डॉ. गोपाल नारायण आवटे
डॉक्टर कमरे से जैसे ही बाहर निकला, उसके उदास चेहरे को देखकर ही मन न जाने कैसा-कैसा हो उठा। ढेर सी कुशंकाएं मन की दीवार पर अनचाही बरसाती वनस्पति की तरह उग आई थीं। डॉक्टर के साथ बड़ा पुत्र दिनेश भी था। एक पल के लिए डॉक्टर मुझे देखकर रूका और बड़े धीमे स्वर में उसने कहा- ”मां जी माफ करें, हम उन्हें नहीं बचा सके।‘
पूरे घर में दु:ख का वातावरण छा गया था। बड़ी बहू, दिनेश, सबकी आंखों में आंसू थे। कुछ ही पल बाद दिनेश अन्य भाईयों को फोन करने के लिए निकल गया। आस-पड़ौस की अन्य महिलाएं भी इस अवसर पर आ गईं और दु:ख मनाने लगी थीं।
मेरा तो मानो पूरा संसार ही नष्ट हो गया था। मैं बार-बार नेत्रों में आये आंसुओं को पोंछती और स्मृति की एक लहर आकर उन्हें पुन: अश्रु से गीला करके चली जाती थी।
विवाह के बाद पूरे चालीस वर्ष उन्होंने साथ बिताये थे। इन चालीस वर्षों को जब मैं याद करती हूं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो चालीस छोटे-छोटे क्षण थे और पल भर में अलग हो गए थे। वे ऐसे अलग हुए कि अब चाहकर भी वह नहीं मिल सकती थी। पिछले चालीस वर्षों में कैसे-कैसे सुख-दु:ख,तनाव, पीड़ा सब उन्होंने मिल-जुलकर साथ जिये थे और आज केवल स्मृतियों के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं है।
वह रेलवे में नौकरी करते थे, उन पर परिवार का दायित्व अधिक था फिर भी उन्होंने अपने कर्तव्यों से कभी मुंह नहीं मोड़ा था। कभी-कभी दबे स्वर में मैं कहती भी थी कि- ”हमारे संसार के विषय में तो कभी विचार किया करो।‘
”क्या विचार करना है, मधु, अभी मैं जीवित हूं, मेरे कर्तव्यों को पूरा करने दो। फिर मैं भी तो अपने कर्तव्यों का कर्ज चुका रहा हूं।‘
”तुम्हारी जैसी मर्जी।‘ मैं तुनककर कहती तो वह कहते-
”तुम व्यर्थ नाराज मत हो, मालुम है तुम क्रोध में भी सुंदर दिखलाई देती हो।‘
”बातें कोई तुमसे बनाना सीखे।‘ मैं कहती और उठकर रसोई की ओर जाने को होती तो वह हाथ पकड़कर कहते-
”मधु गुप्ता जी, आप चिंता न करें, मेरा फण्ड और एफ.डी. में रूपया जमा होता जा रहा है, तुमसे अधिक मुझे संतान आने की चिंता है।‘
अपने कर्तव्यों को पूरा करते-करते हमारे परिवार में तीन पुत्र आ गए थे दिनेश, विनोद, शंकर। हमारा परिवार पूरी कॉलोनी में एक सुखी परिवार कहलाता था।
समय धीरे-धीरे शक्ति को तो सोख ही लेता है, साथ में सहन करने की क्षमता को भी कम कर देता है। यह जब भी काम से आते काफी थके हुए होते थे और कभी-कभी छोटी-छोटी बात पर मुझे डांट देते थे। रात गए फिर मुझसे कहते- ”पता नहीं मधु, मैं क्यों इतना अधिक क्रोध करने लगा हूं?’
मैं उनसे कहती- ”सब ठीक हो जायेगा।‘ वह तो मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि उन्होंने फण्ड में से रुपये निकालकर अपने एक मित्र को दिए थे और वह लौटा नहीं रहा था, जिसका तनाव वह झेल रहे थे। मैंने उनसे कहा भी था- ”तुम ठीक रहो जी, रूपया तो आता-जाता रहता है।‘
”मेरे परिवार के सुख के लिए जोड़ा वह सब रूपया खत्म हो गया मधु, कभी-कभी लगता है मानो मैं परिवार का दोषी हूं।‘
”तुम चिंता मत करो, हम रूखी-सूखी खाकर, साधारण स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर आगे बढ़ा लेंगे, तुम बस खुश रहो।‘ मैं जब कहती तो उनके चेहरे पर संतोष की लकीरें उभर आती और वह कहते- ”मधु मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।‘
बहते पानी-सा समय बहता चला जा रहा था। दिनेश, विनोद की महत्वाकांक्षाएं बड़ी थी, वह किसी अच्छे प्रशिक्षण केंद्र में पढऩा चाहते थे, जो हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति के आगे संभव नहीं था। यह दोनों बड़े पुत्र कभी-कभी अपने पिता को दबे शब्दों में कुछ भला बुरा भी कह देते थे। दिनेश ने तो एक फैक्टरी में काम करके कुछ रूपया कमाना भी प्रारंभ कर दिया था और उसी से अपनी आगे की शिक्षा को पूरी कर रहा था। उसको देखकर विनोद और शंकर के भी पंख उग आये थे और वह भी इसी तरह का आचरण घर में करने लगे थे।
मैं और यह काफी दु:खी रहते थे। यह ओवर टाइम करके पूरे परिवार को आर्थिक रूप से सुदृढ़ रखना चाहते थे, किंतु इनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे जवाब देता जा रहा था। इधर जवान पुत्रों का रक्त दिन प्रतिदिन गर्म होता जा रहा था और हमारी समस्त भावनाएं संवेदनाएं ठंडी होती जा रही थी।
आखिर यह सेवानिवृत्त भी हो गये और जो रुपये मिले उनसे इन्होंने दिनेश, विनोद का विवाह पक्का कर दिया था। पुश्तैनी मकान था इसलिये सिर पर छत की चिंता नहीं थी। दिनेश ने तो उसके पिता से पूछ भी लिया था- ”पापा, शादी में कुछ दहेज भी ले रहे हो या नहीं?’
”नहीं बेटा, तुम में यदि पुरूषार्थ होगा तो तुम स्वयं कमा लेना।‘
”यह सब पुराने जमाने की बातें थी पापा, यदि दहेज नहीं मिला तो मैं अपना बिजनेस कैसे प्रारंभ करूंगा?’
”ईश्वर सब ठीक करेंगे।‘
‘देख तो रहे हैं, ईश्वर ने कितना ठीक कर दिया है।‘ दिनेश की बात सुनकर यह चिढ़ उठे- ‘नालायक क्या तू कभी भूखा सोया? क्या पढ़ाई के लिये भीख मांगी? अरे हम चाहे भूखे रहे, किंतु तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, खिलाया है… और आज मुझसे मुंह लगाकर बातें कर रहा हैं…’ दिनेश ने पापा का क्रोध भरा चेहरा देखा तो उठकर अंदर चला गया। मैंने इन्हें समझाने की कोशिश की किंतु यह क्रोध में मुझे ही भला-बुरा कहने लगे थे।
दिनेश ने पता नहीं कब अपने होने वाले ससुराल में फोन करके बिजनेस हेतु रुपयों की मांग रख दी थी। शादी की तारीख पक्की हो चुकी थी और कार्ड भी बांटे जा चुके थे। लड़की वाले घबराकर घर आये तब इन्हें पता चला। यह अपना माथा झुकाये अपने पुत्र की करतूत पर आंसू बहाते चुप बैठे रहे। जो कुछ हजार लाये थे वह दिनेश ने ले लिये थे, लेकिन इन्हें न जाने क्या हुआ कि उसी क्षण से यह चुप रहने लगे।
विवाह हो गया, बहू आ गई, किंतु इनके शरीर-मन पर जो उदासी बिछ गई थी वह फिर कभी नहीं हटी।
विनोद ने जो थोड़े बहुत रुपये थे वह भी ले लिये और अपनी एक छोटी-सी दुकान खोल ली थी। शंकर अभी तक पढ़ाई कर रहा था, वह यदा-कदा अपना क्रोध मुझ पर निकाल लेता था और कहता था कि ‘सब तुमने अपने बड़े बेटों और ससुराल में लुटा दिया । मां और अपने छोटे बेटे के हिस्से में सिवाय परेशानी और कर्ज के कुछ नहीं आया।‘
मैं कुछ नहीं कहती, चुपचाप आंसू बहाकर चुप हो जाती थी। इनसे हजार प्रश्न करती तब एक का उत्तर देते थे। भूख-प्यास से मानो इनका रिश्ता ही टूट गया था। जो कुछ मैं दे देती, यह खा लेते थे वर्ना चुपचाप पड़े रहते थे। उदास सूनी आंखों से आकाश को ताकते रहते थे।
पुत्रों की तरह की कड़वी जुबान की बहुएं भी निकली, हम पूर्वजन्म के पाप को झेल रहे थे, यही सोचकर मन को शांत कर लेते थे।
वह तो हमें सरकार से पेंशन मिल रही थी इसलिये हम परिवार पर बोझ नहीं थे। वर्ना हमें भूखे मरने की स्थिति पर लाकर हमारे पुत्र छोड़ देते।
कुछ दिनों से इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा था, किंतु डॉक्टर को दिखाया नहीं जा रहा था। मैं ही सरकारी अस्पताल से दवाई लाकर इन्हें दे रही थी, किंतु इन्होंने तो जीवन के मोह से नाता ही तोड़ लिया था। अपने ही शरीर के अंग जब अपने से घृणा और उपेक्षा करने लगे तो फिर जीवन में जीने के लिये शेष क्या बचता है?
और आखिर एक दोपहर इनका स्वास्थ्य खराब था, बहू ने भी ध्यान नहीं दिया। मैं अकेली ही दिनेश की दुकान तक दौड़ गई, उसे बताया कि- ‘उसके पिता कुछ भी खा-पी नहीं रहे है, बोल भी नहीं रहे हैं। तब वह दुकान से उठा, डॉक्टर को लेकर जब वह घर पर आया तब तक इनके प्राण जा चुके थे।‘
मैं अभी तक रोये जा रही थी, एक-एक क्षण स्मृति को कुरेद रहे थे।
कुछ ही देर में शेष दोनों पुत्र भी आ गये और इनके शरीर को हमेशा के लिये घर से लेकर चले गये, घर में सब जोरों से रो रहे थे। मेरा तो सब कुछ लुट गया था।
घर में मृत्यु के बाद घर शुद्धि, पूजा और अन्य दो-तीन दिनों के कार्यक्रम हुये। राख ले जाकर पवित्र नदी में प्रवाहित कर दी गई तथा सिर के केशों को भी वहीं नदी में प्रवाहित करके तीनों पुत्र आ गये थे।
घर में मेहमान आ चुके थे और प्रत्येक मेहमान आने के साथ ही घर में रोना विलाप करने के कारण पूरे घर का वातावरण गंभीर और दु:ख से भरा था।
चार दिनों पश्चात मृत्युभोज देना था और उसके विषय में एक कमरे में तीनों पुत्र और बहुएं बैठकर चर्चा कर रहे थे। मुझसे रुपयों की बात पूछी गई तो मैंने कह दिया था- ‘मेरे पास केवल पेंशन के रुपयों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं आता था। वह भी हम बड़ी बहू को दे देते थे। शेष कुछ भी हमारे पास बचा नहीं है।‘
‘ठीक है मां, तुम जाओ।‘ शंकर ने मुझसे कहा और मैं कमरे से उठकर अपनी खोली में जाकर लेट गई, किंतु कान और मन अभी तक पुत्रों की चर्चा में ही लगे थे। मेरे कानों में पुत्रों का स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहा था। दिनेश ने कहा- ‘मैंने पापा का दाह संस्कार और अन्य पांच सात दिनों का पूरा कर्मकाण्ड करवा दिया। मेहमानों को भी मैं ही रखे हुये हूं। अब मृत्युभोज की पूरी जिम्मेदारी विनोद और शंकर तुम्हारी है।‘ ‘हम इतना खर्च कहां से उठाएं।‘ विनोद ने कहा।
‘यह तुम जानो।‘ दिनेश ने कहा।
‘तो ठीक है, सूखी रोटी और दाल खिला देते हैं।‘ शंकर ने तनिक क्रोध से कहा।
‘यह तुम समझो, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, इससे अधिक की मेरी औकात नहीं है। मेरा भी परिवार है, पापा जैसा मैं मूर्ख नहीं हूं कि सब कुछ लुटाकर भिखारी जैसा जीवन जीने लगूं।‘ दिनेश ने कहा।
‘लेकिन भैय्या हम इतना रूपया कहां से लायेंगे।‘ विनोद ने कहा।
‘मैंने मेरे हिस्से का कार्य कर दिया, चाहे तो हिसाब देख लो, पूरे दस हजार से अधिक खर्च किये हैं।‘
तीनों में तीखी नोंक-झोंक हो रही थी। मुझसे नहीं रहा गया। तेजी से उठी और दरवाजा खोलकर कमरे में आई और लगभग चीखते हुये मैंने कहा- ‘तुम्हारे पापा ने तुम्हें कभी हिस्सों में नहीं पाला, तुम क्यों पिता भक्त पुत्र बनने का स्वांग कर रहे हो? क्यों यह बाल कटवाएं? क्यों पूजापाठ करवा रहे हो? क्यों मृत्युभोज का नाटक कर रहे हो? अरे अभी मैं जीवित हूं, जो कुछ करना होगा मैं कर लूंगी, मैं यह घर बेच दूंगी। तुम चिंता मत करो मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है। लेकिन खबरदार जो तुमने कभी अपनी वल्दियत में अपने पिता का नाम लिखने की कोशिश की तो, तुमसे उनका ही नहीं मेरा भी कोई संबंध नहीं है समझे।‘
कहकर मैं तेजी से अपनी खोली में आकर दरवाजे को बंद करके जोरों से रो पड़ी। ऐसा करके मैंने ठीक किया ना। मां-पिता का कर्तव्य हिस्सों में तो नहीं बांटा जा सकता। मैं अधिक पढ़ी-लिखी तो नहीं हूं इसलिये आपसे सलाह मांग रही हूं, आप सहायता करेंगे ना।
(विनायक फीचर्स)