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रिश्तों को “मोल” दो.

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क्या?  तुम्हारी नज़र में

रिश्तों की क़द्र,

यहीं रह गई बाकी.

साथी का मिला साथ,

बाकी सभी रह गए

तुमसे खाली हाथ.

कब ये समझ पाओगे,

कि अभिभावकों को

तुम्हारे ही कारण,

नज़रे झुकाना पड़ती होंगी.

उन्हें भी रिश्तों के

टूटने का मलाल,

होता ही होगा.

अभी-भी संभल जाओ,

अति हुई नहीं हैं,

मति से काम लो कि

क्षति हुई नहीं हैं.

देखों डोर हाथ में है,

परिवार भी साथ में हैं.

रह जाए ना कसक,

परे रखो अकड़ व ठसक.

बस, लबों को खोल दो,

थाम लो सबका हाथ,

रिश्तों को “मोल” दो.

 

संजय एम. तराणेकर

(कवि, लेखक व समीक्षक)

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