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बेलकीपर ‘ मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी

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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल 177 के जेल प्रवास के बाद बेल पर बाहर तो आ गए हैं ,लेकिन अब जिम्मेदारी उन्ही की बढ़ गयी है ,क्योंकि वे ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो न अपने दफ्तर जा सकता है और न ही किसी फ़ाइल पर दस्तखत कर सकता है। हाँ वे राजनीति कर सकते हैं, जो उन्हें करना चाहिए और उन्हें हरियाणा और जम्मू -कश्मीर विधान सभा चुनाव के प्रचार में शामिल होकर ये साबित करना चाहिए कि वे भाजपा की बी टीम नहीं है।

अरविंद केजरीवाल को जिन शर्तों के साथ और जिन परिस्थितियों में जमानत मिली है ,वे सामान्य नहीं है। वे अब पहले की तरह संप्रभु मुख्यमंत्री नहीं है। वे अब एक दिव्यांग मुख्यमंत्री हैं। अब उनके सामने दो ही विकल्प हैं कि वे या तो साहस कर अपना पद छोड़कर पार्टी के सुप्रीमो की हैसियत से काम करें या फिर नाम के मुख्यमंत्री बने रहे और अपने तमाम अधिकार अपने किसी निकटस्थ सहयोगी को दे दें अन्यथा नैतिकता हमेशा उनके आड़े आती रहेगी और सत्तारूढ़ भाजपा उन्हें ‘ बेलदार मुख्यमंत्री ‘ कहकर चिढ़ाती रहेगी । जेल जाने पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं और उन्होंने जमानत पर आने के बाद दोबारा अपना पद हासिल कर लिया था क्योंकि उनकी जमानत में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था जैसा कि केजरीवाल की जमानत में है।

केजरीवाल को जमानत भले ही देश की शीर्ष अदालत ने दी है लेकिन आम धारणा है कि उनकी जमानत को परोक्ष रूप से आसान केंद्र की और से बनाया गया। हकीकत जो भी हो लेकिन इस धारणा के चलते केजरीवाल पर ये आरोप आयद हो सकते हैं कि उन्हें हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का खेल खराब करने के लिए जमानत पर छोड़ा गया है। हरियाणा में आम आदमी पार्टी का कांग्रेस से चुनावी समझौता होते-होते रह गया ,ऐसे में यदि आम आदमी पार्टी हरियाणा में वोट -कटुवा पार्टी की भूमिका में चुनाव लड़ती है तो इससे एक तो विपक्ष का नुक्सान होगा दूसरे भाजपा के खिलाफ केजरीवाल की कथित लड़ाई की पोल भी खुल जायेगी।

आपको याद होगा कि केजरीवाल को लोकसभा चुनाव के समय भी चुनाव अभियान में शामिल होने के लिए जमानत मिली थी । केजरीवाल ने इस रियायत का इस्तेमाल भी करने की कोशिश भी की लेकिन उन्हें केवल पंजाब में 3 सीटें ही मिल पायी। दूसरे किसी राज्य में उन्हें कोई कामयाबी नहीं मिली। अब केजरीवाल के लिए जरूरी हो जाता है कि वे विपक्षी एकता को मजबूत बनाने के लिए कुछ समय के लिए ही समय लेकिन दधीच की भूमिका में सियासत का हिस्सा बनें।वे या तो हरियाणा से अपने प्रत्याशी हटा लें या फिर अघोषित रूप से कांग्रेस की विजय के लिए काम करें। क्योंकि हरियाणा या किसी भी दूसरे राज्य में उनकी उपस्थिति अब केवल और केवल भाजपा के लिए ही फायदेमंद रहने वाली है ।

केजरीवाल को यदि अपनी पार्टी की दशा बसपा जैसी नहीं करना है तो उन्हें अपनी रणनीति बदलना होगी । भाजपा के प्रति उनका विरोध केवल कागजी या दिखावे का नहीं होना चाहिए । उन्हें भाजपा से उसी तीव्रता के साथ लड़ना होगा जैसे कि कांग्रेस या दूसरे गैर भाजपा दल लड़ रहे हैं। भाजपा इस समय उसी तरह खलनायक की स्थिति में है जैसे किसी समय कांग्रेस थी। एक समय इंदिरा हटाओ ,देश बचाओ का नारा लगा था ,आज भाजपा हटाओ ,देश बचाओ का नारा लगना चाहिए ,क्योंकि भाजपा के दस साल के शासन काल में देश का बना कम और बिगड़ा ज्यादा है। देश का संविधान ,समरसता ,सौहार्द सब कुछ दांव पर लगा दिया गया है।

केजरीवाल का ये सौभाग्य है कि भाजपा ने अब तक उनकी सरकार गिराने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाने के पहले और आखरी विकल्प का सहारा नहीं लिया ह। भाजपा ऐसा आसानी से कर सकती है किन्तु जान-बूझकर ऐसा कर नहीं रही है । भाजपा ने पिछले दस साल में संविधान के अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर से हटाने के अलावा सत्ता हथियाने के लिए किस संवैधानिक हथियार का इस्तेमाल नहीं किया। भाजपा ने पिछले दस साल में जितने भी राज्यों में चुनाव हारने के बाद सत्ता हथियाई उसके लिए आपरेशन लोटस चला,दल-बदल चला,खरीद-फरोख्त चली ,अनैतिक समझौते हुए किन्तु राष्ट्रपति शासन कहीं भी नहीं लगाया गया ,यह तक कि बंगाल में भी नहीं ,जहां भाजपा की राजनीतिक दुश्मन नंबर एक सुश्री ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं।

काबिले गौर बात ये है कि इस समय भाजपा लोकसभा चुनाव में पिटने के बाद घायल शेर की तरह है । भाजपा अब अपने किसी भी राजनीतिक शत्रु को बख्सने के मूड में नहीं है ,फिर चाहे वे केजरीवाल हों,हेमंत सोरेन हों या ममता बनर्जी हो। भाजपा इन तीनों को मजबूरी में बर्दास्त कर रही है ,लेकिन उसे जैसे ही मौका मिलेगा वो इन तीनों को चित करने की कोशिश करेगी । इसके लिए साम,दाम,दंड और भेद का ही नहीं इससे भी हटकर दूसरे तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है।

इस समय विपक्ष में आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ही सबसे अधिक संदिग्ध नेता हैं। उन्होंने बार-बार भाजपा विरोधी अभियान को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नुक्सान पहुंचाया है , ये भूल सुधारने के लिए अरविंद के पास अंतिम सुनहरा अवसर है कि वे हरियाणा ही नहीं बल्कि आने वाले दिनों में महारष्ट्र,झारखण्ड ,बिहार और फिर अपनी दिल्ली विधानसभाके चुनाव में भी मिलजुलकर चुनाव l लड़ें अन्यथा उनकी और उनकी पार्टी की भी दशा बसपा जैसी हो सकती है।केजरीवाल शातिर राजनेता है। पढ़े-लिखे हैं इसलिए उन्हें क्या करना है ये उन्हें बताया नहीं जा सकता । अब सारा खेल उनकी मति और सुमति का है।

@ राकेश अचल

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