कवित्री : कोमल अरोड़ा
जीवन में आती रुकवातों और हार का अनुभव करती एक स्त्री के गिरने संभलने की कहनी
मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी
मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी कुछ टूटी हूँ
कुछ निराश हूँ कुछ रुक भी गई हूँ
पर मैं जानती हूँ मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी
ना रोक सकेगी मुश्किलें
ना रोक सकेगी दुनिया
ना रोक सकेगी किस्मत
मैं जानती हूँ मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी
मैं गिर के सँभल जाऊँगी
कुछ रोऊ गी कुछ गभराऊ गी
पर मैं फिर खड़ी हो जाऊँगा
कई बार टूटी हूँ कई बार बिखरी हूँ
पर फिर बिखेरे टुकड़ों को समेट
उठी हूँ अपनी कमज़ोरियो
से लड़ी हूँ घबराई हूँ
डरी हूँ पर फिर उठ खड़ी हूँ
मैं जानती हूँ मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी
ऐसा नहीं के कुछ ख़ास हूँ
एक मामूली इंसान हूँ
गिर गिर के सँभलती हूँ
गिरती हूँ फिर उठती हूँ
एक आग है जो सोने नहीं देती
एक आस है जो रुकने नहीं देती
उम्मीद है जो बूझने नहीं देती
मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी मन हार जाता है
दिल बैठ जाता है हौसला परस्त होने लगता है
फिर एक आवाज़ आती है
मेरे कानो में कह जाती है
उठ संघर्ष कर यहीं तेरी
नियति है उठ जाए गी तो
जी लेगी रुक गई तो
ठहर जाएगा फिर कभी नहीं
उठ पाएगी तूफ़ानो ने पाला है
तुझको सघर्षों ने
लोरी गाई है तू हार मान जाएँ
यह तो शिक्षा ना तूने पाई है
मन पर लगाम कस
इंद्रियो को काबू कर
रख भरोसा
अपने ईश्वर पर
क्योकि उसको भी यक़ीन है
के तू फिर खड़ी हो जाएगी
चल छोड़ चिंता
रख भरोसा चल जीवन का
अगला पना लिखते है
चल हाथ रख दिल पर
और खड़ी होजा
चिल्ला ज़ोर से मैं फिर खड़ी हो जाऊँगी।