शिवशंकर सिंह पारिजात
अंगभूमि भागलपुर अपने स्वर्णिम इतिहास के साथ सिद्ध योगियों और महान विभूतियों की भूमि रही है। महाभारत काल में जहां यहां वीर योद्धा दानवीर कर्ण का शासन था, वहीं मौर्यकालीन सम्राट अशोक की माता शुभ्रदांगी का जन्म अंग की राजधानी चम्पा में हुआ था। भगवान बुद्ध की महान शिष्या विशाखा और तीर्थंकर महावीर की विदुषी शिष्या चन्दनबाला यहीं की थी। इसी पुण्यभूमि पर जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर भगवान बासुपूज्य का जन्म और पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ था, वहीं पूरी दुनिया में हाथियों की चिकित्सा संबंधी प्रथम ग्रंथ हस्तय आयुर्वेद के रचयिता पालकप्य मुनि भी यहीं के थे। हाल के वर्षों में बिहार ही नहीं, पूरे भारत व विदेश में प्रसिद्ध महर्षि मेहीं की कर्मस्थली भागलपुर ही थी जहां कुप्पाघाट में उनका आश्रम आज भी श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। अंग क्षेत्र भागलपुर की इन्हीं विभूतियों की कड़ी में एक नाम बाबा भूतनाथ (1860-1951) का आता है जिनके दर्शन और वचन आज भी अति प्रासंगिक हैं।
बाबा भूतनाथ एक सिद्ध पुरुष तथा महान गृहस्थ साधक थे जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक समृद्धि के कारण एक दिव्य साधक के रूप में पहचान बनाई जिनके शिष्य न सिर्फ अंग प्रदेश अपितु बिहार और पूरे भारत में फैले थे। गृहस्थ साधक के रूप में विख्यात बाबा भूतनाथ एक कुशल शिक्षक के साथ एक दक्ष विद्वान, विलक्षण संस्कृताचार्य, सिद्ध योगी एवं सच्चे समाजसेवक थे जिन्होंने संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी सहित बांग्ला में सात ग्रंथों की रचना की। बाबा भूतनाथ का व्यक्तित्व और कृतित्व यह दर्शाता है कि वे हमारी सनातन व वैदिक परम्परा के पहुंचे हुए व्यक्तित्व हैं, जिन पर समस्त अंगभूमि को नाज है। हाल में बाबा भूतनाथ के परपोते सुप्रियो मुखर्जी द्वारा रचित पुस्तक भागलपुर के महान गृहस्थ साधक बाबा भूतनाथ के प्रकाशन से बाबा की चर्चा आज प्रासंगिक हो उठी है।
जीवन के प्रारंभिक काल से धर्म और आध्यात्म से जुड़े बाबा भूतनाथ ने भगवत्व प्राप्ति हेतु कठोर साधना की थी। उन्होंने महान् योगी व दर्शन शास्त्री, लाहिड़ी महाशय के नाम से प्रसिद्ध सर्वश्री श्यामा चरण लाहिड़ी के शिष्यत्व में धर्म और आध्यात्म की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। पहुंचे हुए संतयोगी के अनुयायियों में भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के वंशजों के नाम आते हैं। अपने राष्ट्रपतित्व काल में जब श्री प्रणब मुखर्जी विक्रमशिला परिदर्शन हेतु भागलपुर आये थे, तो उन्होंने सर्वप्रथम यहां से 50 किमी की दूरी पर बौंसी स्थित लाहिड़ी महाशय के अद्वैत मिशन जाकर अपनी श्रद्धा निवेदित की थी। लाहिड़ी महाशय के शिष्य निपुण क्रियायोगी भूपेंद्र नाथ सान्याल बाबा भूतनाथ के गुरुभाई थे। बताते हैं कि बाबा भूतनाथ तैलंग स्वामी के सान्निध्य में भी आये थे। उनका वैद्यनाथ धाम देवघर के संत बालानंद ब्रह्मचारी, जिनके अनुयाई न सिर्फ झारखंड अपितु बिहार-बंगाल तथा पूरे देश में फैले हुए हैं, के साथ घनिष्ठ संबंध थे। सिद्ध पुरुष बालानंद ब्रह्मचारी की शिष्या पाथुरियाघाट के राज-परिवार से संबंधित रानी चारूलता ने जब देवघर में नौ लाख की लागत से भव्य राधाकृष्ण मंदिर बनवाया, तो उसके प्रतिष्ठापन उत्सव में सिद्ध पुरुष बालानंद ब्रह्मचारी के आमंत्रण पर बाबा भूतनाथ शामिल हुए थे।
एक पहुंचे हुए धार्मिक प्रवृत्ति के साधक होते हुए भी बाबा का दृष्टिकोण अत्यंत मानवीय था। सदा आनंदित रहने का संदेश देते हुए वे कहते हैं कि सभी जीवों के भीतर परमात्मा विराजमान है जिसे जागृत करने की जरूरत है। मानवजन को सदा आनंदित रहने का संदेश देते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर सच्चिदानंद स्वरुप हैं जो सत्य, चेतन और आनंद युक्त हैं। अंतरात्मा के पास जीवन के हर प्रश्न का उत्तर है। मनुष्य यदि हंसना भूल गया, तो मानो जीना भूल गया। मनुष्य और प्रकृति के शाश्वत संबंधों की मीमांसा करते हुए वे कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में समाज और प्रकृति, दोनों का महत्व है, अत: हमें समाज के साथ एकीकरण कर प्रकृति के प्रति आजीवन आभारी रहना चाहिए।
बाबा भूतनाथ का जन्म पश्चिम बंगाल में हुआ था, किंतु उनकी कर्मस्थली बिहार का भागलपुर जिला रहा। उनका जन्म 21 नवम्बर, 1860 ई. में कोलकाता से 80 किमी उत्तर बंगाल के एक छोटे से गांव मासाग्राम में जगद्धात्री पूजा के दिन हुआ था। पिता उमेशचंद्र भट्टाचार्य संस्कृताचार्य और पुजारी थे। पिता उमेशचंद्र भगवान शिव के अनन्य भक्त थे, अत: उन्होंने शिव कृपा से प्राप्त अपने पुत्र का नाम भगवान शंकर के एक स्वरुप भूतनाथ के नाम पर रखा। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ बचपन से ही बालक भूतनाथ के अंदर आध्यात्मिक विकास के लक्षण दिखाई पडऩे लगे थे। भूतनाथ अक्सर ही अपने पिता के साथ पूजा मंडपों पर जाया करते थे तथा उनके द्वारा उच्चारित मंत्रों को ध्यान से सुना करते थे। 1786 में तरुण भूतनाथ ने मैट्रिक की परीक्षा संस्कृत में सर्वोच्च अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। उनके कॉलेज की शिक्षा वर्धमान राज कॉलेज से हुई। कॉलेज के दिनों में ही उनके अंदर गीता, वेद, पुराण, जातक जैसे धर्मग्रंथों के प्रति रुझान होने लगी। बीए आनर्स में भी उन्होंने संस्कृत में सर्वोच्च अंकों के साथ गोल्ड मेडल प्राप्त किया।
युवक भूतनाथ की पूजा-पाठ और ध्यानासास में अत्यधिक तल्लीनता को देखते हुए, इस भय से कि वे कहीं साधु-संन्यासी न बन जायें, पिता ने 1884 में उनका विवाह मासाग्राम के बगल के गांव की थाकोमणि देवी के साथ करा दिया। किंतु भूतनाथ घर-गृहस्थी के प्रति रुचिहीन थे और शादी के एक वर्ष के बाद वे रातों-रात बिना किसी को बताये एक अनजान गंतव्य की ओर निकल पड़े।
गृह त्याग के बाद भूतनाथ अनेक धार्मिक स्थलों का भ्रमण करते हुए काशी (बनारस) पहुंच गये जहां उनकी मुलाकात उस समय के महान् योगी और दर्शनशास्त्री श्यामाचरण लाहिड़ी अर्थात लाहिड़ी महाशय से हुई जिनके सान्निध्य में उन्होंने कई महीनों तक योग साधना की गहन शिक्षा प्राप्त की।
बनारस के गंगा घाटों पर भगवत्व प्राप्ति हेतु आत्मलोक और परमात्मालोक को जाती समस्त विधियों व उपक्रमों की कठोर साधना में निरत भूतनाथ बाबा को अंतत: एक दिन भगवान के ज्योतिर्मयी रुप का दिव्य दर्शन प्राप्त हुआ। परमेश्वर के साथ तादात्म्य की यह एक ऐसी अलौकिक अनुभूति थी, जिसके लिये बाबा भूतनाथ का हृदय वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था। बाबा भूतनाथ के गुरु लाहिड़ी महाशय उच्च कोटि के एक ऐसे साधक थे जिन्होंने सद्गृहस्थ के रूप में रहते हुए भी दिव्य यौगिक पूर्णता हासिल की थी। लाहिड़ी महाशय ने अपने शिष्य भूतनाथ को भी बनारस से वापस जाकर अपने गृहस्थ जीवन का भलीभांति उत्तरदायित्व सम्हालते हुए एक पथ प्रदर्शक की भांति सर्वजनों को परमेश्वर के प्रति अग्रसर करने का निर्देश दिया जिसके कारण बाद में वे गृहस्थ साधक के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बनारस के गंगा तट की शांति से बाबा भूतनाथ अत्यंत प्रभावित हुए थे। अत: उन्होंने गुरु लाहिड़ी महाशय के आदेश को शिरोधार्य किया और गंगा तट पर बसे अंग देश के नाम से प्रसिद्ध प्राचीन सांस्कृतिक नगरी भागलपुर आकर यहां गंगा के किनारे बड़ी खंजरपुर मुहल्ले में बस गये। जीविकोपार्जन हेतु वे भागलपुर के प्रतिष्ठित जिला स्कूल में संस्कृताचार्य के पद पर नौकरी करने लगे जहां बाद में अपनी विद्वता के बल पर विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन हुए। अपने तेजस्वी व्यक्तित्व व ओजस्वी वाणी के चलते जहां उनकी पहचान एक आदर्श शिक्षक के रूप में हुई, वहीं उनकी धार्मिक-आध्यात्मिक गुणवत्ता के कारण लोग उनको आदर के साथ पंडित मोशाय कहकर संबोधित करने लगे। स्कूल में अध्यापन के साथ उनका पूरा दिन गंगा तट पर योग साधना व आवास में आये लोगों के साथ भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ, आध्यात्म व धर्म-चर्चा में व्यतीत होता था। बाबा भूतनाथ भगवान शिव तथा मां काली के अनन्य भक्त थे। उन्होंने अपने खंजरपुर आवास में भूतेश्वर नाथ शिव मंदिर के अलावा काली मंदिर की स्थापना की थी। शिव मंदिर तो आज भी विद्यमान है, किंतु काली मंदिर जर्जर हो चुका है।
बाबा भूतनाथ सन् 1919 में सेवानिवृत्त हुए जिसके पश्चात् धर्म-अध्यात्म में उनकी पैठ और बढ़ती गई। उनके यहां भक्तों, अनुयायियों और सुधीजनों के साथ आम लोगों के आवागमन का सिलसिला बढ़ता गया। बाबा के यहां आनेवाले लोगों में बांग्ला के मूर्धन्य साहित्यकार बलाई चंद मुखर्जी बनफूल, कथाशिल्पी शरतचन्द्र के मामा साहित्यकार सुरेंद्रनाथ गंगोपाध्याय, सुप्रसिद्ध सिने निर्देशक तपन सिन्हा, प्रसिद्ध फिल्म निर्माता अरविंद मुखर्जी के अलावा कमिश्नर सीसी मुखर्जी, डिस्ट्रिक्ट जज हरेंद्र नारायण सिंह, राय बहादुर सूर्य प्रकाश, प्रोफेसर नीलमणि आचार्य, एडवोकेट तपेश्वर बोस, भोलानाथ सेन एवं चंद्रशेखर घोष आदि के साथ सिल्क व्यवसायी मुहम्मद मंसूर अली, भीखनपुर मस्जिद के खादिम शाह साहब आदि के नाम शामिल हैं। बाबा भूतनाथ के प्रमुख अनुयायियों में पटना हाईकोर्ट के जज हेमंत चौधरी और जुगल किशोर नारायण, कलकत्ता हाईकोर्ट के जज भूतन मोहन लाहिड़ी, वाराणसी के हरिनंदन सिंह सरीखे लोगों के नाम आते हैं। भागलपुर के कई अग्रणी व्यवसाई भी उनके शिष्य थे। अपने असंख्य अनुयायियों, भक्तों और चहेतों को छोड़कर बाबा भूतनाथ 18 अक्टूबर, 1951 को महासमाधि में लीन हो गये। भले ही बाबा भूतनाथ को गुजरे हुए 75 वर्ष के करीब हो गये हैं पर उनके दर्शन, विचार और उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं जिन पर गहन शोध और खोज करने की आवश्यकता है। उनका मानना था कि जगत के सभी मंदिरों में मन का मंदिर ही सबसे बड़ा मंदिर होता है, जो कि आज के धर्मांन्धता के दौर में हमें सद्भाव का संदेश देते हैं। (विभूति फीचर्स)