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बाल कहानी ईमानदार रवि

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डॉ. राजीव गुप्ता –

रवि, कानपुर के झकरकटी बस स्टैंड पर खड़ा बस का इंतजार कर रहा था। उसे फर्रूखाबाद जाना था। वह यहां बैंक की परीक्षा देने आया था।
इस समय सुबह के दस बजे थे। उसने इंक्वायरी ऑफिस से मालूम किया कि बस ग्यारह बजे मिलेगी। वह समय काटने के लिए बुक स्टाल पर रखी पत्रिकाएं देखने लगा।
उसे दो पत्रिकाएं अच्छी लगीं। उसने उन्हें खरीद लिया और दुकानदार को पचास का नोट दिया।
उस समय बुक स्टाल पर काफी भीड़ थी। कुछ अन्य लोग भी पत्रिकाएं खरीद रहे थे। दुकानदार बहुत व्यस्त था। उसने रवि से पचास रुपए लेकर अपनी गोलक में डाल दिए, फिर वह अन्य लोगों को पत्रिकाएं उठा-उठाकर दिखाने लगा।
कुछ देर इंतजार करने के बाद रवि ने दुकानदार से कहा, अंकल, मेरे बाकी बचे पैसे तो दीजिए।
‘ओह सॉरी… मैं तो भूल ही गया था।’ कहते हुए दुकानदार ने कुछ रुपए गिनकर उसे वापस कर दिए।
रवि ने जब रुपए गिने तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। दुकानदार ने उसे पूरे साठ रुपए लौटाए थे।
‘आपने मुझे कितने रुपए वापस किए हैं, अंकल?’रवि ने रुपए दुकानदार की तरफ बढ़ाते हुए पूछा।
‘साठ रुपए। तुमने बीस-बीस रुपए की दो पत्रिकाएं खरीदी हैं और सौ रुपए का नोट दिया है।’ दुकानदार ने कुछ झुंझलाकर कहा।
‘नहीं अंकल, मैंने आपको केवल पचास रुपए का नोट दिया है, आपको मुझे केवल दस रुपए देने हैं।’ रवि ने मुस्कराते हुए कहा।
दुकानदार को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने पचास रुपए वापस लेते हुए रवि की प्रशंसा की और उसे धन्यवाद दिया। पत्रिकाएं खरीद रहे अन्य लोगों ने भी यह सब देखा। वे भी रवि की ईमानदारी से प्रभावित थे।
कुछ समय बाद फर्रूखाबाद की बस आ गई। रवि उसमें बैठकर आराम से पत्रिका पढऩे लगा। ठीक ग्यारह बजे बस चल पड़ी।
‘टिकट… कहां जाना है आपको?’ बस कंडक्टर ने उसके पास जाकर पूछा।
‘फर्रूखाबाद।’ उसने कहा। और अपनी जेब से अपना पर्स निकालने लगा पर वह यह देखकर घबरा गया कि जेब से पर्स गायब था। शायद किसी ने मौका देखकर उसका पर्स उड़ा लिया था।
‘यह लीजिए टिकट… लेकिन क्या बात है? उसके चेहरे का रंग उड़ा देखकर कंडक्टर ने पूछा?’
‘कंडक्टर साहब, किसी ने मेरा पर्स मार दिया है। अब मैं आपको पैसे कहां से दूं।’ रवि ने रुआंसा होकर कहा।
‘फिर तो आपको यहीं उतरना पड़ेगा।’ कंडक्टर ने सीटी बजाई और बस वहीं रुक गई।
रवि ने निराश होकर चारों ओर देखा फिर बस से नीचे उतरने के लिए सीट से उठ खड़ा हुआ।
तभी पास की सीट पर बैठे एक सज्जन ने उससे कहा, ‘कोई बात नहीं बेटा, तुम आराम से बैठो। मैं तुम्हारा टिकट ले लूंगा।’ यह कहकर उन्होंने कंडक्टर को अपने और रवि के किराए के रुपए दिए। कंडक्टर ने उन्हें पचीस रुपए लौटाए। वे भी उन्होंने रवि को रिक्शे आदि के लिए दे दिए।
‘लेकिन अंकल, आप तो मुझे जानते भी नहीं हैं। आप मेरी यह घड़ी रख लीजिए।’ रवि ने अपनी कलाई से घड़ी खोलते हुए कहा।
‘हां, मैं तुम्हें जानता अवश्य नहीं हूं पर मुझे पता है कि तुम एक ईमानदार लड़के हो। इस घड़ी की कोई जरूरत नहीं है। यह मेरा विजिटिंग कार्ड है। तुम बाद में मुझे मनीऑर्डर कर सकते हो।’ उन सज्जन ने मुस्कराते हुए कहा।
रवि अब भी सोच-विचार में मग्न था।
‘तुम ने जब दुकानदार को पचास रुपए वापस कर दिए थे, तभी मैं समझ गया था कि तुम एक ईमानदार लड़के हो। उस समय मैं भी बुक स्टाल पर पत्रिकाएं खरीद रहा था।’ उसे सोच में पड़ा देखकर वे सज्जन बोले।
‘ओह धन्यवाद, अंकल।’ रवि ने खुश होकर कहा।
सारे यात्री प्रशंसा भरी नजरों से उसकी तरफ देख रहे थे। आज रवि को अपने ईमानदार होने पर बहुत गर्व हो रहा था। (विनायक फीचर्स)

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