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पुस्तक चर्चा : नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत का बेहतरीन उपन्यास “औघड़”

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विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

हिन्द युग्म “नई वाली हिंदी” का जश्न मनाने वाले युवाओं द्वारा प्रारंभ की गई साहित्यिक यात्रा का मंच है । ब्लागिंग के प्रारंभिक दिनों में शैलेश भारतवासी ने हिन्दयुग्म प्रकाशन शुरु किया था । काव्य पल्लवन ब्लाग से मैं भी हिन्द युग्म के प्रारंभिक समय से जुडा रहा हूं । हिन्द युग्म ने कई हिट्स साहित्य जगत को दिये हैं । नीलोत्पल का”औघड़”भी उनमें से एक है।मलखानपुर गांव के इकतीस शब्द दृश्य बेबाकी से यथार्थ बयानी करते हैं।नीलोत्पल की लेखनी में प्रवाह है।

चाय की गुमटी वाले मुरारी,पंडितजी,जग्गू दा,जगदीश यादव , डागदर साहब , गणेशी के चरित्र पात्रों के संग कथानक के नायक सामंतवाद के प्रतिनिधि पुरषोत्तम सिंह और फूंकन सिंह वर्सेस पेशाब की धार को हथियार बनाकर जमींदार की हवेली पर प्रहार करने वाला औघड़ गंजेड़ी बिरंचिया … सबको बड़ी सहजता से “औघड़” में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है । बिना नायिका के भी उपन्यास पाठक को अपने साथ बनाये रखने में पूरी तरह सफल है ।

नीलोत्पल मृणाल नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों में से हैं , उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल चुका है । औघड़ लोकभाषा और उसी टोन में गांव की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है ।

रोजमर्रा की ग्रामीण समस्याओं को रेखांकित किया गया है , उपन्यास अंश उधृत है ” रमनी देवी ने कई बार कहा था कि रात-बिरात हरदम बाहर जाना पड़ता है। सुबह खेत जाओ तो लाज लगता है। कल के दिन घर में बहू आएगी तऽ ऊहो का ऐसे ही खेत जाएगी? काम भर के खाने-पीने का फसल हो ही जाता है। क्या घर में एक ठो लैटरिंग रूम नहीं बन सकता ? गरीब और किसान घर की औरत का इज्जत पानी नहीं है का? एक दिन रात को बलेसर के पतोह को दू-चार लफुआ मोटरसायकिल के लाइट मार रहा था। बेचारी कैसहूँ इज्जत ढक भागी। काहे नहीं बनवा देते हैं घर में लैटरिंग रूम ?”

इसी तरह भूत प्रेत टोना टोटके पर ग्रामीण नजरिये का अंदाजा इस अंश में देखिये “अरे, धीरे बोलिए ना आप। काहे हमारा प्राण लेने पर तुल गए हैं बाबा। अरे बाबा हम तो कह रहे हैं कि 1000 परसेंट भूत ही पकड़ा है चंदन बाबा को । लेकिन ई भूत हिंदू भूत है ही नहीं, महराज यह मुसलमान है, मुसलमान भूत। तब ना इतना उत्पात मचा रहा है। मुसलमानी भूत को क्या कर लेगा आपका जंतर-मंतर।” लटकु भंडारी ने यह बता जैसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य खोलकर रख दिया हो।”

नीलोत्पल के वाक्य विन्यास व्याकरण की सीमाओं से परे बोलचाल की ग्रामीण भाषा में ही है ।

नमूना देखिये ” गहरा साँवला रंग। हड्डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी वैजनाथ की। ”

सहज दृश्य वर्णन में वे नये उपमान रचते हैं ,” समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था “, “मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था। चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, “अल्लाह हू अकबर… “लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम।” मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। ” …. यह गाँव ही था जहां आम कुत्ते भी हीरा , मोती , शेरा नाम से जाने जाते थे ” .

उपन्यास में गांवो के सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियां, धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिलाओं की स्थिति का यथार्थ , अपराध और प्रशासन के गठजोड़, झोलाछाप स्वास्थ्य व्यवस्था ,सामंतवादी सोच के खिलाफ मध्य वर्ग की चेतना आदि विषयों को पूरी गंभीरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है।

बिरंचिया गंजेड़ी है । वह फूंकन सिंह की हवेली के सामने के नल से ही पानी पीकर पीछे की दीवार पर पेशाब कर उसे कमजोर करने की मशक्कत में लगा रहता है । उसके माध्यम से व्यंजना में बिटवीन द लाइन्स लेखक ने सामंतवाद के विरोध में बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है । बिरंचिया की असामयिक मौत के 13 दिन बाद अंतिम पृष्ठ से उद्धृत है …. ” रात के 11:30 बजे थे। पुरुषोत्तम सिंह की पत्नी आँगन में कुछ सामान लेने गई थी। तभी उसे लगा कि हाते के पास कुछ आकृति जैसी दिखी हो। उसने करीब जाकर दीवार के पार झाँका। झाँकते ही वह बदहवास उल्टे पाँव चिल्लाकर दौड़ी। घर के लोग तब तक लगभग सो चुके थे। आवाज सुनकर सबसे पहले पुरुषोत्तम सिंह हड़बड़ाकर जागे। “अरे क्या हुआ ? अरे हुआ क्या, काहे चिल्लाए हैं?” पुरुषोत्तम सिंह ने अपने कमरे से बाहर आकर पूछा। “अजी बिरंचिया। बिरंचिया को देखे हम। वहाँ है। वहाँ खड़ा है।” क्षणभर में पसीने से नहा चुकी, डर से थर-थर काँप रही पत्नी माला देवी ने बताया। “का ? दिमाग खराब है क्या तुम्हारा माँ!” तब तक उठकर आ चुका फूँकन सिंह अंदर के बरामदे से बोला। बाप-बेटे ने लाठी-टॉर्च लेकर पीछे जाकर देखा।

फूंकन सिंह लपक के दीवार पर चढ़ा और पुरुषोत्तम सिंह एक ऊँचा स्टूल लेकर टॉर्च मारने लगे। एक जगह टार्च जाते ही सिहर उठे दोनों। दीवार का एक कोना भीगा हुआ था। फूँकन सिंह तो देखते ही दीवार से कूदकर आँगन में आ गया था। पुरुषोत्तम सिंह ने काँपते कलेजे को सँभालते हुए एक बार सीधी रेखा में टार्च मारी। उन्हें भी लगा कि कोई आदमी काला कंबल ओढ़े दूर खेतों की ओर से निकल रहा है। पुरुषोत्तम सिंह को भी जो दिखा उस पर खुद भी यकीन नहीं कर पा रहे थे।… आखिर कौन था वो आदमी ? कोई तो था। बाप-बेटे अंदर से हिल चुके थे। पसीने से तरबतर, एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। दीवार अब भी खतरे में थी।

कुल जमा सहज भाषा में नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर “औघड़”एक उम्दा उपन्यास है । खूब पढ़ा जा रहा है , प्रिंट रिप्रिंट जारी है , अमेजन पर सुलभ है , आप भी पढ़िये ।

(विभूति फीचर्स)

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