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पंजाब में कई नेताओं को मिली राजनितक आकसिजन,कईयों की प्रतिष्ठा दाव पर

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पंजाब/यूटर्न /6 जून: पंजाब में 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद कई दिग्गज नेताओं के लिए नई चुनौतियां खड़ी हो गई है। वहीं कई नेताओं का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इन लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ऑक्सीजन जरूर मिली है, लेकिन बाकी पार्टियों व नेताओं के लिए चुनाव काफी चुनौती व खतरे की घंटी है। अकाली दल के सुप्रीमो सुखबीर बादल के लिए यह खतरे की घंटी है। पंजाब में अमृतपाल सिंह व सर्बजीत सिंह खालसा के सांसद बनने से पंथक नेताओं को एक मंच मिल गया है। अकाली दल एक सीट पर सिमट गया है। 2019 में अकाली दल के दो सांसद थे जबकि 2014 में जब पंजाब में आप की लहर चली थी और चार सांसद जीते थे, उस समय भी अकाली के चार सांसद लोकसभा पहुंचे थे। इनमें हरसिमरत कौर बादल, रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा, प्रेम सिंह चंदूमाजरा व शेर सिंह घुबाया शामिल थे। 2009 में भी शिअद के चार सांसद थे और वोट शेयर 34.28 फीसदी था जो अब सिमटकर 13 फीसदी पर आकर गिर गया है। सुखबीर बादल के लिए आगे का रास्ता कठिन है। बिक्रम मजीठिया से खटपट जगजाहिर हो चुकी है वहीं अपने जीजा व पूर्व सीएम के पोते आदेश प्रताप कैरों को पार्टी से चलता कर दिया है। जिसका विरोध ढींडसा, बीबी जागीर कौर ने भी किया है। संगरूर से चुनाव हारने वाले इकबाल सिंह झुंदा कमेटी की रिपोर्ट अभी लागू नहीं हुई है, जिसमें सुखबीर बादल के स्थान पर किसी अन्य को पार्टी अध्यक्ष बनाने की सिफारिश की गयी है। अकाली दल कई सीटों पर अपनी जमानत भी नहीं बचा पाया है। सुखबीर बादल की प्रधानगी को लेकर फिर से चिंगारी उठ सकती है। पंथक नेता सुखबीर बादल को हर तरफ घेर रहे हैं। अकाली दल के बड़े चेहरों प्रेम सिंह चंदूमाजरा व डॉ. दलजीत सिंह चीमा जैसे नेता बुरी तरह से हार गए हैं।
कैप्टन की राजनीतिक पारी को विराम
दूसरी तरफ कैप्टन अमरिंदर सिंह की राजनीतिक पारी पर विराम लगता दिखाई दिया है। इन चुनावों में कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरफ से बिलकुल प्रचार नहीं किया गया है। कैप्टन अमरिंदर सिंह की पत्नी परनीत कौर अपनी सीट नहीं बचा पाई हैं। उनकी बेटी जयइंद्र कौर महिला भाजपा की स्टेट प्रधान है, लेकिन उनकी तरफ से भी इस चुनाव में सक्रियता नहीं दिखाई गई है। भाजपा प्रधान सुनील जाखड़ को लेकर पार्टी के भीतर पहले ही रोष है कि टकसाली भाजपाई के स्थान पर कांग्रेस से आए जाखड़ को लगाया गया है, लेकिन पार्टी द्वारा पंजाब में शून्य पर आउट होने से जाखड़ की कुर्सी पर खतरा मंडराने लगा है। 2019 में भाजपा ने पंजाब में दो सीट जीती थी, जिसमें एक होशियारपुर व दूसरी गुरदासपुर की थी लेकिन इस बार दोनों सीट हार गई है। इतना ही नहीं पीएम मोदी ने पंजाब में चार लोकसभा क्षेत्रों में रैलियां की और उन चारों सीटों पर भाजपा हार गई है।
भाजपा में शामिल होने के बाद हार गए बिट्टू
पंजाब के पूर्व सीएम बेअंत सिंह के पोते रवनीत बिट्टू लुधियाना से तीन बार सांसद बने थे लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद हार गए हैं। उनके लिए आगे रास्ता कठिन है क्योंकि पार्टी का कैडर उनको पचा नहीं पा रहा है। विजय सांपला इस सीट के इंचार्ज थे और सीट हारने से सांपला को भी हाईकमान को उत्तर देना होगा। सांपला आगे ही भाजपा में हाशिये पर चल रहे हैं। उनके बायां व दहिना हाथ रॉबिन सांपला व प्रदीप खुल्लर चुनावों से ठीक पहले भाजपा को अलविदा कहकर आप में चले गए थे। इसको लेकर सांपला पर सवाल उठ रहे हैं। वहीं केंद्रीय राज्यमंत्री सोमप्रकाश की पत्नी अनिता सोमप्रकाश के चुनाव हारने से सोमप्रकाश की राजनीति पर भी आगे के लिए प्रश्नचिन्ह लग गया है। कांग्रेस को अलविदा कहकर भाजपा में शामिल होने वाली पूर्व सांसद संतोख सिंह की पत्नी कर्मजीत कौर के अलावा उनके बेटे फिल्लौर से विधायक बिक्रम चौधरी भी कुछ जलवा नहीं दिखा पाए हैं। हालात यह है कि फिल्लौर से भाजपा 34 हजार वोटों से हार गई।
आप का रास्ता कठिन
आप के लिए आगे का रास्ता कठिन होने वाला है। 2022 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42 प्रतिशत मतों के साथ राज्य की 117 में से 92 सीटों पर जीत मिली थी। मात्र सवा दो साल में पार्टी का मत प्रतिशत गिर कर 26 प्रतिशत पर आ टिका। पार्टी ने पांच मंत्रियों व इतने ही विधायकों को चुनाव मैदान में उतारा। इनमें से केवल एक विधायक ही जीत दर्ज कर पाए हैं। सीएम मान के लिए पार्टी के ग्राफ को बढ़ाना एक बड़ी चुनौती होगी। चुनावों से पहले पार्टी के सांसद सुशील रिंकू व विधायक शीतल अंगुराल पार्टी को अलविदा कह चुके हैं। लिहाजा पार्टी के मत प्रतिशत को बढ़ाना उनके लिए चुनौती है।
दोआबा में चन्नी कद्दावर नेता बनकर उभरे
चौधरी व केपी परिवार की सियासत आगे आसान नहीं है। चन्नी एक बड़े दलित नेता के रूप में दोआबा में कद्दावर नेता बनकर उभरे हैं। अमृतपाल सिंह खालसा के बाद उनकी लीड सबसे अधिक है। केपी पंजाब के प्रधान रह चुके हैं। सांसद के अलावा दो बार कैबिनेट मंत्री रहने के बावजूद केपी अपनी जमानत नहीं बचा पाए हैं। उन्होंने अकाली दल की टिकट पर चुनाव लड़ा था। दोनों परिवार पंजाब की दलित राजनीति का केंद्र बिंदु थे और दोनों हाशिये पर चले गए हैं।
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