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बिंदु से विराट की यात्रा है अंगिका लोकवार्त्ता

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कुमार कृष्णन

प्राचीन अंग महाजनपद में मानभूमि,वीरभूमि , मुर्शिदाबाद और संथाल परगना के सभी जिले शामिल थे । डॉ . अमरेन्द्र का ‘अंगिका लोकवार्त्ता ‘ बिहार और संथाल परगना के सभी जिलों में व्याप्त अंगिका लोक संस्कृति और लोक साहित्य का एक संक्षिप्त कोष है लेकिन अपने आप में यह इतना संपूर्ण है कि यहाँ से इस महाजनपद की लोक संस्कृति और साहित्य का सिंहावलोकन भी किया जा सकता है ।

संपादक डॉ . अमरेन्द्र ने इस पुस्तक में लोकसाहित्य को रखने के पूर्व एक लंबा आलेख रखा है जिसमें अंग महाजनपद के लोकदेव और लोकदेवियों से संबंधित लोकगीतों के वैविध्य पर प्रकाश डाला है । जिसमें इस प्रदेश के लोकपर्वों ,लोकोत्सव का उल्लेख हुआ है । इसमें प्रकृति से जुड़े उत्सव का ही उल्लेख नहीं , उन गीतों का भी उदाहरण के रूप में उल्लेख है जो सीधे – मंत्र से जुड़े हैं और जो यह सिद्ध करते हैं कि अंग प्रदेश किस तरह सिद्धियों,तंत्र -मंत्र और विभिन्न धार्मिक संप्रदायों का कभी विशिष्ट केन्द्र रहा ।

यह बताने की जरूरत नहीं कि यह प्रदेश अतीत में स्त्रीखंड कहा जाता था , इसी से इस क्षेत्र में देवी से जुड़े मनौन गीतों की प्रमुखता है जिसकी ओर लेखक ने संकेत भी किया है । यहाँ उन सभी प्रकार के गीतों का उल्लेख संभव नहीं था इसी से छठ के एक गीत को सामने रख कर लेखक ने छुट्टी पा ली है लेकिन आलेख में उन तमाम लोकदेव और लोकदेवियों का नामोल्लेख अवश्य किया है जिनसे जुड़े मनौन के लोकगीत संपूर्ण अंगप्रदेश में फैले हुए हैं । त्रिवेद की ही इतिहास पुस्तक में इतिहासकार पार्जीटर के उस वक्तव्य का भी उल्लेख है जो ‘ जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल ‘ में उल्लिखित है कि अंग पुराने भागलपुर और मुंगेर तक व्याप्त था और पूर्णिया की सीमा अंग प्रदेश की सीमा में ही समाहित थी । गंगा का उत्तर भाग अंगुत्तराप कहलाता था ।

डॉ . अमरेन्द्र ने न केवल दक्षिणी अंग प्रदेश के प्रमुख पर्व , त्यौहारों के संबंध में बताया है साथ ही अंग के उत्तर क्षेत्र में विशेष रूप से प्रचलित झिझिया , सामा चकेवा जैसे लोक पर्वों का भी वे उल्लेख करना भूले नहीं हैं । इसमें आई लोकगाथाओं की चर्चा तो वही है जो सम्पूर्ण अंग प्रदेश में प्रचलित हैं ।

लेखक ने अंगिका लोकगीतों के विभिन्न क्षेत्रों के संबंध में भी जानकारियां दी हैं लेकिन पर्वों और संस्कारों के गीतों को रखने के क्रम में नदियों से संबंधित गीतों का एक भी उदाहरण नहीं होना अवश्य अखरता है। अंगप्रदेश की सीमाएँ कई कई नदियों से सिंचित होती हैं , जिनमें कोशी तो अंग में प्रवेश के बाद अंग में लीन भी होती है । गंगा जैसी महानदी इसके विशाल भूभाग को छूकर चलती है और इन दोनों नदियों से जुड़े असंख्य लोकगीत प्रदेश में लोकप्रिय हैं जिसका उदाहरण भी यहाँ होता तो अच्छा होता । आश्चर्य तो तब हुआ जब लेखक के आलेख में इसका उल्लेख तक नहीं किया , जबकि कोशी के प्रमुख क्षेत्र खगड़िया में प्रचलित एक लोकप्रिय लघु लोकगाथा को सम्पूर्ण रूप से संपादक अमरेन्द्र ने यहाँ प्रस्तुत किया है । वैसे संस्कार गीतों की जहाँ तक बात है , तो सोहर से लेकर महाप्रयाण तक के गीत यहाँ आ गये हैं ।

वे लोकगीतों के रखने के क्रम में चौमासा , बारहमासा जैसे प्रकृति गीतों को रखना भी नहीं भूले हैं ।

इसमें कोई शक नहीं कि संपादक अमरेन्द्र ने अपना विशेष ध्यान अंगिका के फेकड़े , बुझौव्वल ( पहेलियाँ ) , अंगिका शब्द , अंगिका कहवी ( लोकोक्ति ) और अंगिका लोकछंदों पर ही केन्द्रित किया है । इन लोक साहित्य को रखने के पूर्व लेखक ने अपने आलेख में इस पर विस्तृत प्रकाश भी डाला है और इस ओर इशारा भी कि पूर्व में किन विद्वानों ने इस पर प्रमुखता से काम किया है । जिस क्रम में डॉ . परमानंद पाण्डेय , नरेश पाण्डेय भकोर , डॉ डोमन साहु समीर, डॉ तेज नारायण कुशवाहा , डॉ विद्या रानी , ज्योतिष चंद्र शर्मा , चंद्रप्रकाश जगप्रिय , सुप्रिया सिंह वीणा का विशेष रूप से उल्लेख किया है । इससे निःसंदेह अंगिका के विशाल लोकसाहित्य के बारे में अवश्य पता चल जाता है । यहाँ जिन फेंकड़ों का संकलन हुआ है वे अंग प्रदेश में फैले लोक व्यवहार से लेकर जनजातियों के रीति रिवाज तक को उद्घाटित करते हैं ।

कोई शक नहीं कि अंगिका के जितने फेकड़े , लोकोक्ति , पहेलियों का इसमें संकलन हुआ है , वह आश्चर्य में डालने के लायक है । अंगिका का बाल लोक साहित्य ही आश्चर्यजनक रुप से वैविध्यपूर्ण तथा विस्तृत है और जहाँ तक इसमें आये अंगिका शब्द है , वे ठेठ अंगिका शब्द हैं वे हिन्दी या संस्कृत के तत्सम तद्भव नहीं , न ही विदेशज हैं । इस संबंध में संपादक ने बहुत सावधानी का परिचय दिया है ।

अंगिका लोकवार्त्ता में सर्वाधिक आकर्षक सातवां अध्याय यानी अंगिका छंद विवेचन है । इसमें कुल बाईस लोकछंदों का विवेचन है जो अंग प्रदेश में अत्यधिक लोकप्रिय लोकगीतों में मिलते हैं । लेखक ने इन छंदों का नामकरण भी कुछ इस तरह से किया है कि इनका अंग से गहरा संबंध दिख जाए । अंगमालती , अंठोगर , मंदार , कष्टहरणी , कोशी , अंगधात्री आदि । सिर्फ नामकरण को लेकर यह अध्याय आकर्षण का केन्द्र नहीं है, यह तो सर्वविदित है कि लोकछंदों का विश्लेषण उस तरह से संभव नहीं , जिस तरह से शास्त्रीय छंदों का होता है लेकिन डॉ . अमरेन्द्र ने सिर्फ मात्राओं के आधार पर ही नहीं बल्कि गणों के आधार पर इन अंगिका लोकछंदों का विश्लेषण , विवेचन किया है जो अन्य लोकभाषाओं के छंदों के विवेचन में भी सहायक सिद्ध होगा । निष्कर्ष रूप में डॉ . अमरेन्द्र की पुस्तक ‘ अंगिका लोकवार्त्ता ‘ के लिए कहा जा सकता है कि यह पुस्तक उस सुदृढ़ नींव की तरह है जिस पर अंगिका लोकवार्त्ता के एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण सहज ही संभव हो गया है । इस पुस्तक का प्रकाशक अंगिका संसद भागलपुर बिहार ने किया है।

(विनायक फीचर्स)

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