राजेंद्र शर्मा के दो व्यंग्य
*1. टेढ़ा है, पर लड्डू है!*
पुराने लोग सही कहते थे –नकल के लिए भी अकल की जरूरत होती है। देखा नहीं, बेचारे आंध्र प्रदेश वाले चंद्रबाबू नायडू और उनके संगियों को देश की सबसे ऊंची अदालत ने कैसी फटकार लगायी है। मामला था तिरुपति के लड्डू का और अदालत ने बात को खींचकर सीधे भगवान तक पहुंचा दिया। और इसके उपदेश पर उपदेश पिला दिए कि भगवान को राजनीति में क्यों घसीटा जा रहा है। करोड़ों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है। ऐसे ही चलेगा, तो भगवान में कोई आस्था कैसे रखेगा ; और न जाने क्या-क्या। बेचारे नायडू भी पछताते होंगे कि क्या सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए। बाल के बाल गए और गंजी खोपड़ी पर ओलों की मार भी झेलनी पड़ गयी। पहली बार पूरा जोर लगाकर एक धार्मिक मामला गढ़कर, उससे अपनी राजनीति चमकाने और खासतौर पर अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी जगनमोहन रेड्डी के खिलाफ भुनाने चले थे, पर सब उल्टा पड़ गया। मोदी जी और उनके संगी वही सब करें, तो ठीक और नायडू जी करें, तो गुनाह बेइज्जत। माना कि अब एक बार फिर दिल्ली के तख्त के लिए संगी हैं, पर यह सच तो नायडू को बोलना ही पड़ेगा कि सबसे बड़ी अदालत से भी उनको इंसाफ नहीं मिला है। इंसाफ की छोड़ो, यह तो खुली दुभांत है, दुभांत — पुराने केसरियाई वीर करें, तो रासलीला और नये-नये केसरियाधारी बने, नायडू और पवन-कल्याण करें, तो करैक्टर ढीला!
वैसे नायडू जी की शिकायत भी गलत नहीं है कि सबसे ऊंची अदालत के सारे कायदे-कानून, दलीलें, क्या उन्हीं के लिए हैं? ज्यादा नहीं, तो कम से कम पिछले दस साल में तो एक भी ऐसा मामला नहीं मिलेगा, जब किसी भगवा गमछाधारी के साथ अदालत ने ऐसी बेमुरव्वती दिखाई हो। बाबरी मस्जिद के मामले में तो खैर बिल्कुल ही नहीं। बेमुरव्वती छोड़िए, मस्जिद गिराने वालों के लिए गजब की मोहब्बत दिखाई। यह मानने के बाद भी कि बाबरी मस्जिद गिराना जुर्म था, जुर्म करने वालों के घर पर ही मिठाई के लड्डू बंटवा दिए। वैसे तिरुपति वाले प्रसादम के लड्डू भी अयोध्या में बंटे थे, लेकिन वह जरा बाद में हुआ था, तब जब मोदी जी उंगली पकडक़र रामलला को उनके पक्के घर में वापस लाए थे। लड्डू बंटा तब और शोर मचाने वाले शोर मचा रहे हैं अब, कि कहीं रामलला की घर वापसी के चक्कर में दुष्टों ने प्रसाद में गाय की चर्बी की वापसी तो नहीं करा दी! रही मथुरा और काशी के झगड़े उछालने वालों के साथ बेमुरव्वती की बात, उनके साथ तो छोटी से लेकर बड़ी तक, सारी अदालतें इस कदर मोहब्बत निबाह रही हैं और पहले से बने हुए धार्मिक स्थल कानून के साथ ऐसा सौतेलापन दिखा रही हैं कि पूछो ही मत। यह क्या सिर्फ इसीलिए है कि उनके गले में भगवा गमछा पुराना यानी ऑरीजिनल है!
लेकिन, नायडू के गले में भगवा गमछा देखकर तो आला जज ऐसे भड़के जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखाई दे गया हो। लगे सवालों के बाण पर बाण चलाने। जांच का नतीजा आए बिना ही नायडू ने यह कैसे कह दिया कि प्रसादम के लड्डू में गाय की चर्बी और मछली के तेल वगैरह की मिलावट की गयी थी? जब सीएम ने पहले ही तय कर लिया था कि लड्डू में मिलावट थी, तो उसके बाद लड्डू में मिलावट की जांच करने के लिए एसआइटी यानी विशेष जांच दल बनाने का क्या मतलब था? जो घी जांच के लिए भेजा गया था, घी के उन टैंकरों का तो प्रसाद के लड्डू बनाने के लिए उपयोग ही नहीं हुआ था, फिर प्रसाद के लड्डू में चर्बी वगैरह की मिलावट का दावा क्यों किया गया? और भी कई टेढ़े-मेढ़े सवाल। बेचारे वकील लोग जवाब देते भी तो क्या जवाब देते। भगवा-धारियों को पहले कभी अदालत के ऐसे टेढ़े सवालों का सामना करना पड़ा होता, तब न उनके उदाहरणों से सीखकर, नायडू जी का बचाव कर पाते। बेचारे खड़े-खड़े अदालत की डांट खाते रहे। और जिस मोदी परिवार की नकल करने के चक्कर में उन्हें डांट खानी पड़ी थी, उसके बड़े वकील तुषार मेहता साइड में खड़े मंद-मंद मुस्कुराते रहे ; अकल के लिए भी…। हद तो यह है कि आला अदालत ने नायडू की एसआइटी को किनारे कर के, अब अपनी तरफ से नयी एसआइटी बनवा दी है। नयी एसआइटी में केंद्र की सीबीआइ और राज्य की पुलिस, दोनों के दो-दो अफसर होंगे यानी बराबर, बराबर। पर एक पांचवां अफसर भी होगा, केंद्र की एफएसएसआइ का। यानी नायडू का दिल्ली की गद्दी को सहारा देना अपनी जगह, मर्जी तो मोदी जी की ही चलेगी। और मोदी की मर्जी तो यही है कि जहां तक हो सके, दोनों हाथों में तिरुपति का लड्डू रहे, एक हाथ में जगन रेड्डी वाला पुराना लड्डू और एक हाथ में नायडू वाला एक्स्ट्रा भगवा लड्डू।
पर बेचारे नायडू की भी तो कोई गलती नहीं है। जब खरबूजे को देखकर खरबूजा तक रंग बदलता है, तो वह तो ठहरे इंसान और उस पर से गद्दी वाली राजनीति के नेता। मोदी परिवार के साथ बैठेंगे, उठेंगे, तो राजनीति में धर्म और भगवान को घसीटेंगे ही घसीटेंगे। सुप्रीम कोर्ट के फटकारने से भी नहीं रुकेेंगे। कम से कम नायडू के डिप्टी, पवन कल्याण तो तनिक भी नहीं रुक रहे हैं। उल्टे उन्होंने भगवान को राजनीति में घसीटने की रफ्तार और भी तेज कर दी है। तिरुपति का लड्डू, नायडू की तरह उनके लिए भी तोप का ही गोला है, बस नायडू की तोप के निशाने पर जगन है और पवन कल्याण की दूर की मार करने वाली तोप के असली निशाने पर, नायडू। वैसे तिरुपति के लड्डू की तोप मोदी जी के पास भी है और उनकी तोप के निशाने पर तीनों हैं, जगन भी, नायडू भी और पवन भी। सब के सब निशाने पर भी हैं और सब के सब शरण में भी हैं। आखिरकार, भगवान को राजनीति में घसीटने का पेटेंट तो मोदी जी के ही पास है। अपने पेटेंट की हिफाजत करने के लिए, तीनों को बड़ी अदालत से फटकार भी खिलवाते रहेंगे और तीनों को अपनी शरण में लाते भी रहेंगे। टेढ़ा है, पर लड्डू है।
***************
*2. राजनीति में घसीटने भी दो यारो!*
भाई, ये तो भगवा भाईयों–बहनों के साथ सरासर चीटिंग है। बेचारों ने कितनी मुश्किल से‚ कितनी जान खपा–खपाकर‚ कितनी जुबान घिस–घिसकर‚ हरेक चीज में भगवान को घसीटने में महारत हासिल की थी। जब तक बेचारों की ट्रेनिंग चल रही थी‚ तब तो किसी अदालत ने नहीं रोका कि हरेक चीज में भगवान में खींचना मना है। पर अब जब वे हर चीज में भगवान कोे घसीटने में मास्टरर्स डिग्री कर के आ गए हैं‚ तो अचानक सुप्रीम कोर्ट की नींद खुल गई और जागते ही एलान कर दिया‚ कम से कम भगवान को राजनीति में नहीं घसीटा जाए।
यह भगवा भाई–बहनों के साथ धोखा ही तो है। बेचारों ने जान भिड़ाकर जिसकी पढ़ाई की‚ वही कोर्स के बाहर कर दिया। फिर बात सिर्फ भगवाइयों की नहीं है। बात राजनीति के अस्तित्व की है। अदालत ने यह तो आसानी से कह दिया कि भगवान को राजनीति में नहीं घसीटा जाए। पर यह नहीं बताया कि फिर राजनीति में किसे घसीटा जाए। जिस दिन से हमारे देश में खुले बाजार की आर्थिक नीतियां आई हैं‚ उसी दिन से आर्थिक नीतियों को राजनीति में घसीटने पर बैन लग गया था। संस्कृति को राजनीति में घसीटने पर तो पहले ही बैन था। शिक्षा को राजनीति में नहीं घसीटने की शिक्षा तो खैर आजादी के बाद से ही बच्चों को दी जा रही थी। खेलों को भी। सरकारी सेवाओं को राजनीति में घसीटने की हमेशा से मनाही थी‚ जब तक कि उन्हें आरएसएस मेें घसीटने की इजाजत नहीं दे दी गई। आरएसएस‚ राजनीति में नहीं न है जी! साहित्य‚ सिनेमा‚ समाज‚ किसी भी चीज को देखो‚ राजनीति में घसीटना मना है की तख्ती टंगी मिलेगी। अब भगवान को भी राजनीति में घसीटने पर रोक लग गई। तब राजनीति में करेंगे क्याॽ घुइयां छीलेंगे! बेचारे भगवाइयों को वह भी तो नहीं आता है।
वैसे सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा है‚ तिरुपति के लड्डू़ के सिलसिले में कहा है। लड्डू तिरुपति का ही सही‚ पर है तो लड्डू ही। वैसे प्यार से लड्डू़ गोपाल की भी आरती की जाती है‚ फिर भी लड्डू़ को भगवान नहीं कह सकते। लड्डू़‚ लड्डू़ है‚ भगवान नहीं‚ तभी तो उसमें मिलावट हो सकती है। नायडू–पवन जोड़ी की हड़बड़ी ने खामखां में बात बिगड़वा दी। भगवाइयों की नकल करने के लिए भी तो अकल चाहिए।
*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*