हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष
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इस भौतिक संसार के संचालन की ईश्वरीय व्यवस्था लिखने पढ़ने और बोलने आदि के रूप में संचालित हो रही है | मतलब अक्षर से शब्द और शब्द से वाक्य यानी लिखने पढ़ने और बोलने आदि के रूप में ही संसार का संचालन हो रहा है। पढ़ने और बोलने जैसे इन्हीं मुख्य माध्यमों में पत्रकारिता जैसा वह महाशब्द भी शामिल है, जो पूरे संसार की व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है। वह व्यवस्था चाहे राजनीति से जुड़ी हो। व्यवसाय से जुड़ी हो या फिर अर्थ (धन) आदि से। हमारे जन्म और मृत्यु के साथ ही उसके बीच वाले कालखंड यानी जीवन को भी सूचित आदि करने के रूप में भी जो हर तरह से प्रभावित करती है। मेरी नजर में भौतिक संसार में उसे पत्रकारिता के नाम से ही जाना जाता है।
पत्रकारिता जो मां सरस्वती की अपार कृपा का भी परिणाम मानी जाती है ,लेकिन न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व के लगभग 90% से अधिक पत्रकारों खासकर भारत के पत्रकारों ने पत्रकारिता के मामले में मां सरस्वती की कृपा वाली परिभाषा को बदल सा दिया है। मतलब अब यह नहीं कहा जा सकता कि जिसके ऊपर मां सरस्वती की कृपा होती है। उससे लक्ष्मी जी सदैव नाराज रहती हैं। मतलब अगर आप पत्रकारिता को अपना करियर बनाएंगे और चाहेंगे तो इसी के बल पर खाक पति से करोड़पति बन जाएंगे। यानी मां सरस्वती के खिलाफ लक्ष्मी जी की कृपा अवश्य पाएंगे।
शायद आपके भी संज्ञान में बहुत से ऐसे लोग भी होंगे ,जिन्होंने पत्रकारिता को अपना करियर बनाकर ना केवल भौतिक जीवन की सारी सुख सुविधाएं हासिल कर लीं बल्कि खाकपति से करोड़ पति भी हो गये। जबकि देश और समाज के हित में ईमानदारी से की जाने वाली पत्रकारिता उन्हें इस मुकाम पर कदापि नहीं पहुंचा सकती थी।
अब जहां तक हिंदी पत्रकारिता दिवस का सवाल है | पहले हिंदी समाचार पत्र उदंत मार्तंड का जिक्र करते हुए हम लोग इसे हर साल 30 मई को मनाते हैं। यह सच है किसी भी किसी भी दिवस को मनाना। उसके नाम पर सभाएं और गोष्ठियां कर लेना या सम्मान समारोह कर लेना अलग बात है और ऐसा कर लेने से उस दिवस जैसे कि हिंदी पत्रकारिता दिवस आदि को मनाने का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। इसके लिए लोकहित वाली पत्रकारिता के सिद्धांतों और आदर्शों को अपनाना होगा। उनको ही जीना होगा, क्योंकि पत्रकारिता जैसा विषय लिखने, पढ़ने और कहने के रूप में संसार संचालक अक्षर से शब्द, शब्द से वाक्य यानी अजर, अमर ,अविनाशी शब्द ब्रह्म से जुड़ा हुआ है। मतलब अगर कुछ कहा न जाए। कुछ लिखा न जाए और कुछ पढ़ा ना जाए तो संसार का संचालन हो ही नहीं सकता , लेकिन पत्रकारिता के पेशे से जुड़े या खुद को पत्रकार कहने वाले 95% लोग देश और समाज के हित में पत्रकारिता के अपने उद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में जाते हुए नहीं दिखाई पड़ते और यह स्थितियां भारत ही नहीं बल्कि विश्व के किसी भी देश के लिए हितकर नहीं मानी जा सकती।
यह बात दीगर है कि 100 साल पहले ना तो हम लोग इस दुनिया में कहीं थे और ना ही 100 साल बाद कहीं होंगे। जीवन का जो एक संक्षिप्त कालखंड है। उसमें प्राप्त क्षमताओं के अनुरूप ही संसार के संचालन की ईश्वरीय व्यवस्था के तहत हम लोगों ने अपने विभिन्न सांसारिक कर्तव्यों के निर्वहन दायरे में बोलने, लिखने और पढ़ने के रूप में संसार संचालक अजर , अमर , अविनाशी अक्षर से शब्द और शब्द से वाक्य यानी पत्रकारिता को भी शामिल कर रखा है, जो कि नि:संदेह परमेश्वर की पूजा, साधना, उपासना , वंदना और आराधना ही है।
परंतु अधिकांश लोग किस उद्देश्य और किस तरह की पत्रकारिता करते हैं। पत्रकारिता की नीतियों ,नियमों और सिद्धांतों के खिलाफ किस तरह से खुले आम बलात्कार करते हैं ? वह पत्रकारिता की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने के लिए क्या नहीं करते। यह सत्य भी किसी से छिपा नहीं है। अगर अपने भारत की बात करें तो यहां के लगभग हर जिले में बड़ी संख्या में ऐसे भी लोग खुद को पत्रकार कहते हैं ,कहलाते हैं, जिन्हें पत्रिकारिता शब्द लिखना तक नहीं आता। अपनी कमाई के लिए खास कर शाम को एक बोतल के जुगाड़ के लिए ये तथा कथित पत्रकार लगभग हर रोज कोई न कोई शिकार जरूर तलाश लेते हैं। इसमें जमीन के विवाद परिवार या पडो़सियोंं में झगड़े मारपीट आदि के मामले भी उनके सबसे बड़े सहायक साबित होते हैं, जिनको पत्रकारिता की एबीसीडी तक नहीं आती। जो शुद्ध हिंदी तो दूर उसकी एक लाइन तक नहीं लिख पाते।
यहीं नहीं ऐसे भी घाघों की बहुतायत है, जिन्हें बलात्कार, दहेज उत्पीड़न और हरिजन उत्पीड़न आदि के मामलों में दलाली करने में महारत हासिल है। ये कतिपय तथा कथित पत्रकार तय धनराशि का पचास प्रतिशत पहले लेकर उस काम को कराने का बाकायदा ठेका ले लेते हैं। जबकि दर्जनों ऐसे भी हैं जो केवल ब्लैक मेलिंग के जरिये हर माह हजारों के वारे न्यारे करने में सफल रहते हैं। इस काम के लिए वे सुबह से ही कैमरा आदि लेकर निकल पड़ते हैं। इनका शिकार पहले नम्बर पर पुलिस वाले, दूसरे पर व्यापारी और तीसरे पर जनप्रतिनिधि होते हैं। पत्रकारिता की आड़ में ऐसा करने वालों में उन युवाओं की संख्या ज्यादा बताई जाती है, जो पत्रकार का चोला ओढ़ने के पहले लूट,चोरी, राहजनी ठगी, अपहरण और हत्या आादि जैसे संगीन अपराधों में किसी न किसी रूप में पहले भी लिप्त थे। आज भी लिप्त हैं। और भविष्य में भी लिप्त रहने की प्रबल सम्भावना हैं।
याद रहे कि इस तरह के अनेक तथा कथित पत्रकार पूर्व में लूट चोरी आदि की घटनाओं में पकड़े भी जा चुके हैं।
वहीं दूसरी ओर जो लोग इमानदारी से निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता का हिस्सा बनना चाहते हैं अथवा बने हुए हैं। उन्हें बहुत सारी समस्याओं से जूझना भी पड़ता है। खासकर वह लोग किसी न किसी समाचार पत्र के प्रकाशक और संपादक के रूप में पत्रकारिता के दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। अखबार बनता रहे। अखबार छपता रहे। इससे जुड़ी व्यवस्थाएं करने में उन्हें जितनी कठिनाई होती है ,जितनी अंतः पीड़ा होती है। उसे उनकी आत्मा से बेहतर और कोई नहीं जानता होगा।
30 मई 1826 को कलकत्ता से युगल किशोर शुक्ला द्वारा प्रकाशित हिन्दी भाषा पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ केवल पैसे के अभाव में ही बंद हुआ था ….और आज के हालातों में भी इमानदारी से निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले लोग भी इन्हीं हालातों से जूझ रहे हैं। मतलब जरूरतों और आकांक्षाओं के चलते देश और समाज के हित में निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता बुरी तरह से प्रभावित होने से नहीं बच पाई है। जो लोग नियमों और सिद्धांतों के अनुरूप देश और समाज के हित में वास्तव में निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता करना चाहते हैं या कर रहे हैं । उन लोगों से ईमानदारी की तो आशा की जाती है लेकिन ,निष्पक्ष और इमानदार पत्रकारिता में जिन बाधाओं और संकटों को झेलना पड़ता है, उनसे निजात कैसे मिले ? इसमें सहयोग करने वाला कोई नहीं है।
इसीलिए पत्रकारिता की दशा और दिशा पर ना केवल गहन चिंतन बल्कि देश और समाज के हित में आवश्यक सुधार और परिवर्तन की भी जरूरत है। बरना जिनको इसकी नहीं बल्कि पत्रकारिता के माध्यम से अपना उल्लू सीधा करने की जरूरत है। वह पत्रकारिता को किस खतरनाक दिशा में ले जा चुके हैं। ले जा रहे हैं या फिर ले जाएंगे। वह उस किसी के भी हित में नहीं होगा, जो इस देश और समाज का वास्तविक हित चिंतक है।
आज काफी संख्या में लोग पत्रकारिता पर पैसा लगा रहे हैं ,जिससे अभी साबित होता है कि पत्रकारिता अब पत्रकारिता न रहकर एक बड़ा कारोबार बन गया है। ….और हो सकता है कि अनुचित स्वार्थ पूर्ति के उद्देश्य से की जाने वाली आज की लगभग 95 प्रतिशत तथाकथित पत्रकारिता आगे चलकर कुछ इस तरह की हो जाये कि लोग पत्रकारिता को भी गाली जैसे शब्द के रूप में प्रयोग करने लगें। मतलब अगर किसी को गाली देनी हो तो वह उसे पत्रकार कह दे।
सुनील बाजपेई
(कवि ,गीतकार ,लेखक एवं वरिष्ठ पत्रकार),
कानपुर – 7985473020