कुमार कृष्णन
आजादी की लड़ाई में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में भूमिगत रूप से क्रांतिकारी आंदोलन चलाने और उसे नेतृत्व प्रदान करनेवालों बाबू सियाराम सिंह अग्रणी सेनानी थे। उनके द्वारा गठित सियाराम दल ने विदेशी हुकूमत की नींद हराम कर रखी थी। इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेस में इस क्षेत्र की गतिविधियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भागलपुर, मुंगेर, सीतामढ़ी किशनगंज, बलिया, सुल्तानगंज, पूर्णिया आदि जिलों में सियाराम दल के सेवकों का प्रशासन पर कब्जा था। सियाराम बाबू के योगदान से पूरा बिहार गौरवान्वित है। डिस्ट्रिक गजेटियर ऑफ भागलपुर पी सी राय चौधरी ने भी उनके योगदान की चर्चा की है।
मुल्क के माथे पर लगे गुलामी के टीके को मिटाकर दम लेनेवाले सियाराम सिंह का जन्म भागलपुर जिले के सुलतानगंज प्रखंड के महेशी तिलकपुर गांव में बाबू लक्ष्मीनारायण सिंह के यहां 5 सितम्बर 1905 को आश्विन माह में हुआ। वे नौंवी कक्षा तक तालीम लेने के बाद आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
इनकी प्राथमिक शिक्षा तिलकपुर के माध्यमिक विद्यालय में हुई थी और उच्च शिक्षा टीएनबी कॉलेज में हुई थी।
यह वह दौर था जब रौलेट एक्ट जैसे दमनकारी कानून की मुखालफत करते हुए गांधी जी ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इसी दौरान 13 अप्रैल 1905 को भीषण जलियांवाला बाग कांड हुआ। इसका देशव्यापी असर हुआ। कविगुरू रविन्द्रनाथ टैगोर ने सर की उपाधि लौटा दी। श्री कृष्ण सिंह वकालत के पेशे को लात मार कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जब दौरा हुआ तो उनके भाषण का ज्यादा असर हुआ।उन्होंने अपने गांव में देवश्री आश्रम की स्थापना की। बापू के आदेश का पालन करते हुए गांव गांव से अन्न संग्रह करना और लोगों को रचनात्मक कार्य के लिए प्रेरित किया। इसी दौरान उनका विवाह तेलधी निवासी सरस्वती देवी से हुआ। उनके कामों में पत्नी का सहयोग मिला।
1930 में महात्मा गांधी ने सिविल नाफरमानी आंदोलन का श्रीगणेश किया और अपनी गिरफ्तारी से पूर्व महिलाओं का आह्वान अग्रगामी भूमिका निभाने का किया तो सियाराम बाबू की पत्नी सरस्वती देवी और पटलबाबू की पत्नी चम्पकलता ने महिलाओं को घरों से बाहर निकालकर आजादी की लड़ाई में लाने की अगुआई की। सरस्वती देवी आजादी की लड़ाई में गिरफ्तार होनेवाली प्रथम महिला थी। 4 मई 1930 को नमक कानून की अवज्ञा करते हुए महात्मा गांधी की घरासना नमक निर्माणशाला गिरफ्तारी हुई तो पूरे देश में इस गिरफ्तारी का विरोध हुआ। सियाराम बाबू ने विहपुर के नमक सत्याग्रह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान सियाराम बाबू की गिरफ्तारी हुई। उन्हें छह माह की सजा हुई और बाद में ये हजारीबाग जेल से छूटे। 1934 के विनाशकारी भूकंप में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, दीपनारायण सिंह और अन्य लोगों के साथ मिलकर बिहार में जनता के सेवा में लगे रहे।
1 जुलाई 1937 को कांग्रेस कार्यकारिणी ने सरकारों के गठन का फैसला लिया। मोहम्मद यूनुस की अन्तरिम सरकार के त्यागपत्र के बाद 20 जुलाई 1937 को श्रीकृष्ण सिंह ने अपने मन्त्रिमण्डल का संगठन किया लेकिन 15 जनवरी 1938 में राजनीतिक कैदियों की रिहाई के मुद्दे पर अपने मन्त्रिमण्डल को भंग कर दिया। 19 मार्च 1938 को द्वितीय विश्व युद्ध में बिना ऐलान के भारतीयों को शामिल किया गया, पूरे देश भर में इसके विरुद्ध प्रदर्शन हुआ। 27 जून 1937 में लिनलियथगो ने आश्वासन दिया कि भारतीय मन्त्रियों के वैधानिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
सरकारी दमन चक्र बढ़ रहा था और आंदोलन धीमा प्रतीत होने लगा था शांति सिर्फ ऊपर से दिखती थी। अंदर ही अंदर असंख्य राष्ट्रकर्मी चोरी छिपे काम कर रहे थे। बापू ने करो और मरो का नारा दिया। 9 अगस्त को अनेक नेताओं की गिरफ्तारी हुई। पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराते हुए बांका जिला के खरहरा के सतीश झा शहीद हो गए। इसी दौरान भारत छोड़ो आन्दोलन की अवधि में सियाराम बाबू जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आए। उनके द्वारा गठित आजाद दस्ता के माध्यम से भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद क्रान्तिकारियों द्वारा प्रथम गुप्त गतिविधियाँ चलायी जाती थीं। जयप्रकाश नारायण ने इसकी स्थापना नेपाल की तराई के जंगलों में रहकर की थी। इसके सदस्यों को छापामार युद्ध एवं विदेशी शासन को अस्त-व्यस्त एवं पंगु करने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा।
बिहार प्रान्तीय आजाद दस्ते का नेतृत्व सूरज नारायण सिंह के अधीन था। परन्तु भारत सरकार के दबाव में मई, 1943 में जय प्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, बाबू श्यामनन्दन, कार्तिक प्रसाद सिंह इत्यादि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और हनुमान नगर जेल में डाल दिया गया। आजाद दस्ता के निर्देशक बाबू श्यामसुंदर प्रसाद थे। मार्च, 1943 में राजविलास (नेपाल) में प्रथम गुरिल्ला प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की गई।
फरारी जीवन के दौरान अच्युत पट्टवर्द्धन आदि नेताओं के संपर्क में नेपाल के तराई के इलाके में क्रांतिकारियों का प्रशिक्षण चलता था। इसी दौरान लोकनायक जयप्रकाश नारायण और अन्य साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। सरदार नित्यानंद के साथ सियाराम बाबू व अन्य साथियों ने हनुमाननगर जेल पर हमला कर जयप्रकाश नारायण को छुड़ा लिया। क्रांति की प्रगति और निरंतरता को बनाए रखने के लिए सियाराम सिंह के नेतृत्व में सियाराम दल काफी सक्रिय रहा। इसने विदेशी शासन की नींद हराम कर रखी थी। गुप्त क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व सियाराम दल के हाथों में था। इसके क्रान्तिकारी दल के कार्यक्रम की चार बातें मुख्य थीं- धन संचय, शस्त्र संचय, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण तथा सरकार का प्रतिरोध करने के लिए जनसंगठन बनाना। सियाराम दल का प्रभाव भागलपुर, मुंगेर, किशनगंज, बलिया, सुल्तानगंज, पूर्णिया आदि जिलों में था। सियाराम सिंह सुल्तानगंज के तिलकपुर गांव के निवासी थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन में हिंसा और पुलिस दमन के अनगिनत उदाहरण मिलते हैं।
डॉ. के के दत्त द्वारा लिखित बिहार में स्वातंत्रय आन्दोलन का इतिहास भाग-2, पृष्ठ 259 के अनुसार वस्तु स्थिति यह थी कि सरकारी सैनिक एवं पुलिस जनता को आतंकित रखती। सियाराम दल सरकारी अधिकारियों के लिए आतंक बना हुआ था। सरकार के अनेक प्रयत्नों के बावजूद दल के नायक या नेता गिरफ्तार नहीं किए जा सके। सियाराम दल के सदस्यों ने अनेक गांव पंचायत स्थापित किया। अपराधियों को दंडित करना तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा सताए हुए परिवारों की सहायता करना ही इसका मुख्य काम था। विभिन्न क्षेत्रों में सियाराम दल ने समानांतर सरकार की स्थापना कर ली थी। धन संचय संचय, शस्त्र संचय, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण और सरकार का प्रतिरोध करने के लिए जनसंगठन कायम करना इस दल के मुख्य कार्यक्रम में शामिल था। सियाराम सिंह के व्यक्तिगत प्रभाव के कारण लोग स्वेच्छा से धन देते थे। अनेक मामलों में दल के साथ राजनीतिक डकैतियां भी करते थे। इसके अलावा बंदूकें और हथियार बनाने का प्रशिक्षण भी चलता था। शस्त्र चालन और प्रशिक्षण की सुविधा दल में सरदार नित्यानंद सिंह और पार्थ ब्रह्मचारी के कारण थी। ये फौज में लांस नायक थे। इसको अलावा विन्देश्वरी नामक पुलिस का जवान इनके साथ था। बाबू सियाराम सिंह दल के नेता थे और पार्थ ब्रह्मचारी इसके मुख्य नायक। अंग्रेजों ने सियाराम सिंह को पकडऩे के लिए घेराबंदी करनी शुरू कर दी। इसी बीच अंग्रजों को कमजोर करने के लिए सियाराम सिंह ने सुल्तानगंज में खड़ी गोला-बारूद से भरी ट्रेन को लूट लिया गया इस दौरान गोलियां भी चली,कई साथी उनके शहीद हो गए, लेकिन सियाराम सिंह वहां से भी बचकर भाग निकले। दल की छापामार कार्रवाईयों से सरकारी व्यवस्था छिन्न भिन्न रही। सरकारी सैनिक एवं पुलिस जनता को आतंकित करती थी और सियाराम दल उनके लिए आतंक का कारण बना हुआ था। दल के नायक और नेता गिरफ्तार नहीं किए जा सके। बड़े ही कौशल के साथ सियाराम बाबू एक जगह से दूसरी जगह जाते।
सियाराम सिंह के साथ 10 जनवरी 1944 को सनसनीखेज घटना हो गई। इस दिन सियाराम सिंह अपने कुछ साथियों के साथ रन्नूचक मकन्दपुर में थे। एक-एक सशस्त्र पुलिस का दस्ता वहां पहुंच गया। सियाराम सिंह चौधरी और तेतर गुरूजी गिरफ्तार हो गये। ग्रामवासियों ने पुलिस की कठोर यंत्रणा के बावजूद सियाराम सिंह आदि के बारे में जानकारी नहीं दी। श्री सिंह घंटो भूसे के ढेर में छिपे रहे। पुलिस के वहां से चले जाने पर बहुत ही बुरी स्थिति में उन्हें निकाला गया। सियाराम सिंह उस समय तक बेहोश हो चुके थे। मकन्दपुर के एक पहलवान ने उन्हें अपने कंधे पर लादकर नदी पार की। वहां काफी देर बाद श्री सिंह की चेतना लौटी। सियाराम सिंह की गतिविधियों से ब्रिटिश अधिकारी बहुत ही चिंतित थे, लेकिन वे अगस्त क्रांति को संचालित करते रहें और इस समयविधि में कभी गिरफ्तार नहीं हुए। उनके साथ सीताराम मंडल, सुखदेव चौधरी, रघुनंदन चौधरी, नित्यानंद सिंह, रूपन मंडल,व्यास जी, सुरेश्वर पाठक,पार्थ ब्रह्मचारी,लड्डू शर्मा,योगा राय, विन्देश्वरी कुंवर, अर्जुन सिंह,दीना झा, वालेश्वर तिवारी,सरयुग चौधरी, चुनचुन सिंह,तेलधी के चन्द्रदेव शर्मा,चतुरी शर्मा,चतुरी राय, सूर्यनारायण चौधरी ,चतुर्भूज मंडल,भैरव कुंवर, चुनचुन कुंवर , रास बिहारी कुंवर दल में सक्रिय थे। भागलपुर के बाबू शुभकरण चूड़ीवाला फरारी जीवन में सियाराम बाबू के साथ थे। वे समय समय पर दल को आर्थिक सहयोग देते। देवघर के आरोग्य भवन में क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें होती थी।
31 अगस्त 1942 को सियाराम बाबू ने सोनबरसा में जनसभा को संबोधित करते हुए जनता ग्राम रक्षा दल गठित करने और नौजवानों से स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने का आह्ववान किया। वहां से तेलधी, मौजमा, मुंगेर, खजरैठा, डुमरिया, दुमकिया, सुलतानगंज में सभाएं की। वे जगह जगह घूमते और आंदोलन की प्रगति की समीक्षा करते तथा आंदोलन की भावी रणनीति तय करते। 1 दिसम्बर 1942 को गोगरी में 5 दिसम्बर 1942 को विहपुर,गोपालपुर और नवगछिया के कार्यकर्ताओं की सभा मुंगेर के शिवकुंड दियारे में हुई जिसमें शांति दस्ता और सैनिक संगठन बनाने का आह्वान किया। सियाराम बाबू का कार्यक्रम 1943 में भी जारी रहा। भागलपुर, मुंगेर, पूर्णिया, संथालपरगना में एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहे। इन जगहों के कार्यकर्ताओं की बैठक कोसी के गरई दियारा में आयोजित की गयी। सियाराम बाबू को जिन्दा या मुर्दा गिरफ्तार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पांच हजार रूपये ईनाम की घोषणा की। 14 जुलाई 1943 को घर पहुंचे तो लोगों ने कहा हम लोग आपके साथ हैं पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पाएगी।
29 अगस्त 194 ई. में सियाराम दल और पार्थ ब्रह्मचारी दल ने डेढ़ सौ साथियों के साथ साढ़े पांच बजे सुहबह सोनबरसा थाना का छापा मारा था। अभियान असफल रहा था। इस घटना में सात व्यक्ति शहीद हुए थे।
1946 ई में सियाराम सिंह भागलपुर जिला कांग्रेस के कमेटी के अध्यक्ष चुने गये थे। 1948 में वे समाजवादी पार्टी में शामिल हुए, हालांकि कुछ समय बाद वे पुन: कांग्रेस में आ गये। और पुन: भारतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये और 1966 के प्रारंभ तक पद पर बने रहे। प्रोसिडिग्स ऑफ दी डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी भागलपुर के अनुसार 1962 में बिहार प्रान्तीय कांग्रेस समिति के जनरल सेक्रेटरी रहे, उसी वर्ष बिहार विधानमंडल में चुने गये थे। 1966 में वे बिहार प्रान्तीय समिति के उपाध्यक्ष रहे और 1967 में कोषाध्यक्ष। सक्रिय राष्ट्रवादी सियाराम सिंह ने अपनी ऊर्जा ना केवल राजनीति में लगाई बल्कि उन्होंने समाजसेवा भी की। 8 सितम्बर 1975 को उनका निधन हो गया। आजादी की लडा़ई का जब भी जिक्र होता है,सियाराम सिंह का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। (विनायक फीचर्स)