तारूढ़ दल के बीच यह गठबंधन भारत के लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा है, क्योंकि यह शासन का ध्यान सार्वजनिक हित से हटाकर कॉर्पोरेट लाभ की ओर ले जाता है। गांधी का कहना है कि बिना चुनाव के विपक्षी सरकारों का लगातार बदलना, राजनीति में धन के खतरनाक प्रभाव को दर्शाता है, जिसे भाजपा और भारत के सबसे धनी उद्योगपतियों के बीच गठजोड़ द्वारा बढ़ावा मिल रहा है।

 

*अघोषित फासीवाद/हिंदुत्व का उदय*

 

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अघोषित हिंदू राष्ट्र का उदय देख रहा है, जो राजनैतिक सत्ता और कॉर्पोरेट प्रभुत्व के बीच रणनीतिक गठबंधन द्वारा संचालित है। मोदी-अडानी-अंबानी गठजोड़ इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि कैसे आर्थिक और राजनीतिक हित एक साथ मिलकर एक ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं, जो असहमति को हाशिए पर रखती है, लोकतंत्र को दबाती है और राष्ट्रवाद की संकीर्ण दृष्टि को बढ़ावा देती है। इस गठबंधन ने न केवल कुछ चुनिंदा लोगों को समृद्ध किया है, बल्कि हिंदुत्व की व्यापक वैचारिक परियोजना को भी आगे बढ़ाया है, जो भारत को एक ऐसे हिंदू-बहुल राज्य में बदलना चाहता है, जिसमें धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के लिए बहुत कम जगह हो।

 

जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ रहा है, मोदी के शासन में राजनीति और व्यापार की गहरी गुत्थी देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए गंभीर खतरा बन गई है। अडानी और अंबानी जैसे कॉरपोरेट दिग्गजों की अनियंत्रित शक्ति और भाजपा के तानाशाही रुझान ने देश में एक ऐसा माहौल बना दिया है, जहां फासीवाद, नाम के अलावा, हर जगह पनप रहा है। अब सवाल यह है कि क्या भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं इस हमले का सामना कर पाएंगी या फिर देश कॉरपोरेट समर्थित तानाशाही (हिंदुत्व) के युग में अपनी गिरावट जारी रखेगा?

*(लेखक बीबीसी के पूर्व मल्टीमीडिया पत्रकार, स्तंभकार और वेब पोर्टल ‘मुस्लिम मिरर’ के संस्थापक हैं।

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