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मन के हारे हार है मन के जीते जीत : श्री कृष्ण जी महाराज

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वीरवार 10 अक्टूबर : रामायण ज्ञान यज्ञ के नौवें दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य श्री रेखा जी महाराज (माँ जी) के पावन सानिंध्य में

श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज सरस्वती द्वारा रचित रामायण जी का दूर दूर, देश विदेश से आये हज़ारों साधकों ने मिल कर परायण किया।

 

मां रेखा जी महाराज ने अपने मधुर स्वर में हनुमान चालीसा के पाठ से हनुमान जी का आवाह्न किया। तदुप्रांत सुंदर काण्ड के पाठ को किया गया।

 

पूज्य पिता जी महाराज ने कहा हम सुन्दर काण्ड का पाठ करने जा रहे हैं। सुन्दर काण्ड सुंदरता का प्रतीक है। सुन्दरकाण्ड का पाठ हर परिस्थिति में करते हैं। सुख में ,दुख में, हर समय सुंदरकांड का पारायण किया जाता है। दुख होता है, तो सुंदरकांड का पारायण करके शक्ति मांगी जाती है, सहारा मांगा जाता है। कुछ भी हो, सहारा तो हर एक को चाहिए। सुख में इसलिये सुख में इस अर्ज़ी के साथ की पाइयाँ तेरे दर तो मैं रहमता हजारा शुक्र गुजारा तेरा शुक्र गुजारा। शुकराना करने के लिए भी सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। ज़िन्दगी में सुख और दुःख दोनों आएंगे। मगर प्रभु और गुरु पर आस और विश्वास होना चाहिए। गुरु परखी होते हैं वह शिष्य को पहचान लेते हैं। उसकी शक्ति को, उसकी भक्ति को, हर चीज को वह पहचान लेते है और जो शिष्य होता है उसका तो गुरु के प्रति समर्पण होता ही होता है। उसको तो एक ही बात का पता होता है, चरण पर रख दिया जो माथ, तो किस बात की चिंता, मेरे स्वामी को रहती है मेरी हर बात की चिंता। केवल हम ही गुरु पर पूर्ण विश्वास नही ला पाते। उस की शक्ति को समझ नही सकते। राम जी ने हनुमान जी को दूर से ही पहचान लिया था कि यह सफलता का प्रतीक है और सफल होकर आयेगा। उन्होंने अपने नाम से अंकित अंगूठी केवल उन्हीं को दी और किसी को नही। उनको अपने शिष्य पर पूर्ण विश्वास था।

शक्ति और बल हम सब में समाया हुआ है। बुद्धि का बल तर्क करना होता है और मन की शक्ति अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास होता है। मनुष्य का सबसे बड़े दुश्मन भय और भ्रम है। कहा है मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन प्रसन्न हो, साथ में हो, उत्साह में हो तो कहते हैं कि हम हिमालय पर्वत को भी तोड़ देंगे, अगर मन उदास हो तो चारपाई पर बैठे लगता है की कमरे से बाहर नहीं जा सकते। विश्वास भी दो प्रकार का होता हैं। एक तो विश्वास होता है, बुद्धि के बल पर, ताकत के बल पर, मेरे पास इतने साधन है, मेरे पास इतने लोग हैं, मेरी इतनी शक्ति है, मेरे पास इतने हथियार है, इतनी मेरी अपनी शक्ति है, यह होता है बुद्धि के बल पर विश्वास। दूसरा विश्वास होता है मन के बल पर, मन का विश्वास क्या है? हमारे साथ है रघुनाथ तो किस बात की चिंता, चरण पर रख दिया जो माथ तो किस बात की चिंता। यह विश्वास, मन का विश्वास होता है। कहते हैं कितनी भी मुसीबत हो, कितनी भी आफत हो, कितने भी विपत्ति के दिन हो, कितने भी मुसीबत के दिन हो एक पुरानी कहावत है हारिये ना हिम्मत बिसारीय न राम। कभी भी हमें परमेश्वर के नाम पर भरोसा कमजोर नहीं करना।

 

*रामायण ज्ञान यज्ञ में श्री सुन्दरकाण्ड जी का पाठ किया गया

*

 

पूज्य पिता जी महाराज जी ने कहा कि कितने शुभ कर्म किये होंगे हमने नवरात्रों के पावन दिन उस पर आज सुंदरकांड जी के पाठ का परायण और रामायण जी के परायण में शामिल होने का हमें सुअवसर मिला। श्री सुंदरकांड जी के पाठ की बहुत महत्ता है। यह निराशा से आरंभ होता है आशा पर पूर्ण होता है। जब सफलता नहीं मिलती है तो अच्छे अच्छों का धैर्य टूट जाता है। हम तो क्या, जब हनुमान जी पर कष्ट आये तो वह भी विचलित हो गये थे और मरने की सोचने लग गए थे। निराशा का यह पल बड़ों बड़ों पर आ जाता है। मनोबल टूट जाता है। पर जो उधमी और साहसी है, उसको सफलता मिलती है। जब तक स्वास है, तब तक आस है।

 

जामवंत जी हनुमान जी की तरफ देखकर कहते हैं जो सफलता का प्रतीक सफलता का सूचक सफलता की प्रतिमा जहां भी जाए, वहां सफलता पाए बिगड़े काम तुरंत बनाएं, वह हमारे सामने बैठे हैं और हनुमान जी को उनकी शक्ति याद करवाते हैं। जैसे-जैसे शक्ति याद करवाते गए हनुमान जी का शरीर और मनोबल बड़ा होता गया।

सदा सफल सब कार्यकारी,

बली वीर महा शक्तिधारी।

मति गति वेग अतुल जन जाना,

हनूमान् गुणवान् बखाना।।

 

सिद्धि सदन विधुवदन सुशूरा,

कर्मकुशल ज्ञानीवर पूरा।

जावे जहाँ सफलता पाये,

बिगड़े काम तुरन्त बनावे।।

 

जामवन्त जी सब को हनुमान जी की शक्ति के बारे बताते है कि

हनुमान जी बचपन में इतने बुद्धिमान और बलवान थे, कि वो अपने गुरु से आगे निकल जाते थे। इस लिए गुरु ने उनको श्राप दिया था की वे अपनी सब शक्तियां भूल जाएं। साथ में यह भी यह भी कहा था कि जब कोई उन को उन की शक्तियां याद करवाएगा तो वह वापिस आ जाएंगी। फिर सभी मिल उनको प्रेरित करते है और उनकी शक्तियों को याद करवाते हैं। हनुमान जी विशाल रूप धारण कर कहते हैं-

 

जाऊँगा निर्विघ्न मैं,

सागर के उस पार।

देव असुर जन लोक से,

सकू नही मैं हार।।

 

पूर्ण, मम मन बुद्धि में,

बसा ऐसा विश्वास।

आऊंगा मैँ लौट कर,

जा सीता के पास।।

 

मन में मोद मनाइए,

तुम सब चिंता छोड़।

आता हूं मैं सफल हो,

असुर-गर्व को तोड़।।

 

हनुमान जी समुन्द्र में कूद जातें हैं और अपनी भुजाओं से सागर की जलराशि चीर कर लंका पुरी पहुंचते हैं। वहां वह भेष बदल कर वहाँ जगह जगह सीता जी की खोज करते हैं। पर वह उन्हें ढूंढ नही पाते। निराश हो कर हनुमान जी मरने का सोचतें हैं। फिर अपने विचारों को बदल कर मन को कड़ा कर हनुमान जी पुनः उत्साह आशा के साथ सीता जी को ढूंढने लग जाते हैं। घूमते हुए वह ऊंचे पेड़ों से घिरी अशोक वाटिका में पहुंचते हैं। वहाँ की शांति और सुंदरता देख वह सोचते हैं यदि माँ जीवत है तो ध्यान संध्या के यहाँ जरूर आएगी।

 

राज-रानी अनुकूल हैं,

शुचि सुन्दर यह बाग।

जीती है तो आयेगी,

वह कर जल वन-राग।।

 

वहाँ बाग में घूमते हुए वह एक असुरिओं से घिरी दुबली पतली नारी को देखते हैं। राम जी द्वारा बताए चिन्ह उस में देख वह उन्हें पहचान लेते है की यही सीता है।

वह दशरथ की जेठी पुत्रवधू और राम जी की प्यारी पत्नी,जो महलों में रहने वाली, सुन्दर सुगढ़ दसियों से घिरी रहने वाली को काली कुबड़ी असुरिओं से घिरी देख, उन के दुखों को सोच कर हनुमान जी बहुत उदास हो जाते हैं और उन की आंखों में पानी आ जाता है। तभी रावण वहाँ आ जाता है। रावण को देख सीता जी कांप उठती हैं। रावण सीता जी प्रलोभन देता है की वह उस की पत्नी बन जाए। रावण बार बार प्रलोभन देता हैं माँ भवानी को, पर माँ सीता एक नहीं सुनती। माँ सीता आवेश में आ कहती है, हे! रावण तू मुझे नही पा सकता। तू अपने घर से प्रेम कर, तू अपनी पत्नी से प्रीति कर। मैं पतिव्रता नारी हुँ, मैं प्राण तो दे दूँगी परन्तु इस घोर कु-कर्म को कभी नही करुँगी।

 

रावण के सुन वचन सब,

सीता कर आवेश।

बोली तब रोती हुई,

पाती पीड़ा क्लेश।।

 

अपने घर से प्रेम कर,

मुझ से तू मुख मोड़।

प्रीति लगा निज पत्नी से,

पाप पतन पन छोड़।।

 

फिर माँ सीता कहती हैं, रावण

जो तू चाहता है वो पूरा नहीं होगा। तेरे व्यवहार से ऐसा लगता है कि लंका नगरी में संत नहीं रहते या रहते हैं तो तेरे से डरते है, तभी तेरे पास सद्बुद्धि नही है। तेरे इस व्यवहार के कारण जो यह सोने की लंका है अब चूर चूर होने वाली है।

 

क्या सन्त यहां हैं नही,

सज्जन गुणी अपाप!,

वा तुझ को रुचते नहीं,

उनके कथन कलाप!।

 

पिता जी ने कहा जीवन में ऐसे बहुत व्यक्ति मिलेंगे जो आपको कुपथ पर ले जाएंगे पर सुपथ पर ले जाने वाले बहुत कम मिलेंगे।

 

सीता जी उसे कहतीं हैं कि तुझ जैसा कोई पापी नहीं। राम जी की पत्नी को चाहना, अपनी मृत्यु को बुलाने के सामान है। अगर तू इतना ही वीर है तू मुझे चोरी कर क्यों लाया। तेरे बचाव का एक मात्र उपाय यही है कि राघव बाण वर्षा से पहले ही मुझे उन्हें वापिस सौंप दे। तू राम जी से मैत्री कर ले उनके शरणागत हो जा। नहीं तो राम जी और लक्ष्मण जी के बाण से तेरे कुल वंश का नाश हो जाएगा।

सीता जी के कड़वे वचन सुन रावण गुस्से में आ कर उन्हें कहता है कि अगर मैंने दो मास की अवधि न दी होती तो आज है तेरा वध कर देता है। अगर तूने दो माह में मेरी बात न मानी तो मैं तुझ को मार कर खा जायूँगा। रावण असुरिओं को उल्टे सीधे तरीके से सीता जी को समझना के लिये कह वहां से चला जाता है। रावण के जाने के बाद सीता जी को आसुरियो बहुत तंग करती हैं, पर वो बिल्कुल नहीं घबराती और एक वृक्ष के नीचे बैठ विलाप करते हुए राम जी याद करने लगती है। हनुमान जी जो उसी वृक्ष पर बैठे होते सीता जी को अपना परिचय देतें हैं और राम जी द्वारा पहचान चिन्ह के रूप में दी अंगूठी उसे देते हैं। तब सीता जी उनसे राम जी का हाल पूछती हैं। तब हनुमान जी ने जवाब दिया प्रभु राम को ना खाने की सुध है, ना पहनने की सुध है। उन को कीड़ा काट ले उसकी उतनी पीड़ा नहीं है, जितनी आप के वियोग की पीड़ा है। हनुमान जी सीता जी से उन की कोई निशानी मांगते हैं। सीता जी उन्हें अपने वस्त्रों से निकाल चूड़ामणि उन्हें देते हुए कहतें की हनुमान अपने गुरुवर से कहना की अपने कितने ही पापी पतित उद्धारे है, अब मेरी लाज शर्म भी आप के हाथ है। अपने ही मुझे इस विपदा से निकलना है।हनुमान जी सीता जी की आज्ञा ले रावण को मिलने का सोच उस उद्यान को तहस नहस कर देतें हैं। जब रावण को इस का पता चलता है तो वह उन्हें पकड़ने सैनिक भेजता है। हनुमान जी उन सब का वध कर देतें हैं। अंत में दूत को प्रतापी जान रावण इंद्रजीत को भेजता है। इन्द्रजित हनुमान जी को पकड़ कर रावण के पास ले जाता है, तो रावण के परिचय पूछने पर हनुमान उसे राम जी का संदेश देतें हैं जिस को सुन रावण क्रोध में आ हनुमान जी की पूंछ में आग लगा, उन्हें छोड़ देता है। हनुमान जी लंका को जला कर सागर जल से आग बुझा सागर कर अपने साथियों के पास समुंदर किनारे आ जाते है। हनुमान जी की सफलता देख अंगद और उन के सभी साथी हंसते खेलते किष्किन्धा को लौट पड़ते हैं। सुग्रीव जी को अंगद के दल का हंसी खुशी आने का पता चलता है तो वह राम जी के पास आ कर कहते हैं यह सफल होकर आये है ऐसा मुझे विश्वास है ।

राघव जी अंगद और हनुमान जी को मिलने के बुलाते हैं। अंगद जी और हनुमान जी आते ही राघव जी के चरण पकड़ कर मिलतें हैं। हनुमान जी कहतें हैं – देखी है मैंने सती, जीवित है और बिना हानि के है।

 

‘देखी है मैंने सती’,

कहना सुधा समान।

सुन कर राघव अनुज में,

उमड़ा हर्ष महान।।

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