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क्या न्याय की नयी मूर्ति निकाल पाएगी पांच करोड़ लंबित मुकदमों के हल?

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मनोज कुमार अग्रवाल

भारत की सबसे बड़ी अदालत में ‘न्याय की देवी’ वाली प्रतिमा में बड़े बदलाव किए गए हैं। इस प्रतिमा पर लगी आंखों से पट्टी हटा दी गई है. वहीं, हाथ में तलवार की जगह भारत के संविधान की प्रति रखी गई है। सुप्रीम कोर्ट के सूत्रों का कहना है कि यह नई प्रतिमा पिछले साल बनाई गई थी और इसे अप्रैल 2023 में नई जज लाइब्रेरी के पास स्थापित किया गया था लेकिन अब इसकी तस्वीरें सामने आई हैं जो वायरल हो रही हैं। पहले इस प्रतिमा में आंखों पर बंधी पट्टी कानून के सामने समानता दिखाती थी। इसका अर्थ था कि अदालतें बिना किसी भेदभाव के फैसला सुनाती हैं। वहीं, तलवार अधिकार और अन्याय को दंडित करने की शक्ति का प्रतीक थी ,हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट जजों की लाइब्रेरी में लगी न्याय की देवी की नई प्रतिमा में आंखें खुली हुई हैं और बाएं हाथ में संविधान है। सवाल यह है कि इस बदलाव से क्या देश की न्याय व्यवस्था में कुछ सकारात्मक परिणाम आएगा? क्या देश के सुप्रीम कोर्ट के जजों के चयन की प्रक्रिया से कालेजियम का ग्रहण हटाया जाएगा? क्या देश की अदालतो में न्याय की गुहार कर रहे लंबित पांच करोड़ मुकदमों की सुनवाई पूरी हो जाएगी? क्या एक गरीब आदमी को सस्ता सुलभ न्याय मिल पाएंगा?

हमारे देश में मान्यता है कि न्याय का सिद्धांत सबके लिए समान है, और न्याय की देवी इसका प्रतीक मानी जाती हैं। सदियों से न्याय की देवी को विश्वभर की अदालतों में तराजू तलवार और आंखों पर बंधी पट्टी के साथ दर्शाया जाता है। यह प्रतीक न्याय के निष्पक्ष और समान वितरण को दर्शाता है, जहां सभी बिना भेदभाव के बराबर होते हैं। मगर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए न्याय की प्रतीक देवी की प्रतिमा को नया रूप दिया है। भारतीय संविधान लागू होने के 75 वें वर्ष में न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी हटा दी गई है, और अब उनके हाथ में तलवार की जगह संविधान है। न्याय की मूर्ति में इस बदलाव को लेकर अधिकतर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं आ रही है और काननू के जानकारों के द्वारा इसको सही ठहराया जा रहा है। हालांकि, इस फैसले पर राजनीति गरमा गई है, जिसमें शिवसेना उद्धव बालासाहेब के नेता संजय राउत ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। शिवसेना के यूबीटी सांसद संजय राउत ने न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटाने के निर्णय की आलोचना करते हुए सवाल उठाया है और कहा है कि न्यायालय का काम संविधान की रक्षा करना और संविधान के तहत न्याय करना है, लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट में क्या हो रहा है? आखिर वे न्याय की देवी के हाथों से तलवार हटाकर उसे संविधान से बदलने का फैसला कर क्या साबित करना चाहते हैं? वे पहले ही संविधान को मार रहे हैं और अब न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी हटाकर भ्रष्टाचार और संविधान की हत्या को खुलेतौर पर दिखाना चाहते हैं। यह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रोपेगैंडा और अभियान है। राजनीतिक पार्टियों द्वारा भले ही न्याय की मूर्ति में बदलाव को राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह बदलाव सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पहल पर हुआ है। उनकी सोच है कि भारत को अपनी अंग्रेजी विरासत से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। उनका मानना है कि न्याय की आंखें खुली होनी चाहिए, ताकि सभी के साथ समानता का व्यवहार हो। उनका कहना है कि अदालतें संविधान के आधार पर न्याय करती हैं और तलवार का प्रतीक हिंसा का होता है, जिसे हटाकर संविधान को स्थान दिया गया है। इस नई प्रतिमा में तराजू को बनाए रखा गया है, ताकि यह दिखाया जा सके कि अदालतें फैसला करने से पहले दोनों पक्षों को बराबरी से सुनती और तौलती हैं। दरअसल न्याय की देवी यानी लेडी ऑफ जस्टिस का इतिहास कई हजार साल पुराना है। इसकी अवधारणा प्राचीन ग्रीक और मिस्र की सभ्यता के दौर से चली आ रही है। न्याय की देवी, जिसे लेडी जस्टिस भी कहते हैं, की प्राचीन छवियां मिस्त्र की देवीमाता से मिलती-जुलती हैं। ये मिस्त्र के प्राचीन समाज में सत्य और व्यवस्था की प्रतीक थीं। ग्रीक पौराणिक कथाओं में न्याय की देवी थेमिस और उनकी बेटी डिकी हैं, जिन्हें एस्ट्राया के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन यूनानी दैवीय कानून और रीति-रिवाजों की प्रतिमूर्ति देवी थेमिस और उनकी बेटी डिकी की पूजा करते थे। डिकी को हमेशा तराजू लिए हुए चित्रित किया जाता था और ऐसा माना जाता था कि वह मानवीय कानून पर शासन करती है। प्राचीन रोम में डिकी को जस्टिटिया के नाम से भी जाना जाता था। ग्रीक देवी ‘थीमिस’ कानून, व्यवस्था और न्याय का प्रतिनिधित्व करती थी, जबकि रोमन सभ्यता में देवी ‘मात’ थी, जो कि व्यवस्था के लिए खड़ी एक ऐसी देवी थी, जो तलवार और सत्य के पंख रखती थी। हालांकि, मौजूदा न्याय की देवी की सबसे सीधी तुलना रोमन न्याय की देवी जस्टिटिया से की जाती है। ग्रीक सभ्यता दुनिया की ज्ञात सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। ग्रीक सभ्यता में हजारों देवी- देवताओं की मान्यता रही है। वहां खेत, अंगूर, शराब, पानी, हवा, आकाश, रंगमंच, संगीत जैसी हर चीज के लिए एक देवी या देवता रहा है। प्राचीन ग्रीक के लोग अगाध भाग्यवादी थे और अपने हर कर्म में दैवीय मौजूदगी को मानते थे। यह उनके आध्यात्मिक प्रतीक थे, यह उनका दर्शन था, जिनसे वे मार्गदर्शन लिया करते थे। न्याय के लिए भी उन्होंने अपनी कल्पना से ऐसी फिलासफी सामने रखी, जो एक ऐसे प्रतीक के रूप में सामने आई जो दुनिया भर में अपनाई गई। पुनर्जागरण काल में यूरोप में मिथकों का निर्माण भी चलता रहा। नए उभरे गणराज्यों में न्याय की देवी नागरिकों के लिए कानून और न्याय की एक शक्तिशाली प्रतीक बन गई। यह राजाओं के दैवीय अधिकार के सिद्धांत का समर्थन करती थी, लेकिन इसमें लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ न्याय की निष्पक्षता का महत्वपूर्ण सिद्धांत अहम था। न्याय की देवी के प्रतीक को दर्शाने वाली कलाकृतियां, पेंटिंग, मूर्तियां दुनिया भर में पाई जाती हैं। उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, मध्य- पूर्व, दक्षिणी एशिया, पूर्वी एशिया और ऑस्ट्रेलिया की अदालतों, कानून से जुड़े दफ्तरों, कानूनी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थानों में न्याय की देवी की प्रतिमाएं और तस्वीरें देखने को मिलती हैं। यूनानी सभ्यता से न्याय की देवी यूरोप और अमेरिका पहुंची। इसे भारत ब्रिटेन के एक अफसर लेकर आए थे। इसे 17वीं सदी में एक अंग्रेज न्यायालय अधिकारी भारत लाया था। ब्रिटिश काल में 18वीं शताब्दी के दौरान न्याय की देवी की मूर्ति का सार्वजनिक इस्तेमाल किया जाने लगा। भारत की आजादी के बाद न्याय की देवी को उसके प्रतीकों के साथ भारतीय लोकतंत्र में स्वीकार किया गया। अगर देखा जाए तो न्याय की मूर्ति में ये बदलाव के पीछे जो सोच है, वह सकारात्मक कही जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने देश को संदेश दिया है कि अब कानून अंधा नहीं है। मुख्य न्यायाधीश माननीय चंद्रचूड़ का मानना है कि अंग्रेजी विरासत से अब आगे निकलना चाहिए। कानून सबको समान रूप से देखता है इसलिए न्याय की देवी का स्वरूप बदला जाना चाहिए। यह कानून को सर्वद्रष्टा बताने की कोशिश है। मगर जरूरी है कि देश में सिर्फ न्याय की देवी की मूर्ति में बदलाव नहीं हो, बल्कि देश की न्यायिक प्रक्रिया में भी बदलाव हो। मौजूदा परिस्थितियों में किसी मामले में न्याय पाने के लिए थाना पुलिस और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते लगाते जिंदगी तबाह हो जाती है। न्याय की देवी की मूर्ति में परिवर्तन सही है, लेकिन सबसे बड़ी जरूरत है कि देश की सड़ गल रही न्यायिक प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन हो, करोड़ों लंबित मुकदमों का निबटान हो, लोगों को समयबद्ध न्याय सुलभ कराने की व्यवस्था की जा सके ताकि लोगों को सही समय पर सुलभ तरीके से न्याय मिल सकें, तभी न्याय की मूर्ति में बदलाव के मायने सार्थक होंगे वरना इस तरह का बदलाव महज छलावा और आम आदमी को बहलाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। देश की अदालतों में लंबित पांच करोड़ मुकदमे न्याय व्यवस्था की हकीकत बयान करते हैं। तीस हाइकोर्ट में 169000 मुकदमे तो तीस साल पुराने हैं ऐसी न्याय व्यवस्था में मूर्ति बदल कर बदलाव आने की कल्पना महज मूर्खता ही कही जा सकती है और संविधान का भी मखौल है।

मनोज कुमार अग्रवाल

(विभूति फीचर्स)

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